सागर मंथन
>> Monday, April 30, 2012
कटूक्तियाँ ,
मन के भँवर में
घूमती रहती हैं
गोल गोल
संवेदनाएं
तोड़ देती हैं दम
अपने अस्तित्व को
उसमें घोल ,
भावनाएं
साहिल पर
पड़ी रेत सी
वक़्त के पैरों तले
कुचल दी जाती हैं
जो अपने
क्षत- विक्षत हाल पर
पछताती हैं ,
तभी ज़िंदगी के
समंदर से
कोई तेज़ लहर
आती है
जो उनको
अपने प्रवाह संग
बहा ले जाती है ,
फिर होती है
कोई नयी शुरुआत
कोई नयी शुरुआत
सुनहरी सी भावनाओं का
चढ़ता है ताप
चाँद भी आसमां में
जैसे मुस्काता है
आँखों का सैलाब भी
ठहर सा जाता है
बस यूं ही
समंदर की लहरें
आती - जाती हैं
ज़िंदगी को जीना है
यही समझाती हैं ,
मैं भी जी रही हूँ
कर के ये चिंतन
रोज़ ही करती हूँ
मैं सागर मंथन ।
72 comments:
सागर के थपेड़े या सागर मंथन।
बहुत खूब आंटी!
सादर
मैं भी जी रही हूँ
कर के ये चिंतन
रोज़ ही करती हूँ
मैं सागर मंथन । ,,, और अनुकूल लहरों का इंतज़ार , क्योंकि जिंदगी को बढ़ना है
जी हाँ, जीवन सागर मंथन ही तो है, जो रोज-रोज, पल-पल होता है...
गहन भाव... आभार
'मैं भी जी रही हूँ
कर के ये चिंतन '
- चिंतन के हिलकोरे ही नवनीत संचय का हेतु बनते हैं ,छूछी वस्तुयें भी व्यर्थ कहाँ !
बस यूं ही
समंदर की लहरें
आती - जाती हैं
ज़िंदगी को जीना है
यही समझाती हैं ,
बहुत भावपूर्ण प्रस्तुति
बहुत भावपूर्ण कविता है ।
रोज़ ही करती हूँ
मैं सागर मंथन ।
बहुत ही सुंदर पंक्तियाँ... सुंदर भाव अभिव्यक्ति...
जिन्दगी में उतार चढ़ाव को लहरों के माध्यम से ख़ूबसूरती से चिन्हित किया है . सुन्दर रचना .
वाह !!!!!!! भावनाओं की ऊँचाइयों पर जिंदगी का यथार्थ चित्रित करती हुई उत्कृष्ट रचना. इसे पढ़कर एक कविता ने जन्म ले लिया, आपको सादर समर्पित है:-
भावनायें रेत सी बिखरी , कुचलती जा रहीं
हैं विवश संवेदनायें, हाय ! छलती जा रहीं
हैं भँवर कटु उक्तियों के,तेज लहरें उठ रहीं
जिंदगी-सागर,सुनामी नित मचलती जा रहीं.
आज मंथन कर ही लें,संकल्प-गिरि एक लाइये
और चिंतन-नाग से विष को विलग कर जाइये
आत्म-बल शंकर बने जो विष को धारे कंठ में
देव-गण सत्कर्म हैं , अमृत-कलश ले आइये.
मैं भी जी रही हूँ
कर के ये चिंतन
रोज़ ही करती हूँ
मैं सागर मंथन ।.....बहुत सुन्दर भाव..सुन्दर अभिव्यक्ति
मैं भी जी रही हूँ
कर के ये चिंतन
रोज़ ही करती हूँ
मैं सागर मंथन ्………………रोज सागर मंथन करना आसान नही होता …………मगर जीवन उसके बिना भी चलाना आसान नही ……एक सुन्दर और गहन भावाव्यक्ति
और सागर मंथन से अमृत भी निकलता है ..
जैसे आपकी अमृतमयी रचना..
मुझे तो लगा आप अमृत पान कर चुकीं हैं दी..........
