याज्ञसेनी
>> Friday, May 27, 2011
याज्ञसेनी !
कई बार मन करता है कि
तुमसे कुछ अन्तरंग बात करूँ
कुछ प्रश्न पूछूं
और आश्वस्त हो जाऊं
अपनी सोच पर
द्रुपद द्वारा किये गए यज्ञ से
हुआ था जन्म तुम्हारा
और रंग था तुम्हारा काला
फिर भी कहलायीं अनुपम सुंदरी
सच ही होगा
क्यों कि
मैंने भी सुना है ब्लैक ब्यूटी की
बात ही कुछ और है .
अच्छा बताओ
जब जीत कर लाये थे
धनञ्जय तुम्हें स्वयंवर से
तो कुंती के आदेश पर
तुम बंट गयीं थीं
पाँचों पांडवों में ,
जब कि तुम
कर सकतीं थीं विरोध
तुम्हारे तो सखा भी थे कृष्ण
जो उबार लेते थे
हर संकट से तुम्हें ,
या फिर माँ कुंती भी तो
अपने आदेश को
ले सकतीं थीं वापस ,
या फिर उन्होंने पढ़ ली थी
पुत्रों की आँखों में
तुम्हारे प्रति मोह की भाषा
और भाईयों को
एक जुट रखने के लिए
लगा गयीं थीं चुप ,
या फिर
तुमने भी हर पांडव में
देख लिए थे
अलग अलग गुण
जिनको तुमने चाहा था कि
सारे गुण तुम्हारे पति में हों ,
कैसे कर पायीं तुम
हर पति के साथ न्याय ?
क्या कभी
एक के साथ रहते हुए
ख्याल नहीं आया दूसरे का ?
यदि आया तो फिर कैसे
मन वचन से तुम रहीं पतिव्रता ?
युधिष्ठिर जानते थे
तुम्हारे मन की बात
शायद इसी लिए
वानप्रस्थ जाते हुए जब
सबसे पहले त्यागा
तुमने इहलोक
तो बोले थे धर्मराज -
सब भाइयों से परे
अर्जुन के प्रति आसक्ति ही
कारण है सबसे पहले
तुम्हारे अंत का .
हांलाकि मिला था तुमको
चिर कुमारी रहने का वरदान
फिर भी पल पल
बंटती रहीं तुम टुकड़ों में
कैसे सहा ये बंटने का दर्द ?
हे कृष्णा !
भले ही तुमने
बिता दिया सारा जीवन
पांडवों के साथ
कष्टों को भोगते हुए
पर आज भी लोंग
जब तुम्हारा नाम लेते हैं
तो बस यही याद आता है
कि - तुम ही हो वह
जो बनी कारण
महाभारत का .
सुना है आज भी
कुरुक्षेत्र की मिट्टी
लहू के रंग से लाल है |
105 comments:
अरे कमाल का लिखा है आज तो……………मेरे पास तो शब्द कम पड गये है तारीफ़ के लिये…………अद्भुत्।
बंटती रहीं तुम टुकड़ों में
कैसे सहा ये बंटने का दर्द ?
बहुत सुन्दर मनो भाव से द्रोपदी के दर्द को सराहा…….
बेहतरीन तरीके से एक सशक्त नारी के मनोदशा का चित्रण किया है..लाजवाब......गहन अनुभूति.....
wakai lazwaab hai...aay to blog jagat men ek se ek post aa raghi hain....
द्रौपदी के चरित्र और भूमिका को लेकर हर नारी के मन में उठते सवालों को आपकी रचना में अभिव्यक्ति मिल गयी है ! सभी के मन में जिज्ञासा है द्रौपदी ने इस तरह से बँट कर कैसे हर पति के साथ न्याय किया होगा और स्वयं कैसे इस यातना को झेला होगा ! पौराणिक चरित्र के माध्यम से बड़े ही सामयिक एवं प्रासंगिक प्रश्नों को उठाया है आपने ! आपको ढेर सारा साधुवाद !
द्रौपदी के जीवन और चरित्र का गहन विश्लेषण .....
नयी सोच और नए ढंग से नारी की विषम व्यथा का चित्रण ....
सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलुओं पर सार्थक विमर्श..... .......अति सुन्दर
क्या सीता..क्या उर्मिला( लक्ष्मण की पत्नी) ....क्या द्रौपदी...और क्या मंडोदरी!...स्त्रियों के साथ सदियों से अन्याय ही होता आया है!...कुंती और गांधारी भी ता उम्र दःख ही सहती रही!...बहुत सुंदर आलेख, धन्यवाद!
बंटती रहीं तुम टुकड़ों में
कैसे सहा ये बंटने का दर्द ?
