कृष्ण की व्यथा
>> Thursday, January 5, 2012
नहीं कहा था मैंने
कि
गढ़ दो तुम
मुझे मूर्तियों में
नहीं चाहता था मैं
पत्थर होना
अलौकिक रहूँ
यह भी नहीं रही
चाहना मेरी ,
पर मानव
तुम कितने
छद्मवेशी हो
एक ओर तो
कर देते हो
मंदिर में स्थापित
और फिर
लगाते हो आरोप
और उठाते हो प्रश्न
कि
क्या सच ही
"कृष्ण" भगवान था ?
तुम राधा संग
मेरे प्रेम को
तोलते हो तराजू पर
भूल जाते हो कि मैं
स्थापित कर रहा था
उस अलौकिक प्रेम को
जो तन से नहीं
मन से किया जाता है ,
महारास भी रचाया था
यह जताने के लिए
कि मन की आज़ादी ही
कर सकती है
आत्मविभोर
पर तुमने तो
कर दिया खड़ा मुझे
कटघरे में रसिया कह .
पांचाली मेरी सखा
जिससे मैं
मन की कहता था
उसके मन की
गुनता था ,
नहीं खोल पाए
तुम्हारे चक्षु
और आज भी तुम
पड़े हो इस फेर में
कि क्या विपरीत लिंगी
हो सकते हैं
सच्चे मित्र ?
मैंने तो जिया जीवन
मात्र साधारण मानव का
सारी ज़िंदगी
दुखों के बोझ तले
व्यतीत हुआ हर पल
श्राप को धारण कर
कर लिया
मृत्यु का वरण ,
लेकिन तुम
आज भी मुझे
पत्थर में गढते हो
और अपने सुख की
कामना करते हो .
अपने स्वार्थ हेतु
मेरा बलिदान मत लो
मैं कृष्ण हूँ
मुझे कृष्ण ही
रहने दो ..
109 comments:
महारास भी रचाया था
यह जताने के लिए
कि मन की आज़ादी ही
कर सकती है
आत्मविभोर ....
मन को तन से ऊपर रखती हुई ...गहन और बहुत सार्थक ...सुंदर अभिव्यक्ति ......!!
व्यक्तित्व की गति की अर्चना हो..
तुम राधा संग
मेरे प्रेम को
तोलते हो तराजू पर
भूल जाते हो कि मैं
स्थापित कर रहा था
उस अलौकिक प्रेम को
जो तन से नहीं
मन से किया जाता है ,
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति...
समस्त कुंठाओं का विसर्जन करते हुए अलौकिक प्रेम के साथ मित्र , पुत्र , राजा , भाई सभी के रुप में कृष्ण ने समाज के सामने रिश्तों के आदर्श प्रस्तुत किये ...
लोंग बस अपनी सुविधा से उसके रसिया छवि पर ही अटके रहे या मूर्तियों में गढ़ते रहे !
भावपूर्ण रचना !
प्रभु की व्यथा/आत्मकथ्य आपकी लेखनी से पढ़कर मन अभिभूत है!
सादर प्रणाम, संगीता जी!!!
सचमुच आज इसी नज़रिए को बदलने की आवश्यकता है !
प्रस्तुति मन को छू गई !
इंसान को भगवान भी पहचानने लगा है ,
अच्छा हुआ कि अपने बनाए को जाना है !
दृग हों ज्यों मीरा का मन
या सूर से पायें नयन
तब कहीं जाकर दिखेंगे
तुमको स्वयम् में ही किसन.