वरना ऐसा सुंदर कैसे लिखतीं????
:-)
सादर
मंथन जब-जब मन उदधि में चलता है,
हर बार वहां से अमृत ही निकलता है।
रोज़ ही करती हूँ
मैं सागर मंथन ।
गहन भाव लिए अनुपम अभिव्यक्ति ...
सागर मंथन से अमृत तुल्य जीवन जीने की संजीवनी मिलती रहे!
सुन्दर रचना!
सादर!
बस यूं ही
समंदर की लहरें
आती - जाती हैं
ज़िंदगी को जीना है
यही समझाती हैं ,
बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति....
सागर मंथन भी जरुरी है.तभी निकलेगा अमृत शब्दों का और होगा हमारा मन तृप्त.
बहुत सुन्दर.
रोज मंथन करके ही तो इतना अमृत पान कर चुकी हें कि विष और अमृत दोनों को सहज ही पचा कर एक प्रभावशाली रचना लिख डालती हें.
मैं भी जी रही हूँ
कर के ये चिंतन
रोज़ ही करती हूँ
मैं सागर मंथन ।
क्या बात हैं दीदी ...आपका सागर मंथन तो लाजवाब हैं ..बहुत गहरा बहुत संवेदन शील ...
मैं भी जी रही हूँ
कर के ये चिंतन
रोज़ ही करती हूँ
मैं सागर मंथन ।
और इसी मंथन का नाम है जीवन...जो बीत गया वह बीत गया जिंदगी हर पल नयी है...सुंदर बोध देती कविता !
sundar rachna vakai ......
समंदर की लहरें आती - जाती हैं ज़िंदगी को जीना है यही समझाती हैं ,बहुत खूब गहन भाव अभिव्यक्ति
समय मिले कभी तो आयेगा मेरी भी पोस्ट पर आपका स्वागत है।
सागर मंथन या जिंदगी का मंथन ...यूँ ही चलेगा हर बार .....बार बार ....
सागर की लहरों के साथ जीवन के उतार चढ़ाव की लय और गति को बाँध लेने की महारत आपमें ही है संगीता जी ! प्रकृति की हर गतिविधि में आप गहन जीवन दर्शन का संकेत ढूँढ लेती हैं और इतनी खूबसूरत रचनाएं रच डालती हैं ! आपकी लेखनी को नमन एवं ढेर सारी शुभकामनायें !
शोभा चर्चा-मंच की, बढ़ा रहे हैं आप |
प्रस्तुति अपनी देखिये, करे संग आलाप ||
मंगलवारीय चर्चामंच ||
charchamanch.blogspot.com
गहन भाव लिए अनुपम अभिव्यक्ति ...
रोज ही करती हूँ सागर मंथन । बहुत सुंदर ।
ऐसी ही है जिंदगी ।
मैं भी जी रही हूँ
कर के ये चिंतन
रोज़ ही करती हूँ
मैं सागर मंथन । haan.....bilkul.
बेहद सुंदर ...आपकी रचनाओं की गहरी अभिव्यक्ति और जीवन दर्शन अद्भुत होता है.....
aate me namak ki tarah hamari zindgi me kaam karti hain ye katooktiyan...ye na ho to sunheri bhaawnaao ka taap kaise mahsoos hoga..sab ka apna apna mehatv hai. yahi zindgi hai....yu hi zindgi ko jeena hai.
sunder, gehan prastuti.
आँखों का सैलाब भी
ठहर सा जाता है
बस यूं ही
समंदर की लहरें
आती - जाती हैं
ज़िंदगी को जीना है
यही समझाती हैं ,
इस मंथन से ही अमृत निकलने की संभावना भी रहती है.
भावनाओं का समंदर यू ही बहता रहे
जीवन का मज़ा यू ही आता रहे ....
शुभकामनाएँ!
सागर मंथन ना हो तो विष और अमृत अलग कैसे होंगे ...
गहन भाव !
