झुर्रियों की भाषा
>> Tuesday, May 17, 2011
वक्त के साथ
पड़ गयीं हैं
झुर्रियाँ
मेरे चेहरे पर भी
हर झुर्री में जैसे
एक तहरीर
लिखी है ,
ज़िंदगी का इतिहास
इन लकीरों में
दिखता है
पर इतिहास जैसा विषय
कम ही लोग
पसंद करते हैं पढ़ना
इसीलिए
गलतियों से
सबक सीख नहीं पाते
और अपने
अनुभव से ही
लिखना चाहते हैं
नयी इबारत
सच तो यह है
कि
हर एक का होता है
एक अलग इतिहास
एक एक लकीर में
समाई होती हैं
जैसे
समंदर की लहरें
जिनकी गिनती
नहीं की जा सकती
वैसे ही
झुर्रियों की भाषा
पढ़ी नहीं जाती ...
77 comments:
ha jee har jhuree ke apne alag anubhav hai.jaise hath kee rekhae eksee nahee hotee vaise hee ye jhureeya bhee.
jhurreeya anubhav to darshatee hai .......
par kaisa anubhav ye to chere ke bhav hee bata pate hai.....
sunder abhivykti.
aabhar
संगीता जी, आपने इस कविता के माध्यम से एक ऐसी सच्चाई से रूबरू कराया है जिसे हम स्वयं देखना नहीं चाहते पर अपने बच्चों से उम्मीद करते हैं,दूसरों के अनुभव से जो सीख ले वही बुद्धिमान है, सुंदर रचना !
जैसे
समंदर की लहरें
जिनकी गिनती
नहीं की जा सकती
वैसे ही
झुर्रियों की भाषा
पढ़ी नहीं जाती ...
बिलकुल सच है ! हर झुर्री की अलग कहानी होती है, अलग इतिहास होता है और अलग सी ही अनुभूतियाँ होती हैं ! इनमें डूब कर कुछ जानने की कोशिश वैसी ही होती है जैसे सागर की गहराइयों से मोती वाली सीपी को ढूँढ निकालना ! बहुत सुंदर अभिव्यक्ति !
वाकई हर लकीर में समाई होती है समय की एक दास्तान ....जिसे अक्सर लोग जानना नहीं चाहते ! दया के पात्र है हम लोग ...
शुभकामनायें आपको !
हाँ ये तो सच है कि इन झुर्रियों के अनुभव का इतिहास कौन पढ़ना चाहता है? पुराने ज़माने के लोग क्या जाने कि आज कल क्या क्या होता है? लेकिन अनुभव कभी पुराने नहीं होते - ज़माने की तरह . इतिहास खुद को दोहराता है भले ही वह नए कलेवर में आये लेकिन सत्य यही है कि बाल तोधूप में सफेद हो सकते हैं लेकिन ये झुर्रियां बहुत कुछ झेलने के बाद ही पड़ती हैं.
सही कह रही हैं झुर्रियों का इतिहास और भाषा कौन पढना और समझना चाहता है……………दर्द का गहन चित्रण किया है।
समंदर की लहरें
जिनकी गिनती
नहीं की जा सकती
वैसे ही
झुर्रियों की भाषा
पढ़ी नहीं जाती
झुर्री की प्रत्येक लकीर एक-एक किताब है। लेकिन झुर्रियों की इन किताबों को कौन पढ़ सका है?
नई भाव भूमि पर रची गई अच्छी कविता।
इन झुर्रियों के इतिहास को पढ़ने के लिए सुंदर मन भी तो चाहिए जो किसी विकृत चेहरे का माज़ी पढ सके :)
आह दी ! जैसे सारा दर्द उडेलकर रख दिया हो.झुर्रियों की भाषा कहाँ कोई पढ़ पायेगा.हम खुद भी कहाँ पढ़ पते हैं. वो तो सबकी अपनी अपनी हैं,अपना अपना अनुभव
बहुत बहुत गहरे भाव और बहुत सुन्दर शब्द संयोजन.
अत्यंत सार्थक अभिव्यक्ति है दी.... दर्पण की मानिंद बहुत कुछ दिखलाता और सिखलाता हुआ..... सादर....