गहन अनुभूति अति सुन्दर
सृष्टि के सफल संचालन के लिए त्याग की आवश्यकता होती है। यह त्याग महिला के कारण ही सम्भव है क्योंकि पुरुष तो भोगवादी होता है और हमेशा सत्ता को अपने पास रखना चाहता है। इसलिए हर युग में चाहे द्रोपदी हो या सीता, सभी को त्याग करना पड़ेगा। वर्तमान युग में भी महिलाओं के त्याग से ही परिवार संचालित है। इसलिए उस युग के अनुरूप द्रोपदी ने अपना धर्म निभाया। अच्छा प्रश्न किया है, बधाई।
पुरुषवादी समाज में ऐसे ही कहा जायेगा ... पर यह गलत है ... द्रौपदी कुरुक्षेत्र का कारण हरगिज़ नहीं थी ...
लाधी तो होती है मानव मन के अंदर व्याप्त लोभ, इर्ष्या, द्वेष के कारण ...
बहुत सुन्दर कविता !
Aapne to aaj nishabd kar diya! Draupadee kee manowastha shayad koyee ati samvedansheel naaree hee jaan saktee hai!
:) आज तो बस कमाssssssssल ही कर दिया.
सशक्त प्रश्न और इतनी सहजता से काव्यबद्ध कर दिए आपने.कितनो के ही दिल में यह प्रश्न उठते रहे होंगे.
आज द्रौपदी भी कहीं बहुत सुकून से होगी कि उसके दर्द को भी शब्द दिए किसी ने.
वाह! संगीता जी बहुत खूब लिखा है आपने! बेहतरीन तरीके से एक सशक्त नारी के मनोदशा का चित्रण किया है!
........आपकी लेखनी को सलाम!
द्रौपदी उवाच -
महाभारत की भूमि का प्रारब्ध मुझे बनाया था कृष्ण ने , उसने सखा हो चयन किया , मैंने सखा होने का साथ निभाया . यूँ भी नारी बंटती आई है तो प्रयोजन निमित्त बंटना तो सत्य को उजागर करना है . 5 पांडव नहीं थे पांडू पुत्र ... क्रमशः इन्द्र धर्मराज पवन और अश्विनी पुत्र थे और मुझे कृष्ण ने यह उत्तरदायित्व दिया कि मैं काल का आधार बनूँ
bahut sunder likha hai .
badhai
कितने लोग हैं जिन्हें कभी फ़ुर्सत भी रही होगी इस प्रकार के मानसिक द्वंद के बारे में सोचने की भी. सुंदर.
आपकी उम्दा प्रस्तुति कल शनिवार (28.05.2011) को "चर्चा मंच" पर प्रस्तुत की गयी है।आप आये और आकर अपने विचारों से हमे अवगत कराये......"ॐ साई राम" at http://charchamanch.blogspot.com/
चर्चाकार:Er. सत्यम शिवम (शनिवासरीय चर्चा)
संगीता जी,
आपकी कुछेक बेहतरीन रचनाओं में से यह एक है।
• बिल्कुल नए सोच और नए सवालों के साथ समाज की मौजूदा जटिलताओं को उजागर किया है ।
कविता अभिधेयात्मक एवं व्यंजनात्मक शक्तियों को लिए हुए है।
हांलाकि मिला था तुमको
चिर कुमारी रहने का वरदान
फिर भी पल पल
बंटती रहीं तुम टुकड़ों में
कैसे सहा ये बंटने का दर्द ?
बहुत ही मार्मिक प्रस्तुति..द्रोपदी के दर्द को बहुत गहराई से उकेरा है...निशब्द कर दिया आपकी अभिव्यक्ति ने...आभार
प्रत्यक्ष होती रचना!!
नियति ही थी जो सब-कुछ उसी वियति के अनुकूल होता चला गया!!
बहुत सुंदर ढंग से आप ने द्रोपती के दर्द को दर्शाया, धन्यवाद
ये प्रश्न बिलकुल इसी तरह मेरे मन को भी वर्षों मथते रहे और इसका उत्तर पाने को मैंने हर संभव प्रयास किया...और फिर इसने मन को थोड़ी शांति दी कि -
हम अपने आज के इस परिपेश्य में इस बात को देखते हैं इसलिए हमें यह इतना अटपटा लगता है...लेकिन उन दिनों मात्रिसत्तात्मक समाज में बहुपतित्व कई समाजों में एक सामान्य प्रथा थी..अब जब कुछ सामान्य सा हो तो बहुत बड़ा इश्यु नहीं होता किसी के लिए..
दूसरी बात, महाभारत का युद्ध बहुत बहुत आवश्यक था..
सोचिये कि जिस समाज में स्त्री को स्वेच्छा से विवाह तथा संतान प्राप्त करने का अधिकार था,उस समाज में सबसे बड़े साम्राज्य की कुलवधू को भरी सभा में यदि नग्न करने का प्रयास किया जा सकता हो तो शक्ति जिनके हाथों होगी वे कितने भ्रष्ट निरंकुश और स्वेच्छा चारी होंगे..राजपुत्रों को यदि वन वन भटकना पड़ा तो सामान्य जनों की उस साम्राज्य में क्या स्थिति रही होगी...ऐसे साम्राज्य का यदि नाश ना होता तो सभ्यता कहाँ पहुँचती ??