रचना की जितनी तारीफ की जाय कम है.अद्भुत कल्पना ने कृष्ण-दर्शन का मार्ग प्रशस्त किया है,
वाह !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
सुन्दर और सटीक
नया ब्लॉग 'बेसुरम' http://besurm.blogspot.com आपक स्वागत के लिए उत्सुक है
महारास भी रचाया था
यह जताने के लिए
कि मन की आज़ादी ही
कर सकती है
आत्मविभोर
पर तुमने तो
कर दिया खड़ा मुझे
कटघरे में रसिया कह ...इन्सान तुमने ईश्वर को भी तौल ही दिया
संगीता दी,
कृष्ण को समझने में तो सबने भूल की है... जो हाथ में बांसुरी को धारण करता है, वही कुरुक्षेत्र में अर्जुन को शस्त्र उठाने की शिक्षा देता है, जो गोपियों के वस्त्र हरण कर उनके साथ ठिठोली करता है, वही पांचाली के वस्त्र हरण के समय उसकी लाज बचाता है... जो गोपियों के संग रास रचाता है वही गीता का ज्ञान देता है.. जीवन के दुखों से पलायन कर जो सन्यासी बने हैं, उन्हें आनंद के अतिरेक से संन्यास का ज्ञान प्रदान करता है... जो सूर को शिशु से आगे नहीं दिखता, वही मीरा को 'दूसरो न कोइ' के रूप में नज़र आता है!!
बहुत अच्छी कविता दी! कृष्ण को सही अर्थों में परिभाषित करती!
यदि व्यक्ति का ईश्वतर पर विश्वास नहीं है, या वह मानता है कि कोई कृपा करने वाला नहीं है तो उसके ऊपर ईश्वर कैसे कृपा करेंगें। जब कृपा ही नहीं होगी तो दुख रूप संसार में उसे सुख शांति नहीं प्राप्त/ होगा, क्यों कि जो उन्हें जानता है उसे ही शांति मिलती है अन्य को नहीं।
दीदी ,
मैंने तो जिया जीवन
मात्र साधारण मानव का
सारी ज़िंदगी
दुखों के बोझ तले
व्यतीत हुआ हर पल
श्राप को धारण कर
कर लिया
मृत्यु का वरण ,
बिकुल सही.... साधारण मानव में ही तो छिपे हैं कृष्ण... किन्तु मानव ..सिर्फ भुना रहा है उनको भगवान बना कर अपने स्वार्थपूर्ण क्षुद्र कृत्यों को प्रतिपादित करने के लिए ....सुन्दर सोच..सुन्दर भाव... काश कृष्ण की पीड़ा समझ पाए साधारण मानव ..
मैं कृष्ण हूँ
मुझे कृष्ण ही
रहने दो ..
नि:शब्द करती यह अभिव्यक्ति ...गहनता लिए सटीक लेखन के.. आभार ।
भगवान भी ...आज के इंसान से पनाह मांग रहा है ...... गहरे भाव लिए रचना ...
कृष्ण को सच्चे अर्थो में परिभाषित करती सशक्त रचना .
कृष्ण के मन की वेदना को सटीक अभिव्यक्ति दी है आपने संगीता जी ! कृष्ण ही एक ऐसे देवता रहे हैं जिनसे मनुष्य ने अपेक्षा भी बहुत की है तो उनकी रासप्रियता के लिये उनकी आलोचना भी बहुत की है, उनके बाल लीलाओं पर बलि-बलि न्यौछावर हुए हैं तो कौरव पांडवों के बीच हुए धर्मयुद्ध में दिव्य ज्ञान के लिये भी उनकी ही मुखापेक्षा की है ! इन्हीं से सब कुछ चाहा है और इन्हें ही हमेशा कटघरे में खड़ा भी किया है ! इस अद्भुत कृति के लिये आप बधाई की पात्र हैं संगीता जी ! शुभकामनायें !
बेहद खूबसूरती से आपने कृष्ण-दर्शन कराया है ..
सच है मानव या तो भगवान को सिंहासन पर बैठा देता है या उस पर ही सवाल खड़ा कर देता है...
जीवन में कृष्ण के रंग आत्म-सात कर ले तो फिर कहना ही क्या? बहुत सुन्दर रचना और मानव स्वभाव को उद्गारित करती हुई |
भले ही गीता पर हजारो टिकायें लिखी गई है फिर भी,
कृष्ण मनुष्य की समझ के बाहर है ! बहु आयामी व्यक्तित्व का नाम
कृष्ण है ! अगर इस व्यक्तित्व के बारे जरा सा भी कुछ जानना समझना हो
तो उनपर लिखी हुई ओशो की गीता-दर्शन आठ खण्डों में उपलब्ध है !
और एक पुस्तक है ---कृष्ण और हँसता हुआ धर्म"
कृष्ण ओशो के द्वारा इन प्रवचनों में फिर से सद्यस्नात इस धरतीपर
अवतरित हुये है !