इन अनमोल झुर्रियों की तह में झांक कर जो आपने देखा है वो कुछ इसी तरह है कि
बहुत हसीन सा एक बाग मेरे घर के नीचे है,
मगर सकून मिलता पुराने शज़र के नीचे है।
मुझे कढ़े हुए तकियों की क्या ज़रूरत है,
किसी का हाथ अभी मेरे सर के नीचे है।
झुर्रियों की भाषा अनोखी होती है , दिल से पढ़ी जाती है - जो सबसे मुमकिन नहीं
बहुत सही ...
झुर्रियों की एक -एक लकीरों की अपनी दास्तान होती है , मगर यूँ पढ़ी भी कैसे जाए ...
चेहरे पर लकीरें नहीं उम्र के निशाँ
आंसूं हैं जो सूख गए बिना पोंछे ही !
झुर्रिया बोलती है , उम्र भर की वेदना और संवेदना को अपने गहराई में समेटे . सुँदर कविता .
सच्चाई की बेवाक अभिव्यक्ति की है संगीता जी आपने . झुर्रिओं की भाषा झुर्रियां ही समझ सकती है, और अक्सर लोग इतिहास को भूलने का उपक्रम करते हैं लेकिन भूल पाते है क्या ? बेहद प्रभावशाली एवं संवेदनात्मक प्रस्तुति, बधाई .
jhurriyon kaa zindgi ke anubhav se gthbandhan bde achche andaaz me pesh kiyaa hai .....akhtar khan akela kota rajsthan
anubhav kah raha hai ...!
जैसे
समंदर की लहरें
जिनकी गिनती
नहीं की जा सकती
वैसे ही
झुर्रियों की भाषा
पढ़ी नहीं जाती ...
बहुत सच कहा है..हरेक झुर्री अपने आप में एक इतिहास छुपाये होती है पर हम उसको पढना नहीं चाहते..अपने अनुभव अपनी जगह ठीक हैं,लेकिन हम यह भूल जाते हैं कि यही अनुभव अगली पीढ़ी के लिये इतिहास होंगे जिन्हें वह भी शायद पढना न चाहे..झुर्रियों में छुपा इतिहास हमें बहुत कुछ सिखा सकता है, बशर्ते हम उनको पढना चाहें. बहुत सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति..आभार
दीदी,
यह झुरियों की मार्मिक व्यथा-कथा है।
क्यों सब के लिए अनुभव-सीख वृथा है
इसीलिए
गलतियों से
सबक सीख नहीं पाते
और अपने
अनुभव से ही
लिखना चाहते हैं
नयी इबारत
सच तो यह है
कि
हर एक का होता है
एक अलग इतिहास
inn jhuriyon me jharta hai pyar....dikhti hai abhilasha jeevan ki chamak...:)
hame to iss itihas se hai pyar..
ek marmik rachna...
आदरणीया संगीता जी नमस्ते बहुत ही सुंदर कविता विषय भी माकूल |बहुत ही भावपूर्ण और सोचने को विवश करती कविता बधाई और शुभकामनाएं |
झुर्रियों पर कविता पहली बार पढ़ी.बड़ा नया विषय चुना है आपने और लिखा भी अच्छा है.
झुर्रियों में इतिहास छुपा होता है और झुर्रियों की भाषा पढ़ी नहीं जाती ...विचारणीय, बहुत सुंदर कविता
सही कहा आपने कि हर इतिहास अलग कहानी बयान करता है ! वसे जब हम जानते है कि पूरी वर्णमाला एक दिन खुद के चेहरे पर ही उभर आयेगी, तो दूसरे के चेहरे पर छपी पढ़कर वर्तनी खराब करने से फायदा :)
मैंने पढ़ा है अपनी नानी को पढ़ा है अपनी दादी को पढ़ा है अपने पापा को अपनी माँ को ....... कभी होंगी ये लकीरें मेरे बच्चों के लिए
बहुत मार्मिक रचना है .कभी-कभी किसी हँसते हुए पोपले मुख पर यह रेखा-जाल मुग्घ भी कर देता है !
मद में तने लोगों को झुर्रियाँ कहाँ सुहाती हैं?
kya kehna aapke
आदरणीय संगीता स्वरुप जी
नमस्कार !