हाँ यह निश्चित है कि पांच पांडवों की यदि एक पत्नी ना होती तो ये पांच इस तरह एक ना बने रहते और एक बने बिना सौ के समूह का नाश कभी ना हो पाता...
निःसंदेह सती स्त्रियों का अपमान युगों में हुआ है..पर हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि सभी बड़े युद्ध भी इसीकारण हुए हैं..
"हे कृष्णा !
भले ही तुमने
बिता दिया सारा जीवन
पांडवों के साथ
कष्टों को भोगते हुए
पर आज भी लोंग
जब तुम्हारा नाम लेते हैं
तो बस यही याद आता है
कि - तुम ही हो वह
जो बनी कारण
महाभारत का "
संगीता जी,लाजवाब रचना है.बहुत समय बाद ऐसी सारगर्भित कविता देखने को मिली है. कुछ तो लोग कहेंगे,लोगों का काम है कहना.जितने भी प्रश्नों को स्त्री जीवन और मृत्यु के बीच जन्म देती है,उसके लिए उत्तरदायी तो वस्तुतः समाज होता है लेकिन ईश्वर की तरह वह उसके लिए दूसरे के कंधे का प्रयोग करता है.एक तरफ तो उसे अबला कहा जाता है दूसरी तरफ उसे सृजन और विनाश का कारण ,न जाने क्यों?
पांडवों के साथ
कष्टों को भोगते हुए
पर आज भी लोंग
जब तुम्हारा नाम लेते हैं
तो बस यही याद आता है
कि - तुम ही हो वह
जो बनी कारण
महाभारत का . adhbhut rachanaa.dil ko choo gai dropdi ke man ki byatha aaj tak ujagar nahi ho paai.badhaai aapko.
please visit my blog and leave a comments also.aabhaar
वाह ! संगीता कितनी गहन बात तुमने सहज शब्दों में कहकर पांचाली से कितने सारे प्रश्न पूछ डाले , अपने मन के और औरों के मन के भी भावों को आधार बनाते हुए उसके लिए एक नया प्रश्न चिह्न खड़ा कर दिया? कैसे वह उत्तर दे और उसके मन के उहापोह को भी जी डाला.
इसके लिए कुछ करने के लिए शब्द ही नहीं है.
बेहतरीन रचना....
‘कैसे कर पायीं तुम
हर पति के साथ न्याय ?’
एक दंतकथा तो यह भी बताती है कि वह कर्ण पर भी आसक्त थी!!!
सुंदर रचना के लिए बधाई॥
बहुत खूब संगीता जी, द्रोपदी के बारे में इस तरह का शायद पहला चिंतन देखने को मिला है.
अत्यंत कठिन प्रश्न पटल पर रख दिए हैं दी आपने.... अनुत्तरित रहना ही जिनकी नियति है.... एक प्रश्न यह भी... “क्या महाभारत का कारण सचमुच याज्ञसेनी ही थी?”
द्रौपदी के जीवन और चरित्र को लेकर न जाने कितने प्रश्न उठे...विश्लेषण किये गये हैं...उसी कड़ी में एक यह रचना..बहुत बढ़िया.
कुछ प्रश्न पुछु
और आश्वस्त हो जाऊं
अपनी सोच पर !
यही तो परेशानी है इतिहास हमेशा
किसी प्रश्न का सीधा जवाब नहीं दे सकता !
आश्वस्त होना जरा मुश्किल है ........
संगीता दी!
आज आपके गांधारी से पूछे गए प्रश्न मन में कौंध गए.. और एक पुरानी कहावत भी कि साझे की जोरू भली,मगर खेती नहीं... शायद पांडवों की धुरी थी पांचाली..याज्ञसेनी!!
कविता चिंतन पर विवश करती है!!
di
bahut hi sundar bahut hi gahrai se drpad suta ke antarman me jhak kar mano apne swyam hi us dard ko anubhav karke likh hai .tariif ke shabd hi nihshabd ho gaye hain.
di,main do teen baar aakar vapas chali gai shad idhar net ki gadbadi ke karan kahin bhi cmments post nahi ho paa rahe the
aaj bhi yahi sochte hue baithi thi ki pata nahi blog khulega ya nahi .
bhagvan ka shukar hai varna aapki ye aur pichhli dono posto se vanchit rah jaati.
behtreen aur lajwab
sadar abhinandan
poonam
दीदी ये कृष्णा में क्या देख रहे हो आप...अद्भुत....लगता है दौड़ कर इन सारे पर्श्नों का उत्तर पालूं मैं भी ....पांचाली कि पीर छू गयी दीदी ....आपने तो सचमे कमाल किया है आज आँख नाम हो गयी...प्रणाम दीदी !
