आवारा से ख्वाब
>> Wednesday, April 27, 2011
आवारा से ख्वाब
कभी भी चले आते हैं
आँखों में
चाहती हूँ कि
कर लूँ बंद
हर दरवाज़ा
और न आने दूँ
ख़्वाबों को
लेकिन इनकी
आवारगी ऐसी है
कि बंद पलकों में भी
समा जाते हैं
घबरा कर
खोल देती हूँ किवाड
जो बामुश्किल
बंद किये थे
और वो ख्वाब
तरल आँखों में
बादल बन
करते रहते हैं
अठखेलियाँ
जब तक
बरस नहीं जाते
लेते नहीं
जाने का नाम
और जाते भी कहाँ हैं ?
बस खेलते हैं
लुका - छिपी
और मैं
देखती रह जाती हूँ
आवारगी ख़्वाबों की.