अत्यंत सार्थक अभिव्यक्ति बहुत मार्मिक रचना
समंदर की लहरें
जिनकी गिनती
नहीं की जा सकती
वैसे ही
झुर्रियों की भाषा
पढ़ी नहीं जाती ...
...vqkt kee kaisi-kaisi maar padi batiti hain jhuriya...
bahut badiya samvedanpurn rachna ke liye aabhar
बिलकुल सही कहा है
सुंदर सार्थक रचना है !
संगीता दी!
झुर्रियों की भाषा जब पढ़ने की उम्र होती है तो कोइ नहीं पढता.. और जब पढ़ने का समय आता है तो खुद के चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ जाती हैं और दुहाईदे रहे होते हैं कि झुर्रियों की भाषा कोइ नहीं पढता..
बहुत ही कोमल अभिव्यक्ति!!
बहुत ही गम्भीर बात कह दी आपने अपने इस सुंदर से रचना के माध्यम से..जीवन के सच का यथार्थपूर्ण चित्रण।
ये तो अनुभव की पहचान है...मै बाल डाई नहीं करता...ग्राफ्टिंग करके नए बाल उगाना भी पसंद नहीं...इतनी मुश्किल से तो बुजुर्गियत पाई है...जो मुझे बच्चों से अलग करती है...झुर्रियां बिन बोले भी बहुत कुछ कह जातीं हैं...
यह झुरिया नही एक पुरी जिन्दगी की किताब के पन्ने हे...
बहुत सुन्दर प्रस्तुति.धन्यवाद
झुर्रियों की भाषा
पढ़ी नहीं जाती ...
bahot mushkil hai ise padhna.....
झुर्रियों मे वक्त के हस्ताक्षर होते हैं इन्हें अल्प समय के लिये छुपाया तो जा सकता है पर मिटाया नहीं जा सकता
बेहद खूबसूरत रचना
हर झुर्री में जैसे
एक तहरीर
लिखी है ,
ज़िंदगी का इतिहास
इन लकीरों में
दिखता है
गहन अभिव्यक्ति..... प्रभावित करती रचना है संगीताजी ..... इसी इतिहास में ऐसे अनुभव छुपे होते हैं जो जीवन संवार सकते हैं....
dadiiiiiiiiiiii.................so long, missed uuuuuuuu :)
as always, bohot acchi nazm hai....par anti wrinkle creams wale padhenge to tension mein aa jayenge ....hihihiihi
बेहद सुन्दर रचना मैडम....सच हमारे लिए काफी कुछ सीख अभी बांकी है...औऱ आप हमारा मार्गदर्शन यू ही हमेशा करती रहें....धन्यवाद
ज़िंदगी का इतिहास इन लकीरों में दिखता है.
आपने तो झुर्रियों के माध्यम से ही 'संगीत' रच डाला है संगीता जी.इतिहास को बिन पढ़े ही कैसे 'झुर्रियों का 'स्वरुप' समझ में आयेगा और आपका यह सुन्दर 'गीत' बस फिर गीत बनकर ही रह जायेगा.
बहुत बहुत आभार शानदार प्रस्तुति के लिए.अब हर झुर्री का इतिहास पढ़ने और समझने की कोशिश करेंगें.
khoob
जैसे
समंदर की लहरें
जिनकी गिनती
नहीं की जा सकती
वैसे ही
झुर्रियों की भाषा
पढ़ी नहीं जाती ...
बिल्कुल सच कहा है हर एक पंक्ति में ।
हर झुर्री में जैसे
एक तहरीर
लिखी है ,
ज़िंदगी का इतिहास
इन लकीरों में
दिखता है ...
हकीकत को आपने बहुत ही सुन्दरता से बयान किया है! आख़िर सभी को एक न एक दिन इसी दौड़ से गुज़रना होगा! आज हम कम उम्र के हैं पर जब उम्र बढ़ेगी तब झुर्रियां तो आएगी ! सुन्दर अभिव्यक्ति के साथ ज़बरदस्त रचना लिखा है आपने!
sangita ji yah to jeevan ki schchai hae
हर एक का होता है
एक अलग इतिहास
एक एक लकीर में
समाई होती हैं
जैसे
समंदर की लहरें
जिनकी गिनती
नहीं की जा सकती
वैसे ही
झुर्रियों की भाषा
पढ़ी नहीं जाती ...
ufffffffffffff
kitnaaa kuch smete he ye rchna apne aap me........