संगीता जी में पहले रश्मि जी के ब्लॉग पर गया ,याज्ञसेनी का लिंक मिला पढ़ा सोचा कभी पहले लिखी होगी आपने ये कविता, बेहद ख़ूबसूरती से समेटा द्रोपदी की गहन पीड़ा को , रश्मि जी ने आगे बढ़ा दिया उसे. दो बेमिसाल कवियत्रियो का एक विषय पर लिखना बेहद सुखद लगा पढ़कर भावविभोर हो गया . एक विचार उठा मन में , क्यों न आप से कहू कभी समय मिले तो चर्चामंच पर किसी एक विषय पर कविताओ को या तो खोजे या उन्हें आमंत्रित कर , श्रेष्ठ कवियों से लिखने को कहे , नया विषय होगा और सभी को आनंद आयेगा साहित्य सोच का बिभिन्न चिंतन, सोचियेगा, रश्मि जी से भी चर्चा कीजियेगा, एक बार फिर बधाई और अभिवादन सहित आपकी कविताओ के हमेशा इंतज़ार में
कमाल का लेखन है। बहुत ही अच्छी कविता।
ये सब तो मात्र मोहरे थे
यहाँ की चालों के .
इस महासमर की भूमिका
बहुत पहले से लिखी जाने लगी थी.
*
जब बुढ़ापे की सर्वनाशी वासना ,
यौवन का उजला भविष्य निगल गई.
स्वयंवरा कन्या को लूट का माल बना
निःसत्व रोगियों के हवाले कर दिया गया.
*
वंश न पांडु का, न कुरु का.
बीज बो गया धीवर-कन्या का पुत्र
भयभीत और वितृष्णामय परिवेश में ,
उन विकृत संतानो का इतिहास कितना चलता ?
जहाँ विवश नारी ,
पति का मुख देखे बिना
आँखों पर पट्टी बाँध
यंत्रवत् पैदा कर दे सौ पुत्र
*
धर्म और नीति की ओट ले
जो चालें चली गईं -
एक द्रौपदी ही नहीं ,
क्या-क्या दांव लगाते गए वे लोग ,
होना ही था महासमर !
सभी पाठकों का हृदय से आभार ... आपकी प्रतिक्रियाँ ही मेरा प्रेरणास्रोत हैं ...
@ रश्मि जी ,
आपकी रचना द्रौपदी उवाच ... ने मेरी रचना को नए आयाम दिए हैं .. आभार
@ प्रतिभा जी ,
प्रतिभा जी ,
आज आपकी इतनी गहन बात टिप्पणी के रूप में पा कर धन्य हुई ... आभार
@ चन्द्र मौलेश्वर प्रसाद जी ,
कर्ण के प्रति द्रौपदी आसक्त थीं या नहीं यह तो नहीं पता पर कर्ण ज़रूर आसक्त थे ...
पांडवों के विषय में एक सत्य यह है कि उस समय समस्त भारतवर्ष में पांडवों से किसी राजसी परिवार ने वैवाहिक संबंध नहीं जोड़ा क्योंकि कुंती ने भी पुत्र प्राप्ति के लिये चिकित्सा विज्ञान के सहारे कई श्रेष्ठ पुरुषों के अंश का सहारा लिया जिस बात की तत्कालीन समाज में स्वीकृति नहीं थी. पांडू महाशय रोग ग्रस्त थे इस कारण भी नियोग विधि गृहस्थ की विवशता मानी जा सकती है.. शास्त्र में इस संबंध में कई विधान मोजूद भी हैं. .... अब तक कुंती की सोच स्त्री के सन्दर्भ में केवल श्रेष्ठ संतान-प्राप्ति का साधन मात्र बनने की हो चुकी थी. इसलिये पुत्रों का विवाह न होता देख मात्र पुत्र प्राप्ति के लिये चिकित्सा-विज्ञान का सहारा लिया गया.... सभी पांडवों से एक-एक पुत्र प्राप्त हुआ न कि पुत्री ... उस समय विज्ञान इतना उन्नत था कि जैसी ज़रूरत जैसी चाह वैसी संतान...
एक तरफ था सामाजिक दबाव ...
दूसरी तरफ था राजकीय प्रतिबंध... वनवास की शर्तें, अज्ञातवास.
तीसरी तरफ था उनका आधुनिक सोच को लेकर जीना... जो उस समय के समाज में मान्य नहीं था. इसी कारण अर्जुन भीम के जितने भी विवाह हुए आदिवासी क्षेत्रों में या नाग और गंधर्व जातियों में... इस दृष्टि से भी विचार करना चाहिए. शेष फिर कभी... कुछ अधिक कह गया.
प्रतुल जी ,
बहुत अच्छा सुझाव दिया है ...अक्सर मन में ऐसे विषय उठते हैं ... कभी हो सका तो ज़रूर कुछ लिखूंगी ...
प्रोत्साहन के लिए आभार
kunti ka charitra to bahut hi vicharriya raha hai ,,,,,,,,,
sunder bhav
भाइयों में प्रोपर्टी को लेके झगडा ना हो जाए...इसका एक तरीका महाभारत के समय में ही ईज़ाद कर लिया गया था...द्रोपदी से किसने पूछा कि वो क्या चाहती थी...अब तक...आप से पहले...
