सूखी रेत पर अब कोई तहरीर लिखी नहीं जाती है
>> Saturday, June 4, 2011
मन की बात मन में ही दबी सी जाती है
बात लबों तक आकर भी निकाली नहीं जाती है
आज हो गया है , दिल मेरा पत्थर
अब तो फूलों की महक भी सही नहीं जाती है .
मझधार में कर रही हूँ मैं कोशिश तैरने की
पर लहरों से अब लड़ाई लड़ी नहीं जाती है .
दग्ध हो गया है मन तेरी तपिश भरी बातों से
फिर भी तेरी ये चुप्पी मुझसे सही नहीं जाती है
मौन को कुरेदा तो न जाने कितना गुबार उठेगा
आँखों में अपनी नमी भी अब झेली नहीं जाती है
सूख गया है समंदर भी जिसे कभी अश्कों ने भरा था
सूखी रेत पर अब कोई तहरीर लिखी नहीं जाती है
81 comments:
आज इतनी उदासी किसलिये? क्या हो गया है ? बेहद दर्दभरी गज़ल है दिल को छू गयी।
नमस्कार जी,
ये कविता बहुत पसंद आयी है,
फ़िर भी दग्ध का अर्थ नहीं समझ पाया हूं
सूख गया है समंदर भी जिसे कभी अश्कों ने भरा था
सूखी रेत पर अब कोई तहरीर लिखी नहीं जाती है
Kya gazab likha hai!
मौन को कुरेदा तो न जाने कितना गुबार उठेगा
आँखों में अपनी नमी भी अब झेली नहीं जाती है
kuch na kahun , mahsoos karun to chalega n sangeeta ji
दग्ध हो गया है मन तेरी तपिश भरी बातों से
फिर भी तेरी ये चुप्पी मुझसे सही नहीं जाती है
इन पंक्तियों से तो यही पता चलता है कि आपका मन दग्ध (पीड़ित) है किसी की बातों से, फिर भी उसकी चुप्पी आपको अच्छी नहीं लग रही। इस भाव भूमि पर लिखी गई इस रचना द्वारा मन की गहराई, उसका अन्तर्द्वन्द्व, उत्पीडन, मान-अपमान आदि का और भावुक मन की संवेदनशीलता की अभिव्यक्ति दी गई है
दग्ध हो गया है मन तेरी तपिश भरी बातों से
फिर भी तेरी ये चुप्पी मुझसे सही नहीं जाती है
dard bhare sher ...bahut sundar gazal
दग्ध हो गया है मन तेरी तपिश भरी बातों से
फिर भी तेरी ये चुप्पी मुझसे सही नहीं जाती है
दर्द भरी ग़ज़ल ....बहुत खूब
दग्ध हो गया है मन तेरी तपिश भरी बातोंसे
फिर भी तेरी ये चुप्पी मुझसे सही नहीं जाती है !
bahut sunder har pankti.......
उफ़...दी ! ..क्या कहूँ समझ नहीं पा रही हूँ.दर्द जैसे छलका पड़ रहा है शब्दों से.ऐसा ही लगता है कितनी बार पर उस एहसास को इतने सरल और सुन्दर ढंग से अभिव्यक्त करना हर एक की बस की बात कहाँ होती है.
बहुत ही दर्द भरी रचना है..
बेहतरीन अभिव्यक्ति।
दी ,
बेहद खूबसूरत ग़ज़ल ..... दर्द ने ही शब्दों का आवरण ओढ़ लिया है ...... सादर !
खूबसूरत ग़ज़ल...सूख गया है समंदर भी जिसे कभी अश्कों ने भरा था...सूखी रेत पर अब कोई तहरीर लिखी नहीं जाती है...
मौन को कुरेदा तो न जाने कितना गुबार उठेगा
आँखों में अपनी नमी भी अब झेली नहीं जाती है
....bhavnaon ke behtar abhivyakti ...bahut khoob
----devendra gautam
dard bhari gazal..............
दर्द में सनी बहुत ही मार्मिक गजल....सुंदर अभिव्यक्ति।
मौन को कुरेदा तो न जाने कितना गुबार उठेगा
आँखों में अपनी नमी भी अब झेली नहीं जाती
संगीता जी ,
शब्द-मर्म का चमत्कार लख ,कलम हुई है मौन.
