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प्रवृति

>> Saturday, January 21, 2012





आज यूँ ही 
छत पर डाल दिए थे 
कुछ बाजरे के दाने 
उन्हें देख 
बहुत से कबूतर 
आ गए थे खाने .
खत्म हो गए दाने 
तो टुकुर टुकुर 
लगे ताकने 
मैंने डाल दिए 
फिर ढेर से दाने 
कुछ दाने खा कर
बाकी छोड़ कर  
कबूतर उड़ गए 
अपने ठिकाने .

तब से ही  सोच रही हूँ 
इंसान और पक्षी की 
प्रवृति में,
अंतर परख रही हूँ 
परिंदे नहीं करते संग्रह 
और न ही उनको 
चाह होती है 
ज़रूरत से ज्यादा की 
और इंसान 
ज्यादा से ज्यादा 
पाने की चाहत में 
धन - धान्य एकत्रित
 करता रहता है 
वर्तमान में नहीं ,बल्कि 
भविष्य में जीता है ,
प्रकृति ने सबको 
भरपूर दिया है 
पर लालची इंसान 
केवल अपने लिए 
जिया है ,
इसी लालच ने 
समाज में 
विषमता ला दी है 
किसी को अमीरी, तो 
किसी को 
गरीबी दिला दी है .
काश 
विहगों से ही इंसान 
कुछ सीख पाता
तो 
धरती का सुख वैभव 
सबको मिल जाता .

कृष्ण की व्यथा

>> Thursday, January 5, 2012





नहीं कहा था मैंने 
कि 
गढ़ दो तुम 
मुझे मूर्तियों में 
नहीं चाहता था मैं 
पत्थर होना 
अलौकिक रहूँ 
यह भी नहीं रही 
चाहना मेरी ,


पर मानव 
तुम कितने 
छद्मवेशी हो 
एक ओर तो 
कर देते हो 
मंदिर में स्थापित 
और फिर 
लगाते हो आरोप 
और उठाते हो प्रश्न 
कि 
क्या सच ही 
"कृष्ण" भगवान था ? 

तुम राधा संग 
मेरे प्रेम को 
तोलते हो तराजू पर 
भूल जाते हो कि मैं 
स्थापित कर रहा था 
उस अलौकिक प्रेम को 
जो तन से नहीं 
मन से किया जाता है ,

महारास भी रचाया था 
यह जताने के लिए 
कि मन की आज़ादी ही 
कर सकती है 
आत्मविभोर 
पर तुमने तो 
कर दिया खड़ा मुझे 
कटघरे में  रसिया कह .

पांचाली मेरी सखा 
जिससे मैं 
मन की कहता था
उसके मन की 
गुनता था , 
नहीं खोल पाए 
तुम्हारे चक्षु 
और आज भी तुम 
पड़े हो  इस फेर में 
कि क्या विपरीत लिंगी 
हो सकते हैं 
सच्चे मित्र ?

मैंने तो जिया जीवन 
मात्र साधारण मानव का 
सारी ज़िंदगी 
दुखों के बोझ तले
व्यतीत हुआ हर पल 
श्राप को धारण कर 
कर लिया 
मृत्यु का वरण ,

लेकिन तुम 
आज भी मुझे 
पत्थर में गढते हो 
और अपने सुख की
कामना करते हो . 
अपने स्वार्थ हेतु 
मेरा बलिदान मत लो 
मैं कृष्ण हूँ 
मुझे कृष्ण ही 
रहने दो ..

हमारी वाणी

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