विचारणीय प्रश्नों को ज़बान दे दी है आप ने
कैसे कर पायीं तुम हर पति के साथ न्याय ?
कम से कम इस प्रश्न का उत्तर आज के युग में तो ढूंढ पाना असंभव लगता है
बेहतरीन भावाभिव्यक्ति !!!!
द्रोपदी के चरित्र के रंग कितने सुंदर ढंग से शब्दों में ढाले आपने.....कितनी पीड़ा है .......
बहुत सुन्दर और मनभावन रचना!
गहन अनुभूतियों की सार्थक प्रस्तुति।
---------
हंसते रहो भाई, हंसाने वाला आ गया।
अब क्या दोगे प्यार की परिभाषा?
अद्भुत सुन्दर रचना! तारीफ़ करने के लिए शब्द कम पर गए! हर एक शब्द हर पंक्तियाँ लाजवाब है! प्रशंग्सनीय प्रस्तुती!
lajawab rachana.
अद्भुत , आपके यक्ष प्रश्न .पांचाली की पीड़ा को शब्द दे गए . बहुत कुछ लिखने की इच्छा थी लेकिन -- . शायद मेरे शब्द कम है इस के बारे में कुछ बोलने के लिए .
द्रौपदी और आम्प्रपाली , ये दोनी ही चरित्र मन को मथानी की तरह मथते रहते हैं ...इनकी खूबसूरती इनके लिए अभिशाप हो गयी , धर्मराज माने जाने वाले युधिष्ठिर ने भी धर्म का सहारा ले कर उसका जीवन अभिशप्त बनाया ...जहाँ सभी पांडवों कि द्रौपदी के अतिरिक्त भी रानियाँ थी , वही द्रौपदी से एकनिष्ठ प्रेम की अपेक्षा की गयी नियबद्ध समय के अन्तराल पर ...कदम कदम पर किस तरह अपना अपमान सहा होगा उसने , यह प्रश्न हमेशा परेशान करता है मुझे ..
लाजवाब रचना ...देर से पढ़ पाई !
या फिर
तुमने भी हर पांडव में
देख लिए थे
अलग अलग गुण
जिनको तुमने चाहा था कि
सारे गुण तुम्हारे पति में हों !
प्रातः काल में बारह सम्पूर्ण स्त्रियों के स्मरण की बात मैंने कहीं पढ़ी थी और उन बारह स्त्रियों में याज्ञसेनी भी आती हैं..साथ ही यह भी लिखा था कि वह सम्पूर्णता की चरम सीमा थी और उसके योग्य कोई वर ही नहीं था. सोलह गुण संपन्न कृष्ण भी उसके सखा मात्र बन सके..उस सम्पूर्ण और गज़ब की साहसी स्त्री के लिए स्वयं प्रकृति ने पांच वर चुने और एक घटनाक्रम बुन डाला. ये याद नहीं पड़ रहा कि कहाँ पढ़ा है पर यह निश्चित है कि बहुत बचपन में पढ़ा था यह प्रसंग..तभी स्मृति से उस किताब का नाम धूमिल हो रहा है.
अठारह दिनों के भीषण युद्ध की सबसे महत्त्वपूर्ण कड़ी - याज्ञसेनी ..अधर्म का नाश करवाने वाली सम्पूर्णा को प्रणाम !
..और स्त्री मन की गिरहें खोलने वाली संगीता माँ को प्रणाम !
हे कृष्णा !
भले ही तुमने
बिता दिया सारा जीवन
पांडवों के साथ
कष्टों को भोगते हुए
पर आज भी लोंग
जब तुम्हारा नाम लेते हैं
तो बस यही याद आता है
कि - तुम ही हो वह
जो बनी कारण
महाभारत का "
गहन विचारों के साथ अनुपम प्रस्तुति ।
ek bahtu hi gurh rachna, anuttarit sawalon ko apne me samete huye!
sundar ban padi hai aapki ya rachna, hamesha ki tarha!
itihaas to jeene ka aadhar bane huye hai ,draupdi ka charitr apne me chunauti bhara raha ,tabhi to log sikh le rahe hai ,ati sundar
naari tum kewal shradha ho vishwaas rajat jag tal me .....
द्रोपदी के मनोभावों का चित्रण शायद एक नये नजरिये से । इन्हें याज्ञसेनी भी कहा जाता था यह जानकारी आज पहली बार आपके ब्लाग से मिली । आभार सहित...
द्रौपदी के जीवन का बारीक विश्लेषण बखूबी देखने को मिलता है आपकी कविता में. एक अनबूझा प्रश्न भी है जवाब ढूंढता हुआ...अद्भुत चित्रण.