इस कविता पर लिखे टिपण्णी ऐसा ज्ञानी कौन ?
ये भी ज़िन्दगी का एक रंग है, जिसे आपने प्रभावशाली शब्दों में बांधा है.
मझधार में कर रही हूँ मैं कोशिश तैरने की
पर लहरों से अब लड़ाई लड़ी नहीं जाती है
बेहद खूबसूरत शब्द नहीं शेर , आपकी लेखनी का बेसब्री से इंतज़ार रहता है, शब्दों से मन झंझावत से भर जाता है यही तो है कलम का जादू बधाई
बहुत मर्मस्पर्शी रचना है संगीता जी ! आपके दिल की टीस की अनुभूति अपने मन पर भी महसूस कर पा रही हूँ ! बहुत ही खूबसूरत भावभूमि पर लिखी गयी एक बहुत ही कोमल रचना ! बधाई स्वीकार करें !
बहुत ही मर्मस्पर्शी रचना ..
दर्द भरे भाव इतनी खूबसूरती से उकेरे हैं ...
मन जुड़ सा गया कविता के दर्द से ..!!
दग्ध हो गया है मन तेरी तपिश भरी बातों से
फिर भी तेरी ये चुप्पी मुझसे सही नहीं जाती है
मौन को कुरेदा तो न जाने कितना गुबार उठेगा
आँखों में अपनी नमी भी अब झेली नहीं जाती है
बहुत ही सुंदर .....प्रभावित करती बेहतरीन पंक्तियाँ ....
मौन को कुरेदा तो न जाने कितना गुबार उठेगा
आँखों में अपनी नमी भी अब झेली नहीं जाती है
सूख गया है समंदर भी जिसे कभी अश्कों ने भरा था
सूखी रेत पर अब कोई तहरीर लिखी नहीं जाती है
बहुत सुन्दर भावपूर्ण शेर...
पूरी ग़ज़ल मन को छू गई.
मौन को कुरेदा तो न जाने कितना गुबार उठेगा
आँखों में अपनी नमी भी अब झेली नहीं जाती है
सुन्दर अभिव्यक्ति् सुन्दर भाव…..….धन्यवाद
पानी पर लकीर खींची नहीं जाती है ॥
संगीता दी!
आपके एक्सप्रेशन का कायल हूँ मैं.. और इस कविता में भी भाव स्वतः फूट रहे हैं!!
सूखी रेत पर अब कोई तहरीर लिखी नहीं जाती है
लिखने वाले भला कब मानते हैं वे फिर भी लिख ही जाते हैं
दग्ध है मन फिर भी चुप्पी सही नहीं जाती है ...और जलना चाहता है
मौन को कुरेदा तो न जाने कितना गुबार उठेगा
आँखों में अपनी नमी भी अब झेली नहीं जाती है
सूख गया है समंदर भी जिसे कभी अश्कों ने भरा था
सूखी रेत पर अब कोई तहरीर लिखी नहीं जाती है ..
एक- एक पंक्ति जैसे दर्द के गुबार और अश्कों के समन्दर में डूब का लिखी ..इतना दर्द कहाँ से लाईन ...
मार्मिक अभिव्यक्ति पोर पोर को झिंझोड़ गयी जैसे ...
मानव जीवन में उपस्थित संवेदनाओं की संगीतात्मक प्रस्तुति संगीता जी - सुन्दर
सादर
श्यामल सुमन
+919955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
क्या बात है. भावों के अद्भुत उद्गार.
"क्यू छलक रहा दुःख मेरा, उषा की मृदु पलकों में
हाँ उलझ रहा सुख मेरा, निशा की घन अलकों में "
रचना से संप्रेषित भाव , मन के द्वन्द को उकेरते है .