इसमें कोई संदेह नहीं रचना सुंदर है !
बेह्द उम्दा और गहन अभिव्यक्ति…………कृष्ण की व्यथा का शानदार चित्रण्।
हम किसी की व्यथा को समझने का प्रयत्न ही नहीं करते...भगवान भी हार गए इंसान से :-)
क्या लिख दिया दी :) पल पल अचंभित करती हो अपनी रचनात्मक योग्यता से.
कभी कृष्ण की तरफ से किसी ने ऐसा सोचा न होगा.
पर मानव
तुम कितने
छद्मवेशी हो
वाकई ..दीखता कुछ और है, होता कुछ और ही है.पल पल गिरगिट की तरह रंग बदलता मानव.बेचारे भगवान की भी कहाँ चलनी थी .
kuchh to log kahenge...logon ka kaam hai kahna....bas yahi soch aati hai insaan ki tark-vitark pravarti ko dekh kar.
bahut acchhi prastuti.
तुम राधा संग
मेरे प्रेम को
तोलते हो तराजू पर
भूल जाते हो कि मैं
स्थापित कर रहा था
उस अलौकिक प्रेम को
जो तन से नहीं
मन से किया जाता है
bahut sundar rachna...aabhar
कृष्ण को सही अर्थों में देखने की कोशिस. कृष्ण तो भगवान् थे और प्रभु मूरत जो जैसे देखना चाहे दिखती है उसे. चाहो तो भगवान् नहीं तो पत्थर. एक बार फिर उत्क्रिस्ट साहित्य के लिए बधाई संगीता जी
Kya gazab kee rachana hai!
कृष्ण जी व्यथा जायज है,
गहन अभिव्यक्ति की बहुत सुंदर रचना,..
नई रचना --काव्यान्जलि--जिन्दगीं--
थोड़े शब्दों मे ही आपने पूरा कृष्ण चरित्र .....और मन की कसक कह डाली ...पर ये मनुष्य तो उसी की माया है ..इसका स्वभाव ही है अपनी सुविधा के अनुरूप बात का अर्थ निकालना है ...बहुत ही अतभुत रचना बधाई
gahre bhaaw se saji behtarin rachna...!
बहुत अच्छी और सार्थक रचना ...
एक ओर तो
कर देते हो
मंदिर में स्थापित
और फिर
लगाते हो आरोप
और उठाते हो प्रश्न
कि
क्या सच ही
"कृष्ण" भगवान था ?
क्या लिखती हैं आप !!!
कृष्ण की व्यथा को तो हम समझ ही नहीं पाते वो तो भगवान हैं अत: उन का दुख हमें दुख ही नहीं लगता
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति !!
नहीं खोल पाए
तुम्हारे चक्षु
और आज भी तुम
पड़े हो इस फेर में
कि क्या विपरीत लिंगी
हो सकते हैं
सच्चे मित्र ?
bahut hi sundartam dhang se ap ne krshn ke bare me faile mithak ki vyakhaya ki hai ....manav aur eshawar .... ki vichar dharon ke roop ka darshn karaya hai ... bhaut bahut abhar ke sath hi badhai .
सादर वन्दे , कृष्ण की व्यथा का सही चित्रण किया है आपने , हमने अपने स्वार्थ वश कृष्ण को मानव \ईश्वर बना लिया है |
वाह बहुत सुन्दर रचना संगीता जी..
अपने छलावो से रखो दूर
अपने शब्दों में मत उलझाओ
मैं कृष्ण हूँ मुझे कृष्ण ही रहने दो...
yahi vyatha hai aaj ke samaaj ki..ishwar ko bhi na chhoda....pehle usne insaan bnaye..fir insaano ne bhagwaan...
कृष्ण के रूप, स्वरूप और कृत्य को अगर मानव् समझ ले तो फिर इस जग का स्वरूप कुछ और ही हो जाए. गीता सिर्फ धर्मग्रंथों के ढेर में रखी जाती है उसके उवाच के मर्म को कितने ने समझा है.? कह दो कृष्ण से मानव महान है तभी तो वह राम से लेकर कृष्ण, शिव और बुद्ध सभी पर प्रश्न चिह्न उठाता रहता है.