हांलाकि मिला था तुमको
चिर कुमारी रहने का वरदान
फिर भी पल पल
बंटती रहीं तुम टुकड़ों में
कैसे सहा ये बंटने का दर्द ?
द्रौपदी के जीवन की त्रासदी पर मन को छू लेने वाली इस सुन्दर कविता के लिए हार्दिक साधुवाद...
सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलुओं पर सार्थक विमर्श... सुन्दर
बाबुषा ...
पाँच गुण अलग अलग पतियों में द्रौपदी को क्यों मिले और क्यों उसके पाँच पति थे ...इसका विवरण कुछ इस प्रकार है --
When Krishna visits the family, he explains to Draupadi that her unique position as the wife of five brothers results from a certain incident in her previous birth, She was born as Nalayani (daughter of Nala and Dhamayanthi) She had in that lifetime prayed to Shiva to grant her a husband with five desired qualities. Shiva, pleased with her devotion, tells her that it is very difficult to get a husband with all five qualities that she desired. But she sticks to her ground and asks for the same. Then Lord Shiva grants her wish saying that she would get the same in her next birth with five husbands, she was shocked and asked lord shiva is it a boon or curse, shiva replied back saying "My child dont get worried you will regain you virginity each an every morning you take bath, till the end of your life you will live with virginity" Hence she gets married to five brothers each who represents a given quality: The just Yudhisthira for his wisdom of Dharma; The powerful Bhima for his strength that exceeded that of a thousand elephants combined; The valiant Arjuna for his courage and knowledge of the battlefield; the exceedingly handsome Nakula and Sahadeva, for their love that put even Kama, the God of Love, to shame. Over here Pandava's represents to Five Virtue's not as human beings
Thanks Ma ! :-)
Love !
द्रोपदी के अर्न्तद्वन्द्व की बेहतरीन व्याख्या।
कहते हैं जहाँ नारी का सम्मान नहीं , वहां सुख शांति का निवास नहीं । नारी के साथ हुए अन्याय के विरुद्ध युद्ध में श्रीकृष्ण का साथ होना अवश्यम्भावी था ।
द्रोपदी के पात्र के बारे में बहुत से सवाल ज़हन में उठते हैं जिनका ज़वाब आसान नहीं । कम से कम कलियुगी मनुष्य तो क्या समझेगा ।
बहुत सुन्दर रचना लिखी है ।
आज द्रोपदी पर यह तीसरी रचना पढ़ रहा हूँ । क्या कोई विशेष बात है ?
लाजवाब रचना........अद्भुत...
इन अनुत्तरित प्रश्नों के जवाब तो शायद द्रौपदी के पास भी न हो।
सशक्त और अर्थवान कविता के लिए आभार, संगीता जी।
हे कृष्णा !
भले ही तुमने
बिता दिया सारा जीवन
पांडवों के साथ
कष्टों को भोगते हुए
पर आज भी लोंग
जब तुम्हारा नाम लेते हैं
तो बस यही याद आता है
कि - तुम ही हो वह
जो बनी कारण
महाभारत का .
lekin unhone to mahabharat rokne ki puri koshish ki thi....shaanti doot bankar bhi gaye the.....fir logo ne unhe dosh kyu diya?????
waise rachna behtareen hai, lekin ye prashn hai mahaabharat likhne waalo se ki kya "mahabharat jo tha wahi likha gaya ya jeetne waalo ne apne hisaab se sampaadit karke likhwaaya??????"
C K Devendr ji ,
यहाँ पर कृष्णा -- कृष्ण भगवान नहीं हैं ...द्रौपदी का नाम भी कृष्णा था ..यह संबोधन द्रौपदी के लिए हैं ...
आभार
यग्य से निकली यग्य्सैनि का जीबन भी यग्य ही रहा जीवन भर ... कुछ प्रश्न उठाती लाजवाब रचना ...
द्वापरयुग की व्यवस्थाओं पर वर्तमान सन्दर्भ में सटीक प्रश्न .उत्कृष्ट रचना.
mai bahut goranvit ho jaati hoo jab bhee yah sochti hoo ke dropadi ne ek yudh ko janm diya kyoki ek naari kee asmita us yudh ki adhikarini thee. vah apmaan ek yudh ke rakt se hee dhul sakta tha. ek saarthak rachna. sabhaar.
हाँ !कुरुक्षेत्र की मिटटी का रेडिओ -धर्मिता द्वारा काल निर्धारण डॉ तिरखा *(दिल्ली विश्वविद्यालय )ने किया था .मिथ यही है कुरुक्षेत्र की मिटटी का रंग लाल है .बहुत सुन्दर लम्बी कविता पढवाने के लिए आपका आभार .
बहुत सुंदर रचना, लाजवाब,
- विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
अद्भुत ....
संगीता जी स्त्री मन के सारे सवाल पूछ डाले आपने द्रोपदी से ....
पर इन सवालों के पीछे गहन विवेचन है .....
सशक्त रचना ......
Mere Khayal se aapne draupdi ke man ke bhaav bahut gehraayi se hum tak pahuchaayen hain. kamaal ka likhti hain aap!
