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आवारा से ख्वाब

>> Wednesday, April 27, 2011


आवारा से ख्वाब 
कभी भी चले आते हैं 
आँखों में 
चाहती हूँ कि 
कर लूँ बंद 
हर दरवाज़ा 
और न आने दूँ 
ख़्वाबों को 
लेकिन इनकी 
आवारगी ऐसी है 
कि बंद पलकों में भी 
समा जाते हैं 
घबरा कर 
खोल देती हूँ किवाड 
जो बामुश्किल 
बंद किये थे 
और वो ख्वाब 
तरल आँखों में 
बादल बन 
करते रहते हैं 
अठखेलियाँ 
जब तक 
बरस नहीं जाते 
लेते नहीं 
जाने का नाम
और जाते भी कहाँ हैं ?
बस खेलते हैं 
लुका -  छिपी 
और मैं 
देखती  रह जाती हूँ 
आवारगी ख़्वाबों की. 



ईमानदारी से

>> Tuesday, April 12, 2011



ईमानदारी से
चाहती हूँ कहना
कि
मैं ईमानदार नहीं.
क्यों कि
जो कहती हूँ
वो करती नहीं
जो सोचती हूँ
वो होता नहीं
जो होता है
वो चाहती नहीं .
इसी ऊहापोह में
जीती चली जाती हूँ
क्षण - प्रतिक्षण
परिस्थितियों में
ढलती चली जाती हूँ.
 
जो बदल जाये
वक़्त के साथ
तो बताओ
वो कैसे
रह पायेगा ईमानदार
खुद की सोचों पर भी
बिठा  देती हूँ कभी - कभी
अनदेखा पहरेदार
और मान लेती हूँ
कि
ज़िन्दगी जी रही हूँ.
जब कि जानती हूँ
कि
पल पल मर रही हूँ.
इसीलिए 
कहती हूँ ईमानदारी से
कि
मैं ईमानदार नहीं .

झरोखा ..

>> Tuesday, April 5, 2011




कोई भी रिश्ता बनते ही 
खड़ी हो जाती हैं 
उसके चारों ओर 
कई अदृश्य दीवारें ,

बिना दीवारों के 
रिश्तों की कोई 
अहमियत भी तो नहीं 

पर मात्र दीवारों पर 
डाल कर अपने 
नेह की चादर 
सोच लिया जाए कि 
बन गयी है छत 
और मुकम्मल हो गया 
रिश्तों का मकाँ
तो होगी शायद 
सबसे बड़ी भूल 

क्योंकि - 
हर रिश्ता 
जीने के लिए 
उसमें ज़रूरी है 
एक झरोखे का होना .


हमारी वाणी

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