पड़े हो इस फेर में
कि क्या विपरीत लिंगी
हो सकते हैं
सच्चे मित्र ?bahut achchi panktiyan sangeeta jee.thanks.
पर मानव
तुम कितने
छद्मवेशी हो
एक ओर तो
कर देते हो
मंदिर में स्थापित
और फिर
लगाते हो आरोप
और उठाते हो प्रश्न
कि
क्या सच ही
"कृष्ण" भगवान था ?
बहुत खूब , काश कि इंसान स्वभाव से ही ऐसा दोगला नहीं होता !
सुन्दर प्रस्तुति !
योगीराज श्री कृष्ण की व्यथा के माध्यम से संदेश काफी अच्छा दिया है आपने तो, किन्तु बुद्धिजीवी समझे तो?
'राधा' कृष्ण की मामी का नाम था तो उनके लिए माँतृ-तुल्य थीं । 'कुरान'की तर्ज पर विदेशी शासकों द्वारा गढ़वाए पुराण मे राधा-कृष्ण 'रास'की चर्चा करके श्री कृष्ण का घोर अपमान किया गया है।
आजादी के बाद भी अपने सांस्कृतिक इतिहास मे सुधार न करना गुलाम मानसिकता का ही द्योतक है।
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति...
सगीता दी आपने सच्ची, कान्हा की सशक्त वकालत की है..वो भी अभिभूत होंगे इसे पढ़ कर..
सादर.
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति भाव की अनुभाव की राग की विराग की .
yah Prasang yaad ata hai aapki rachna ko padh kar...Facebook me kai jagah par maine logo ko likhte dekha hai... Bhagwaan kare to Leela aur ham kare to character dheela.... kaisee tauheen hai ye prabhu kee...shayad ye un logo kaa agyaan hai jinhone prabhu kee leela aur unke jeewan ke Darshan ko nahi jaana ...aapne yah kavita likh kar sacchi baat sabke sammukkh rakhi... aapka aabhaar
गहरी और अर्थपूर्ण प्रस्तुति ..
सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति के साथ भावपूर्ण रचना! दिल को छू गई!
krishna ki vyatha ko aapne bahut hi sunder dhang se prastut kiya hai... badiya post.
मैं कृष्ण हूं,मुझे कृष्ण ही रहने दो.भगवान भी मानवीय दोषारोपण से नही बच पातें हैं.प्रेम की अनुभूति सार्वभौम हैं,जहां सीमाएं निरर्थक हैं,जिन्होंने सीमाएं बांधी वे इस अमृत को चख भी ना सके.सार्थक प्रस्तुति.
आपकी किसी पोस्ट की चर्चा नयी पुरानी हलचल पर कल शनिवार 7/1/2012 को होगी । कृपया पधारें और अपने अनमोल विचार ज़रूर दें। आभार.
गहन सार्थक सुंदर रचना......
--जिन्दगीं--
जय श्री कृष्ण .
सुन्दर प्रस्तुति .
नववर्ष की हार्दिक शुभकामनायें.
अपने स्वार्थ हेतु
मेरा बलिदान मत लो
मैं कृष्ण हूँ
मुझे कृष्ण ही
रहने दो ..
बिलकुल सही बात कही आंटी।
सादर
अभूतपूर्व रचना आदरणीय संगीता दी....
सचमुच... अद्भुत.
सादर.
nihshabd......
bahut sundar rachna
"पांचाली मेरी सखा
जिससे मैं
मन की कहता था
उसके मन की
गुनता था ,
नहीं खोल पाए
तुम्हारे चक्षु
और आज भी तुम
पड़े हो इस फेर में
कि क्या विपरीत लिंगी
हो सकते हैं
सच्चे मित्र ?"
विपरीत लिंगी मित्रता संशय से परे कहाँ है संगीता जी ! राधा-कृष्ण का जाप सभी करते हैं किन्तु कितने व्यक्ति इस प्रकार की मित्रता को स्वीकार कर सकते हैं पूरी पावनता के साथ!
अपने साथ कॄष्ण कॊ लिये हम भी आपके द्वारा उठाये प्र्श्नों के उत्तर ढूँढ ही तो रहे हैं !