Di..bahut hi sunder aur gehan bhaaw liye
hmmmmmm
aapka comment pr ke abhut khushi hui............aapne itnee prem se puchaa ....kaahan thi itne din...........ek dam se aisa lgaa....in Internet ki bheedbhaad me ..bhi aap ne...meri kmi dekhi......bahutttttt khushi hui sach me......iske liye bahut bahut sukriya
hmmm..
haan..zraa apne kaamon me kuch jydaa hi vaysat hun aajkal
hmeshaa
aisee hi sneh bnaaye rkhiyegaa..plezzzzzzzz
take care
katu satya ..
पर इतिहास जैसा विषय
कम ही लोग
पसंद करते हैं पढ़ना
इसीलिए
गलतियों से
सबक सीख नहीं पाते
'जिंदगी का इतिहास
इन लकीरों में
दिखता है '
............भावानुभूति की अति सुन्दर अभिव्यक्ति
.................प्रणम्य हैं आप और आप की लेखनी
................हमें आप का मार्गदर्शन और आशीर्वाद सौ वर्षों तक मिलता रहे , इश्वर से यही प्रार्थना है |
दर्द का गहन चित्रण|धन्यवाद|
जिन्दगी की हकीकत बयाँ करती हुई सुन्दर प्रस्तुति.
जैसा की मैं होता हूँ, बहुत विलंबित, आज भी हूँ।
संभवत ये एक ऐसी लिपि है जिसे लिखते सब हैं, और पढ़ते लिखने के बाद हैं।
एक अलग प्रकार का दर्शन, अनुभव देती कविता।
प्रणाम
सच कहा....
मर्म को छूती,बहुत ही सुन्दर रचना...
sach kaha jhurriyon ki bhasha koi kahan jan pata hai .
kash koi padh sakta
bahut sunder soch
rachana
"जैसे
समंदर की लहरें
जिनकी गिनती
नहीं की जा सकती
वैसे ही
झुर्रियों की भाषा
पढ़ी नहीं जाती ..."
बहुत गहरी और दर्दीली रचना है संगीता जी ।
हर झुर्री एक एक अनुभव बयान करती है
यदि कोई पढ सके तो इनकी भाषा ।
आपने पढी, समझी और इतनी
संवेदनशीलता से अभिव्यक्त की ।
आभार ।
समय अपने निशान छोड़ जाता है
Let's accept the age gracefully.
जैसे
समंदर की लहरें
जिनकी गिनती
नहीं की जा सकती
वैसे ही
झुर्रियों की भाषा
पढ़ी नहीं जाती ...
कविता की तारीफ जितनी की जाए कम है.
मर्मस्पर्शी एवं भावपूर्ण काव्यपंक्तियों के लिए कोटिश: बधाई !
अपने अनुभव से ही लिखना चाहते हैं नयी इबारत सच तो यह है कि हर एक का होता है एक अलग इतिहास एक एक लकीर में समाई होती हैं जैसे समंदर की लहरें जिनकी गिनती नहीं की जा सकती वैसे ही झुर्रियों की भाषा पढ़ी नहीं जाती ...bahut hi saarthak rachanaa.jindagi ka saar liye anoothi rachanaa.bahut badhaai aapko.
please visit my blog and leave the comments also.aabhaar.
झुर्रियों को जब शब्द मिल जाता है तो इतिहास में दर्ज हो जाता है..बहुत सुंदर अभिव्यक्ति
जैसे समंदर की लहरें
जिनकी गिनती नहीं की जा सकती
वैसे ही झुर्रियों की भाषा पढ़ी नहीं जाती ...
अंतस को झकझोरती हुई बेहतरीन रचना.
आपको मेरी शुभकामनायें !
समंदर की लहरें
जिनकी गिनती
नहीं की जा सकती
वैसे ही
झुर्रियों की भाषा
पढ़ी नहीं जाती ...
....बहुत खूब!
देवेंद्र गौतम
समंदर की लहरें
जिनकी गिनती
नहीं की जा सकती
वैसे ही
झुर्रियों की भाषा
पढ़ी नहीं जाती ...
....बहुत खूब!
