सूखी रेत पर अब कोई तहरीर लिखी नहीं जाती है
>> Saturday, June 4, 2011
मन की बात मन में ही दबी सी जाती है
बात लबों तक आकर भी निकाली नहीं जाती है
आज हो गया है , दिल मेरा पत्थर
अब तो फूलों की महक भी सही नहीं जाती है .
मझधार में कर रही हूँ मैं कोशिश तैरने की
पर लहरों से अब लड़ाई लड़ी नहीं जाती है .
दग्ध हो गया है मन तेरी तपिश भरी बातों से
फिर भी तेरी ये चुप्पी मुझसे सही नहीं जाती है
मौन को कुरेदा तो न जाने कितना गुबार उठेगा
आँखों में अपनी नमी भी अब झेली नहीं जाती है
सूख गया है समंदर भी जिसे कभी अश्कों ने भरा था
सूखी रेत पर अब कोई तहरीर लिखी नहीं जाती है