सुंदर अभिव्यक्ति ! बधाई
मैं कृष्ण हूं
मुझे कृष्ण ही
रहने दो !
बहुत ही सुंदर भाव।
अपने स्वार्थ हेतु
मेरा बलिदान मत लो
मैं कृष्ण हूँ
मुझे कृष्ण ही
रहने दो ..
....बहुत सटीक और गहन अभिव्यक्ति ...निशब्द कर दिया..आभार
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति .....
Manav ke Antarman ke dwandwa ki safal abhivyakti. Bahut2 badhai.
नवीन दृष्टिकोण की यह अंतर्कथा
सत्य और सार्थक है यह व्यथा
तमाम विवादों के कारण ही,युवा कृष्ण की प्रतिमा बिरले ही दिखती है। कृष्ण जहां भी हैं,बाल रूप में ही पूज्य हैं। बड़े होने पर ..... महाभारत.... और.........और भी न जाने क्या-क्या.....आप जानती ही हैं।
बहुत ही सार्थक लगी कृष्ण की व्यथा.......
त्रासदी यही है कि अमूर्त को समझाने के लिए मूर्त रूप रखने के कुछ पल बाद ही सच भूल कर हम मूर्त पर प्रश्न उठाने को हो निकलते हैं...
saarthak prashn uthati rachna
bahut sunder
abhaar
naaz
निशब्द के दिया आपकी कविता और आपकी सोच ने
सच में ...आज भी लोग विपरीत दोस्ती का मजाक ही बनाते हैं ...उंगलियां उठाई जाती है ऐसी दोस्ती पर
दीदी आपकी लेखनी को नमन
अलौकिक प्रेम को
जो तन से नहीं
मन से किया जाता है ,
सुंदर अभिव्यक्ति...भावपूर्ण रचना !
kamal kamal kamal ...............
bahut sunder bhav
badhai
rachana
बेहद ख़ूबसूरत एवं उम्दा अभिव्यक्ति ! बधाई !
बहुत सुंदर भावाभिव्यक्ति .......सही भी .....
वो रास हो या चीर हरण या मित्रता की बात .....नही समझा कभी कोई ये बात .....
तुम राधा संग
मेरे प्रेम को
तोलते हो तराजू पर
भूल जाते हो कि मैं
स्थापित कर रहा था
उस अलौकिक प्रेम को
जो तन से नहीं
मन से किया जाता है ,
गहन,सार्थक व भावपूर्ण रचना
vikram7: हाय, टिप्पणी व्यथा बन गई ....
कृष्ण.. कृष्ण ..नाम में ही झंकार है ..
सकारात्मकता की ..
उनके भाव ,उनकी कृतियों को समझ पाना ..मनुष्य बुद्धि के परे है ..
बहुत सुन्दर लिखा है आपने ..
kalamdaan.blogspot.com
बहुत सुंदर प्रस्तुति,गहन सार्थक बेहतरीन रचना
welcome to new post --काव्यान्जलि--यह कदंम का पेड़--
आपकी इस कविता ने हिला कर रख दिया, कृष्ण के विमर्श को समकालीनता की परिधि में भी देख रहा था. सार्थक कविता के लिए बढ़ाई. आपने मेरी कविता को भी सराहा था, मगर आपकी टिप्पणी कहाँ चली गयी, तह समझ नहीं आया, ऐसा पहली बार हुआ है. शायद तकनीकी कारन से ऐसा हुआ होगा. आपकी हर टिप्पणी उत्साह बढ़ाती है. उसे संजो कर रखने का मन होता है.
सुप्रभात संगीता दी...
वाकई आपके कमेन्ट spam में जा रहे है...मगर जब ये बात पता है तो हम सबसे पहले स्पाम ही चेक करते हैं...सो काहे की चिंता :-)
सादर.
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति...भावपूर्ण रचना !आभार
तुम राधा संग
मेरे प्रेम को
तोलते हो तराजू पर
भूल जाते हो कि मैं
स्थापित कर रहा था
उस अलौकिक प्रेम को
जो तन से नहीं
मन से किया जाता है ,
अलौकिक प्रेम को स्थापित करती आध्यात्मिक चिंतन का सशक्त हस्ताक्षर है आपकी रचना ..