देवेंद्र गौतम
समंदर की लहरें
जिनकी गिनती
नहीं की जा सकती
वैसे ही
झुर्रियों की भाषा
पढ़ी नहीं जाती ...बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति
जैसे
समंदर की लहरें
जिनकी गिनती
नहीं की जा सकती
वैसे ही
झुर्रियों की भाषा
पढ़ी नहीं जाती ...
bahut hi badhiya bishya hai vicharniye
waah! mumma ye wali creation bahut pasand aayi.......ekdum aapke touch mein hai....bahut bahut badhaayi mumma......
:)
ab main to mahaa late hoon..:(:(
kya boloon...aap daant lijiyega bass...main roungi bhi nahin..:(:(
सुन्दर रचना
ज़िंदगी का सारांश हैं ये झुर्रियां.
जैसे
समंदर की लहरें
जिनकी गिनती
नहीं की जा सकती
वैसे ही
झुर्रियों की भाषा
पढ़ी नहीं जाती ...
बहुत सही कहा आपने झुर्रियों की भाषा अनुभूत करने की वास्तु है....बहुत ही संवेदनशील रचना....सादर...
समंदर की लहरें
जिनकी गिनती
नहीं की जा सकती
वैसे ही
झुर्रियों की भाषा
पढ़ी नहीं जाती
सही कह रही हैं झुर्रियों का इतिहास और भाषा कौन पढना और समझना चाहता है…
बेहद प्रभावशाली एवं संवेदनात्मक प्रस्तुति, बधाई
विश्वविद्यालय की भांति ही एक ब्रम्हांडीय विद्यालय में प्रवेश नि:शुल्क है.आवश्यक अर्हताओं में विद्यार्थी के चेहरे पर झुर्रियों की डिग्रियों का होना अनिवार्य है.एक मात्र प्राध्यापक हैं-मिस्टर अनुभव. चयनित विद्यार्थी प्राध्यापक को पढ़ाएंगे.पाठ्यक्रम की अवधि-शेष उम्र तक. विद्यालय परिसर में गैर झुर्रीदार चेहरों का प्रवेश प्रतिबंधित.छात्रावास तथा भोजन नि:शुल्क.काश ऐसा भी विद्यालय होता.आपकी कविता ने अभिनव विचारों का संचार कर दिया है.शुभ-कामनाएं.
इन झुर्रियों के नीचे जो सकूँ होता है वो विर्लों को ही मिलता है .... भूत भाव पूर्ण रचना है ...
मेरी नई पोस्ट आपका इंतजार कर रही है.
'सरयू' स्नान का न्यौता है आपको.
वाकई हर लकीर में समाई होती है समय की एक दास्तान....
जिसे अक्सर लोग जानना नहीं चाहते !
सुंदर रचना !
झुर्रियों की भाषा समझ भी आती है और पढ़ी भी जाती है लेकिन दूसरे के अनुभव से कोई सीखना नहीं चाहता। सभी को लगता है कि मेरे साथ ऐसा नहीं होगा। इतिहास और भविष्य दोनों से ही आँखे मूंदकर रहता है इंसान।
मुझसे यह नायाब पोस्ट पता नहीं कैसे छूट गयी थी इसलिए अन्त में आयी हूँ। टिप्पणी करने से पूर्व दूसरों की टिप्पणी भी नहीं पढ़ पा रही हूँ क्योंकि इतनी सारी पढना बस का नही लग रहा है। सभी क्षमा करेंगे। मेरा मानना है कि पोस्ट से भी अधिक टिप्पणियों के विचारों में दम होता है इसलिए उन्हें जरूर पढना चाहिए।
झुर्रियों की भाषा पढता कौन है ,समझता कौन है ,ठहरताभी कौन है झुर्रियों के पास फिर भी झुर्रियों से बचता भी कौन है सीख ग्रहण करता भी कौन हैं .गिर के संभल जाए फिर भी ठीक गिर गिर के भी नहीं संभलता है आदमी .
Ham Jab Honge Saath Saal Ke, Aur Tum Hogi Pachapan Ki
Bolo Preet Nibhaogi Na, Tab Bhi Apne Bachapan Ki
एक सशक्त अनुभूति,सुन्दर प्रयास,
मानस पटल पर प्रभाव छोड़ने वाली रचना.
आनन्द विश्वास,
अहमदाबाद.
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