Ranjit
relaxwithhumour.blogspot.com
कैसे कर पायीं तुम
हर पति के साथ न्याय ?
क्या कभी
एक के साथ रहते हुए
ख्याल नहीं आया दूसरे का ?
यदि आया तो फिर कैसे
मन वचन से तुम रहीं पतिव्रता ?
सार्थक विमर्श... सुन्दर व्याख्या...
आपने अपनी कविता के माध्यम से कई सनातन प्रश्नों को न केवल उठाया है अपितु उनके उत्तर भी दे दिए हैं...साधुवाद...
वाह! सच कहने की हिम्मत सबमें नहीं होती
वाह! सच कहने की हिम्मत सबमें नहीं होती
कैसे कर पायीं तुम
हर पति के साथ न्याय ?
क्या कभी
एक के साथ रहते हुए
ख्याल नहीं आया दूसरे का ?
यदि आया तो फिर कैसे
मन वचन से तुम रहीं पतिव्रता ?
इस बेहतरीन अभिव्यक्ति के लिये ...आभार ।
द्रोपदी की मनोव्यथा को सुन्दर अभिव्यक्ति आप ने दी है...सुन्दर प्रस्तुति.
संगीता जी नमस्कार!
शायद यह मेरा परम सौभाग्य ही था कि मुझे आज आपका ब्लॉग पढ़ने का मौका मिला और पढ़ने के पश्चात महसूस हुआ कि अब तक मैं कितना दुर्भाग्यशाली था कि आज तक आपको पढ़ने से महरूम रहा.
अब बात हो जाये "याज्ञसेनी" की.
इस पर मैं सिर्फ यह कहना चाहूँगा कि नारी मन के विमर्श का इतना उत्तम तरीका शायद ही मेरी आँखों से होकर कभी गुज़रा हो. ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य के साथ कल्पना का समावेश कर कृति की जिस प्रकार प्रस्तुति हुई है वह अपने में बेजोड़ है. एक नारी द्वारा नारी मन, उसकी आकांक्षाओं का लघु माध्यम से जो वृहद् चित्र खींचा गया है उसने पाठक रूप में मुझे कई युगों की मानो यात्रा करा दी हो और अंत में आधुनिकता के मलमली बिस्तर पर लाकर लिटा दिया. साथ ही नारी द्वारा स्वानुभूत और अभिव्यक्त होने के कारण यह प्रसंग एकदम निर्दोष है और इसपर सहानुभूति का आरोप भी नहीं लगाया जा सकता.
"ब्लैक ब्यूटी" शब्द जिस तरह से प्रयोग किया है उससे काव्य का शिल्प और मजबूत ही हुआ है साथ ही यह बात सिद्ध हुई है कि भूमंडलिकरण के इस दौर में हमने कितनी सहजता से अंग्रेजी के शब्दों को आत्मसात कर लिया है....
वहीँ पंक्ति "आज भी कुरुक्षेत्र की मिट्टी लहू के रंग से लाल है" युद्ध की विद्रूप प्रवृति को उजागर कर देती है.युद्ध की विभीषिका उसका रौद्र रूप सब कुछ इतने कम शब्दों में, आह! कह कर वाह! कहने का जी करता है.
वैसे तो मैं इस योग्य नहीं हूँ की इतनी उत्तम कृति पर टिप्पणि करूँ लेकिन "याज्ञसेनी" को पढ़ कर मैं अपने को रोक न पाया और जो मन में आया वही लिख गया इसलिए यदि आपको लगे की टिप्पणि के दौरान मुझसे कुछ अनधिकार चेष्ठा हो गयी है तो अनुज समझ कर माफ़ कर दीजियेगा..आपकी अगली कृति के इंतज़ार में...
मनीष..
मनीष जी,
ब्लेक-ब्यूटी की जगह संगीता जी यदि श्याम-सौन्दर्य कहतीं तो बात स्पष्ट नहीं होती शायद. क्योंकि श्री-कृष्ण जी ने 'श्याम' नाम की सत्ता पर कब्जा जमाया हुआ है.
प्रतुल जी मैंने भी "ब्लैक ब्यूटी" को सकारात्मक परिप्रेक्ष्य में ही लिया है.
शायद मेरे शब्दों में मेरी बात को अभिव्यक्त करने की क्षमता नहीं है.इसके लिए क्षमा चाहता हूँ.
और अगर आपने यह मुझे समझाने के लिए लिखा है तो ज्ञानवर्धन के लिए शुक्रिया.
सुना है आज भी
कुरुक्षेत्र की मिट्टी
लहू के रंग से लाल है |
itna to kabhi socha hi nahi... kamal ki rachna!!!
क्या कभी
एक के साथ रहते हुए
ख्याल नहीं आया दूसरे का ?
मिथ कुछ सवाल छोड़ जाते हैं. बखूबी उन सवालों को उकेरा है आपने.