सादर अभिनन्दन
बहुत ही सुन्दर और सार्थक कविता
bahut hi sunder bhaav liye hue rachna, padhna manbhaya.
lohri avum makarsankranti ki shubhkamnayen.
लेकिन तुम
आज भी मुझे
पत्थर में गढते हो
और अपने सुख की
कामना करते हो .
अपने स्वार्थ हेतु
मेरा बलिदान मत लो
मैं कृष्ण हूँ
मुझे कृष्ण ही
रहने दो ..
सुंदर सार्थक प्रस्तुति. अद्भुत कल्पना शक्ति है आपमें. बधाई.
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति...
मैं कृष्ण हूँ
मुझे कृष्ण ही
रहने दो
गहरे भाव लिए बहुत सार्थक सुंदर अभिव्यक्ति
बहुत सुंदर रचना है,मन को छू गयी. साधुवाद.
बहुत खूबसूरती से बहुत बड़ी बात कह गयी आप...... बहुत अच्छी रचना
सुन्दर मनोहर .बारहा पढने लायक पोस्ट .एक युगीन सचाई समेटे -विपरीत लिंगी नहीं हो सकते क्या मीत ,हाँ सिर्फ मीत ...
बहुत सुंदर प्रस्तुति,गहरे भाव की बेहतरीन पोस्ट
welcome to new post...वाह रे मंहगाई
अच्छी रचना ....बिलकुल सही कहा आज कल अपनी कमियों को दबाने के लिए भागन को भी तार तार कर देता है....
बधाई ...
मेरी नयी कविता तो नहीं उस जैसी पंक्तियाँ "जोश "पढने के लिए मेरे ब्लॉग पे आयें...
http://dilkikashmakash.blogspot.com/
तुम राधा संग
मेरे प्रेम को
तोलते हो तराजू पर
...अति सुन्दर...पढ़ कर मन बहुत कुछ सोचने के लिए मजबूर हो गया!...आभार!
आपकी किसी पोस्ट की चर्चा है नयी पुरानी हलचल पर कल शनिवार 21/1/2012 को। कृपया पधारें और अपने अनमोल विचार ज़रूर दें।
bahut sahi prashn uthaya hai aapne
तुम राधा संग
मेरे प्रेम को
तोलते हो तराजू पर
भूल जाते हो कि मैं
स्थापित कर रहा था
उस अलौकिक प्रेम को
जो तन से नहीं
मन से किया जाता है ,
बहुत अच्छी कविता मन को छू गई !
लेकिन तुम
आज भी मुझे
पत्थर में गढते हो
और अपने सुख की
कामना करते हो .
अपने स्वार्थ हेतु
मेरा बलिदान मत लो
मैं कृष्ण हूँ
मुझे कृष्ण ही
रहने दो ..
bahut hi prabhaavi ... gahra arth samete ...
तुम राधा संग
मेरे प्रेम को
तोलते हो तराजू पर
भूल जाते हो कि मैं
स्थापित कर रहा था
उस अलौकिक प्रेम को
जो तन से नहीं
मन से किया जाता है ,...
.....
महारास भी रचाया था
यह जताने के लिए
कि मन की आज़ादी ही
कर सकती है
आत्मविभोर ....
वाह दीदी वाह !!
जै श्री कृष्ण।
राधे राधे
मैं कृष्ण हूँ
मुझे कृष्ण ही
रहने दो ..
सादर नमन
लग रहा था कि यह कविता पहले पढ़ी है, टिप्पणियों में जाकर ढूढ़ा तो अपनी उपस्थिति पा गया। लगभग ९ वर्ष बाद पुनः पढ़ रहा हूँ पर चिर-नवीनता लिये हुयी है आपकी यह कविता। कृष्ण के मन को समझे हम।
* यशोदा ,
राधे राधे 🙏
* प्रवीण जी ,
वो समय तो गज़ब का ब्लॉगिंग काल था । अपने ब्लॉग पर आपकी उपस्थिति हमेशा मिली । पुनः आने के लिए आभार ।
मैं कृष्ण हूँ
मुझे कृष्ण ही
रहने दो
गहन भाव ..., बहुत सुंदर और सार्थक सृजन ।
मैं कृष्ण हूँ, मुझे कृष्ण ही रहने दो….वाह
* मीना जी और उषा जी
हार्दिक आभार ।
गहन भाव लिए बहुत सुंदर रचना।
लेकिन तुम
आज भी मुझे
पत्थर में गढते हो
और अपने सुख की
कामना करते हो .