गर्म हवा का झोंका ऐसा आया।
पल में ओझल हुई शीतल छाया॥
आज कुछ अलग ही रंग देखने मिला
आभार
मौन को कुरेदा तो न जाने कितना गुबार उठेगा
आँखों में अपनी नमी भी अब झेली नहीं जाती है
निराशा के क्षण भी जीवन के लिए सहायक होते हैं।
दुख के अंदर सुख की ज्योति, दुख ही सुख का ज्ञान।
ग़ज़ल हृदयस्पर्शी है।
can feel the pain hidden in this beautiful ghazal.
मझधार में कर रही हूँ मैं कोशिश तैरने की
पर लहरों से अब लड़ाई लड़ी नहीं जाती है .
dukh ka izhaar bhi itni sunderta se ki hai....maan gaye.
सूख गया है समंदर भी जिसे कभी अश्कों ने भरा था
सूखी रेत पर अब कोई तहरीर लिखी नहीं जाती है
वाह,संगीता जी ,
बस चुप रह गई हूँ मैं तो !
वाह एक और सुंदर रचना.
रचना बहुत सुंदर है...स्वागत!
वाह दी... सुन्दर....
“कुछ एहसास बदहवास से लिपट गये
कुछ दर्द ओढ़कर गज़ल में सिमट गये.”
सादर...
dard se ootprot gazal................
शब्द-शब्द संवेदनाओं से भरी मार्मिक रचना ....
कितना द्वन्द्व कितनी पीड़ा है इन पंक्तियों में..
एक तरफ सदियों से हुए शोषण के संकेत तो दूसरी ओर इसके सतत प्रभाव!!! जिसने न सिर्फ मौन की स्थिति पैदा कर दी है बल्कि एक घुटन को जन्म दिया है.यहाँ विरोध की बात तो दूर शब्द मुँह में ही कैद हो गए हैं. सांस चल रही है मन मृत है. मस्तिष्क में कुछ सिकुड़ता हुआ सा एहसास शायद दमन का!! एक अवसाद जिससे उबर पाना मुश्किल हो.ऐसे में क्या करें, किससे कहें और वह भी ऐसी बात जिसकी कोई सुनवाई न होने वाली हो......
समाज में नारी की स्थिति पर उत्तम विमर्श!!!!
इसके अलावा कविता में चित्रों का संयोजन भी उत्तम है. एक तरफ गुलाबी मादकता है तो दूसरी तरफ प्यासा,तरसता रेगिस्तान....ये तस्वीरें जाने-अनजाने नारी की, क्रमशः वाह्य और आतंरिक स्थिति की द्योतक बन गयी हैं....
'सूख गया है समंदर भी जिसे कभी अश्कों ने भरा था
सूखी रेत पर अब कोई तहरीर लिखी नहीं जाती है'
संगीता जी!
आप अपनी भावनाओं को व्यक्त करने में पूर्णतः सफल रहीं फिर भी मेरा कहना है कि-
'इतनी उदासी क्यों भला? और यह निराशा क्यों भला? जीना है जब ज़िन्दगी तो फिर न आशा कयों भला?'
अपका बहुत बहुत शुकीया आपने मुझे मेल दुआरा जो शुभकामनायेंभेजी तभी आज दोबारा लिखने के लिये सक्षम हो पाई हूँ आपकी रचना हमेशा की तरह लाजवाब है मगर उदासी के बाद खुशियाँ ही तो आयेंगी! शुभकामनायें।
मझधार में कर रही हूँ मैं कोशिश तैरने की
पर लहरों से अब लड़ाई लड़ी नहीं जाती है ...
कभी कभी मन की उदासी ऐसा लिखने को मजबूर करती है ... बहुत खूब ... दर्दभरी गज़ल ...
सरस ,प्रेरणादायक हिन्दी गजल गेय भी! कोई धुन भी बनी होगी ? काश हम सुन पाते ! ये गजल पढ़ कर हमने भी इसमें एक शेर जोड़ने की जुर्रत की है !
बात सच है,छुपाना ही इसे बेहतर है ,
क्यूंकि सच बात किसी से न सही जाती है
आपकी कवितायेँ पढ़ कर लगता है कि पढ़ते ही रहें .