बेहतरीन रचना
दी , सवाल करते हुए भी ,द्रौपदी की पीड़ा को बहुत तीव्रता से महसूस करा गयीं .....पता नहीम क्यों ,पर मुझे महाभारत का कारण द्रौपदी कभी लग ही नहीं पायी ......सादर !
Beautifully written Sangeeta ji . Great questions !..Yet to get the answers.
गहन विश्लेषण है ये नारी मन का... बेहत खूबसूरत रचना .....
यज्ञसेनी से अन्तरंग बातें ,लगा कि साक्षात्कार लिया जा रहा है. लेखन में यह चमत्कार आप जैसी विदूषी ही कर सकती है.कविता मर्म को छू गयी.
सुन्दर रचना........
बहुत सुन्दर प्रयास...लाजवाब......
बढिया...बहुत सुंदर
आपकी उत्साहवर्धक टिप्पणी के लिए धन्यवाद!
बेहद गहरी और शशक्त रचना... मन को कहीं गहरे तक झकझोर गयी यह अद्भुत प्रस्तुति
wah...man ko jhakjhor kar rakh diya aaj to.....
bahut hi gahan vishleshan ...ek ek prashn janm deta hai kai prashnon ko . bahut sundar rachna...
Bahit saarey sawal uthati yah kavita wakai nari jeevan ka ek jeewant dastawej hai.Anad aagaya.
meri hardik shubh kamnaye.
dr.bhoopendra
mp
इस विषय पर पढ़ा अवश्य था मगर जिस खूबसूरती से आपने ब्यान की क्या बहुत खूब !!!द्रोपदी को लेकर अक्सर लोगों के मन यह प्रश्न जरूर उठते हैं जिनहाइन आप ने अपनी इस रचना में शामिल किया है । मगर शायद ही कोई इन प्रश्नो का उत्तर पा सका हो, कि कैसे उसने इस बटने के दर्द को सहा होगा शुभकामनायें आप कि हर पोस्ट का इंतज़ार रहेगा धन्यवाद...
आपकी रचना को पढ कर आज K.G. शंकर Pillayi जो मलयालम भाषा के साहित्यकार हैं, की लेखन कला की याद आ गई. उनकी विशेषता यही थी की वो ऐतिहासिक प्रसंगो में नवीन तथ्यो और घटनाओ के साथ जोड कर साहित्य की रचना करते थे. .ऐसे ऐतिहासिक तथ्य जब भी नये रूप में ढाले जाते है तो लेखक को बहुत ही सजगता से लेखन करना होता है....जो आपने बखूबी किया है. आप का ये साहित्य के लिए अमूल्य योगदान नयी पीढी के लिए धरोहर का काम करेगा....ऐसी उमीद है.
गहन विश्लेषण और चिंतन प्रस्तुत करती कविता।
सादर
खुद को बंटाना तुम्हारी मज़बूरी थी
मैं जानती हूँ सखी
" जीता तो तुम्हें अर्जुन ने ही था ..
और पति रूप में वरा भी तुमने अर्जुन को ही था "
ताउम्र .. प्रेम भी तो बस तुम उसी से करती रहीं
परन्तु उसके कहे की लाज जो रखनी थी तुमने
.......
ना माता का आदेश
ना ही पूर्व जन्म में पाया नीलकंठ से वर
कुछ भी ना माना था तुमने
बस अगर कुछ माना .. कुछ जाना
तो वो था पार्थ का तुमसे .. प्रथम अपने लिए कुछ मांगना
और उन्होंने माँगा भी क्या ?
तुमसे .. तुमको ..
हा रे !!!!!!
ये धरती क्यूँ ना फट गयी .. ?
ये आसमान क्यूँ ना गिर गया .. ?
.........
निश्चय ही तुम पतिव्रता थीं
तभी तो पति के कहे का पालन किया
सती थीं .. तभी तो वानप्रस्थ जाते वक़्त
सबसे पहले तुमने अपनी देह को त्यागा
गुंजन १०/१२/११
superb!! di lajabab rachna!
इस से सुन्दर लिख ही नहीं जा सकता ..अद्भुत रचना ..आभार
मार्मिक रचना
पौराणिक कथाओं में वर्णित घटनाओं पर कितनी कितनी जगह प्रश्न चिह्न बनते हैं, अंगुली उठती है पर कोई उत्तर नहीं मिलते।
मन की अथाह गहराई से उठते सक्षम प्रश्न ।
बहुत सुंदर सृजन।
हांलाकि मिला था तुमको
चिर कुमारी रहने का वरदान
फिर भी पल पल
बंटती रहीं तुम टुकड़ों में
कैसे सहा ये बंटने का दर्द ?
द्रोपदी के तन और मन की पीड़ा को बहुत ही सुन्दर शब्दों में पिरोया है आपने दी।हर स्त्री के मन में ये प्रश्न उठता है।
सराहना से परे है आप की ये रचना,सादर नमस्कार आपको 🙏
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