अपने स्वार्थ हेतु
मेरा बलिदान मत लो
मैं कृष्ण हूँ
मुझे कृष्ण ही
रहने दो ..
बहुत सटीक एवं सारगर्भित ...जिन श्रीकृष्ण ने कर्म प्रधान जीवन जीते हुए मनुष्यता के हर दुख को भोगा भगवान होते हुए भी कर्मफल की अवहेलना नहीं की हम उन्हीं भगवान से अकर्मण्य होकर सुख की कामना के लिए प्रार्थना करते हैं...हम ये नहीं सोचते कि जो स्वयं पूरी जिंदगी दुख और परेशानियों में जिया हो और अंत में भी अभिशप्त होकर मर मिटा हो उन्हीं से सुख की चाहना और कर्मफल की अवहेलना!!!
बहुत ही चिन्तनपरक एवं संग्रहणीय सृजन
लाजवाब
वाह!!!
बहुत ही सुंदर सराहनीय सृजन आदरणीय दी।
हृदयस्पर्शी भाव।
सादर नमस्कार।
* पम्मी ,
बहुत शुक्रिया ।
** सुधा जी ,
आपकी प्रतिक्रिया मिली , हमेशा की तरह रचना का निचोड़ आप ले आईं हैं ।।
ये हमारे मन की भावनाएं ही हैं जो भगवान को भी कटघरे में ले आते हैं । दूसरे धर्म के लोग कहें तो कहें हम हिन्दू भी ऐसे प्रश्न उठाते हैं ।दुःख होता है ।
इतनी भावपूर्ण प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार ।
** प्रिय अनिता ,
तहेदिल से शुक्रिया ।
तुम राधा संग
मेरे प्रेम को
तोलते हो तराजू पर
भूल जाते हो कि मैं
स्थापित कर रहा था
उस अलौकिक प्रेम को
जो तन से नहीं
मन से किया जाता है ,
ओहो !! कितना मार्मिक सृजन दी,सारी कुंठाओं का विसर्जन कर अलौकिक प्रेम के साथ मित्र , पुत्र , राजा , भाई सभी के रुप में कृष्ण ने समाज के सामने रिश्तों के आदर्श प्रस्तुत किये थे मगर हम दीनहीन मानव ने उसे भी अपनी सहूलियत से तोड़-मरोड़कर जो जी आया बाते बना ली। कृष्ण की व्यथा को समझना ासना नहीं और आपने बाखूबी इसका चित्रण किया है। लाजबाब सृजन दी,सादर नमन आपको
लेकिन तुम
आज भी मुझे
पत्थर में गढते हो
और अपने सुख की
कामना करते हो .
अपने स्वार्थ हेतु
मेरा बलिदान मत लो
मैं कृष्ण हूँ
मुझे कृष्ण ही
रहने दो ..क्या बात कही आपने, कृष्ण की अनकही वेदना को शब्दो में गढ़ दिया,सच मानव बड़ा स्वार्थी है,वो ईश्वर को भी अपने हिसाब से इस्तेमाल करता है,और जरा सी ठोकर लगते ही,उनके अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगा देता है,बहुत ही भावपूर्ण सार्थक रचना पढ़ने को मिली,बहुत बधाई आपको।
प्रिय कामिनी ,
सच कहा तुमने कि कृष्ण ने हर रूप में अपने को स्थापित किया लेकिन आज हम उनके ऊपर ही अपनी बुद्धिमत्ता के नशे में चूर सवाल उठाते हैं ।
तुमको रचना पसंद आई ,इसके लिए आभार ।
प्रिय जिज्ञासा ,
तुमने मेरे सहेजे सारे लिंक्स पढ़े यह जान कर आनंद आया ।
मनुष्य के स्वार्थी होने की इंतिहां है जो अपने आराध्य पर भी प्रश्नचिह्न लगता है ।
मेरा लिखा पसंद आया इसके लिए आभार ।
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