संगीता जी,
आपके निश्छल स्नेह ने इस कवि दम्पति को (भावुक जोड़े को) अभिभूत कर दिया है.आभार कहें तो स्नेह का कहीं न कहीं अपमान होता है,कुछ न कहें तो शिष्टता लज्जित होती है.आप ही बताएं ,क्या करें ?
निगम दंपत्ति
बहुत बढ़िया, बेहद दर्दभरी गज़ल!
विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
सुंदर प्रस्तुति आदरणीया संगीता जी, बधाई स्वीकार करें
मझधार में कर रही हूँ मैं कोशिश तैरने की
पर लहरों से अब लड़ाई लड़ी नहीं जाती है .
दग्ध हो गया है मन तेरी तपिश भरी बातों से
फिर भी तेरी ये चुप्पी मुझसे सही नहीं जाती है..
वाह! अद्भुत सुन्दर रचना! कमाल की पंक्तियाँ! शानदार और ज़बरदस्त प्रस्तुती!
आज हो गया है , दिल मेरा पत्थर
अब तो फूलों की महक भी सही नहीं जाती है .
मझधार में कर रही हूँ मैं कोशिश तैरने की
पर लहरों से अब लड़ाई लड़ी नहीं जाती है .
बेहतरीन शब्द रचना ।
सूख गया है समंदर भी जिसे कभी अश्कों ने भरा था
सूखी रेत पर अब कोई तहरीर लिखी नहीं जाती है
इन पंक्तियों ने दिल को छू लिया. क्या लिखा है आपने.
संदीप जी -- दग्ध -- जो जल गया हो / जल रहा हो ...
उफ़ इतना दर्द... अच्छा है कलम के जरिये बाहर आ गया अच्छी प्रस्तुति
आभार
संगीता जी! आपने अभी तक मेरा ब्लॉग फॉलो नहीं किया और न ही मेरी रचनाओं पर आपकी कोई प्रतिक्रिया आ रही है आख़िर मुझमें क्या कमी दिखी? यदि सुधार सम्भव हो तो बताएं हम पूरा प्रयास करेंगे दूर करने का
बेहद खूबसूरत ग़ज़ल....संगीता जी!
बहुत ही दर्द भरी रचना है.....!
bahut badiya.....vastav me gazalnuma....sadhuwaad
मौन को कुरेदा तो न जाने कितना गुबार उठेगा
आँखों में अपनी नमी भी अब झेली नहीं जाती है
आ क्या बात कह गई हैं आप...........
मझधार में कर रही हूँ मैं कोशिश तैरने की
पर लहरों से अब लड़ाई लड़ी नहीं जाती है .
दग्ध हो गया है मन तेरी तपिश भरी बातों से
kya abhivkati hai!kitne sunder shabdo me aapne vo man:sthiti mukhar ki jise kisi karibi dwara dil todne par mahsoos karne-wala hi janta hai par siskiyo me dub jata hai bol nahi pata
फिर भी तेरी ये चुप्पी मुझसे सही नहीं जाती है
aur phir bhi ye pyar-bhara virodhabhas.ye to vo kamal hai jo har pyar karnewali patni ke bas ki hi baat hai
मौन को कुरेदा तो न जाने कितना गुबार उठेगा
kya aaapki virodhabhas alnkar me experty hai ?
आँखों में अपनी नमी भी अब झेली नहीं जाती है
kamal hai...!
सूख गया है समंदर भी जिसे कभी अश्कों ने भरा था
yahi vo line thi jisne mujhe barbas hi rok liya-laga ki vastav me samudra ashko se hi bane honge,isiliye itne vishal hai na kabhi sukhte hai
सूखी रेत पर अब कोई तहरीर लिखी नहीं जाती है
aapke jitna achchha to nahi par mere blog par visit karke dekhiye
Madhukantakablog
सूख गया है समंदर भी जिसे कभी अश्कों ने भरा था
सूखी रेत पर अब कोई तहरीर लिखी नहीं जाती है
lajavab kamal bemisal kya bat hai wah wah .
rachana
सूख गया है समंदर भी जिसे कभी अश्कों ने भरा था
सूखी रेत पर अब कोई तहरीर लिखी नहीं जाती है
bahut khoobsurat hai har sher .
सूखी रेत पर अब कोई तहरीर लिखी नहीं जाती है ...
