मेरा मन
>> Thursday, October 2, 2008
धूप में झुलसती हुई
ज़िन्दगी की
पथरीली सड़क पर
मेरा मन
नंगे पाँव चला जा रहा था।
कब राह में
ठोकर लगी ?
गर्म धूल के समान
तपते विचार
कब मन को झुलसा गए ?
कब आक्रोश के भास्कर ने
मन के भावों को
भस्म किया ?
कुछ अहसास नही ।
बस ये मन है कि
ज़िन्दगी की हर
सरल - कठिन , टेढी - मेढ़ी
स्वछन्द या कि
काँटों से भरी राह पर
चलता गया ।
कभी प्रसन्न वदन
खुशियाँ लुटायीं
तो कभी ग़मगीन हो
लहू - लुहान हो गया .
6 comments:
कब राह में
ठोकर लगी ?
गर्म धूल के समान
तपते विचार
कब मन को झुलसा गए ?
कब आक्रोश के भास्कर ने
मन के भावों को
भस्म किया ?
कुछ अहसास नही ।
hum apni dhoon mein khoye chalte rahte nai
har ghum aor dard ko sameite. rah chahe chanv ki ho ya garam rait ki.
aapne bahut acha likha hai,
bahdai
aapki har rachna ahsasoN ka sajeev chitran hai..
बस ये मन है कि
ज़िन्दगी की हर
सरल - कठिन , टेढी - मेढ़ी
स्वछन्द या कि
काँटों से भरी राह पर
चलता गया ।
कभी प्रसन्न वदन
खुशियाँ लुटायीं
तो कभी ग़मगीन हो
लहू - लुहान हो गया .
shabd to sab aap likh detee hain ham kya likhen
Anil
कब राह में
ठोकर लगी ?
गर्म धूल के समान
तपते विचार
कब मन को झुलसा गये ?
कब आक्रोश के भास्कर ने
मन के भावों को
भस्म किया ?
कुछ अहसास नही.
..........
kin shabdon me kahun ki in panktiyon ne kya asar kiya hai
kush ehsaas mahsoos kiye ja sakte hain
"ज़िंदगी की
पथरीली सड़क पर
मेरा मन
नंगे पाँव चला जा रहा था"
ऐसा लग रहा है आपने इन पंक्तियों में मेरे मन के भावो को यथार्थ चित्रण दिया है......
सचमुच ज़िन्दगी की इस कठोर सड़क पर मेरा मन नंगे पाँव चल रहा है,
जिसमे कष्ट रूपी पत्थर छुभ रहे है........
"कब राह में
ठोकर लगी ?
गर्म धूल के समान
तपते विचार
कब मन को झुलसा गये ?
कब आक्रोश के भास्कर ने
मन के भावों को
भस्म किया ?
कुछ अहसास नही"
सचमुच मन के भावः नष्ट हो चुके है,
ज़िन्दगी की इस तपती ज़मीन पर मन झुलस गया है...........
"कभी प्रसन्न वदन
खुशियाँ लुटाई
तो कभी गमगीन हो
लहू - लुहान हो गया"
जीवन सत्य का सार है ये आपकी रचना!
hmmmmm ye zindgi ki dhoop chhaav...kabhi teekhi..kabhi shaant per her ek ko sehni padti hai..aur sambhalna b padta hai..
dard se bherpoor ehsaas...nice sharing.
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