कभी कभी मनस्थिति में ऐसी दारुण उदासीनता महसूस होती है ...
बेहद दर्दनाक है यह ....
शुभकामनायें आपको !
सूखी रेत पर अब कोई तहरीर लिखी नहीं जाती है ...
कभी कभी मनस्थिति में ऐसी दारुण उदासीनता महसूस होती है ...
बेहद दर्दनाक है यह ....
शुभकामनायें आपको !
इतनी उदासी किसलिये? आशा का संचार जरुरी है |
सूखी रेत पर अब कोई तहरीर लिखी नहीं जाती है---
.
मौन को कुरेदा तो न जाने कितना गुबार उठेगा
आँखों में अपनी नमी भी अब झेली नहीं जाती है ...
very appealing lines Sangeeta ji . I am short of words to praise this wonderful couplet.
Regards,
.
सूख गया है समंदर भी जिसे कभी अश्कों ने भरा था
सूखी रेत पर अब कोई तहरीर लिखी नहीं जाती है ...
बेहद मार्मिक गज़ल..हरेक शेर अपने में एक दर्द की दास्तां समेटे है..लाज़वाब..आभार
रेत पर भी अब लिखी तेहरीर नही जाती है, बहुत खूब।
मझधार में कर रही हूँ मैं कोशिश तैरने की
पर लहरों से अब लड़ाई लड़ी नहीं जाती है .
यदि संघर्ष जारी है तो जंग जीती ही जाएगी.
इन पंक्तियों ने छत्तीसगढ़ के कवि,गायक,गीतकार की पंक्तियों की याद दिला दी
बढ़ते क़दम हों तो उत्कर्ष जीवन
भटके कदम तब तो अपकर्ष जीवन
मिल जाये जो ध्येय तो हर्ष जीवन
विपदायें हों तो है संघर्ष जीवन.
nmaskar. aapaki kafi rachanaye padhi. bahut sundar samvedanshil rachnaye. achhi lagi. kabhi vakt mile to blog par aayen.
बहुत ही भाव भीनी कविता दिल से निकल कर दिल में प्रवेश करती हुई
Adarniya Sangeeta di,
bahut hi hridaysparshi panktiyan hain apki..khaskar yah pankti..
सूख गया है समंदर भी जिसे कभी अश्कों ने भरा था
सूखी रेत पर अब कोई तहरीर लिखी नहीं जाती है
hardik shubhkamnayen.
Poonam
काफ़ी अच्छाi लिखा है
http://navkislaya.blogspot.com/
बहुत भावपूर्ण रचना...
मौन को कुरेदा तो न जाने कितना गुबार उठेगा --मन को गहरे तक छू गई....बेहद मर्मस्पर्शी..
गहन भावों का समावेश हर पंक्ति में ।
मझधार में कर रही हूँ मैं कोशिश तैरने की
पर लहरों से अब लड़ाई लड़ी नहीं जाती है .
..दर्द भरी गज़ल का दर्द भरा शेर।
लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती।
beshak na likhi jaaye sukhi rait par tahreere...magar us par pade nishan apna itihaas bayaan karte hain....aur fir vahi chakr...ki itihas par hamara aaj khada hai aur aaj par hamara aane wala kal. To ant-teh fir vahi soch....fir vahi koshish shuru ho jati hai insaan ki jaisa ki uska swabhaav hota hai.
दग्ध हो गया है मन तेरी तपिश भरी बातों से
फिर भी तेरी ये चुप्पी मुझसे सही नहीं जाती है
wah! sach hai pyar ho to esa hi hota hai...
दग्ध हो गया है मन तेरी तपिश भरी बातों से
फिर भी तेरी ये चुप्पी मुझसे सही नहीं जाती है
दीदी , यही तो नारी के अन्तर्मन की व्यथा है कि हर विषमता के वावजूद उसमें झुकाव होता है, कोमलता होती है ।
सूखी रेत पर अब कोई तहरीर लिखी नहीं जाती है
बेशक
पर कोरे कागज पर दर्द की स्याही से लिखी मनोदशा ने दिल जरुर छू लिया ।
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