जीवन कि प्रक्रिया समझाती खूबसूरत अभिव्यक्ति ......इसी में सब छुपा छुपा सा है .....बस हम में ढूँढने की क्षमता होनी चाहिए ....
गहन भाव ....
शुभकामनायें ....
विचारों का ऎसा मंथन बस आप ही कर सकती हैं।
आज तो हम भी शामिल हो गये हैं:)
बेहतरीन पोस्ट।
सादर
भावनाएं
साहिल पर
पड़ी रेत सी
वक़्त के पैरों तले
कुचल दी जाती हैं
जो अपने
क्षत- विक्षत हाल पर
पछताती हैं ,
बढ़िया रचना सकारात्मक को लपकती .हमें समुन्दर मयस्सर है लेकिन न लहरें आलोड़ित करतीं हैं मन न प्रोमिग्रेड ,ये कैसा शहरीकरण है सब कुछ न संवेदनाएं बचीं न कुछ और ,मन कहाँ पाए ठौर ?
कृपया यहाँ भी पधारें -
डिमैन्शा : राष्ट्रीय परिदृश्य ,एक विहंगावलोकन
http://kabirakhadabazarmein.blogspot.in/
सोमवार, 30 अप्रैल 2012
जल्दी तैयार हो सकती मोटापे और एनेरेक्सिया के इलाज़ में सहायक दवा
yahi to ziwan hai di.........
कटूक्तियाँ ,
मन के भँवर में
घूमती रहती हैं
गोल गोल
संवेदनाएं
तोड़ देती हैं दम
अपने अस्तित्व को
उसमें घोल ....lekin sagar kee lahron se seekhkar hame unahe bachana hee hai..satat nirantar prayas se..bahtu he acchi kriti..sadar pranam ke sath
वाह....प्रभावपूर्ण ...बहुत ही sundar...
भंवर से बहार निकल ही जीवन का मार्ग मिल सकता है...
सार्थक चिंतन किया है आपने ...
अद्भुत है यह सागर मंथन.. कभी विश मिलता है अक्भी अमृत!!
बहुत ही सुन्दर कविता दी!!
जीवन की वास्तविकता का सुंदर वर्णन
बहुत ही गहरे भावो की अभिवयक्ति......
सागर मंथन से बहुत रत्न निकले थे...वैसे ही चिंतन से ज्ञानामृत...निकलता है...
फिर होती है
कोई नयी शुरुआत
सुनहरी सी भावनाओं का
चढ़ता है ताप
चाँद भी आसमां में
जैसे मुस्काता है
आँखों का सैलाब भी
ठहर सा जाता है
बहुत उम्दा ....मंथन ...
सागर मंथन से कई रत्न मिले...
मन मंथन से ज्ञानवर्धक विचार मिलेंगे...
इसे शेयर करने के लिए आभार!
फिर होती है
कोई नयी शुरुआत
सुनहरी सी भावनाओं का
चढ़ता है ताप
चाँद भी आसमां में
जैसे मुस्काता है
आँखों का सैलाब भी
ठहर सा जाता है ..
सुन्दर ...मंथन यों ही होता रहे और जिन्दगी अपने खूबसूरत रंग लिए हमें ले के लहरों के थपेड़े उतार चढाव दिखाती चले ...भ्रमर ५
समंदर की लहरें
आती - जाती हैं
ज़िंदगी को जीना है
यही समझाती हैं ,
....गहन जीवन दर्शाती बहुत प्रभावी अभिव्यक्ति...आभार
ओशो सिद्धार्थ कहते हैं-
लहरों को बनने,मिटने दो
जीवन सरिता को बहने दो
सागर मंथन से बहुत कुछ अच्छा भी निकालता है
जैसे आपकी यह बेहतरीन रचना....
बहुत ही बढ़िया और गहन भाव व्यक्त करती सुन्दर रचना....
yahi to jindgi hai .
यही तो जीवन है ... रोज ही मंथन होता है ... आशाएं जागती हैं ... भावनाएं खेलती हैं फिर टूट जाती हैं ...
कृपया मेरे ब्लॉग पर भी आए
कृपया मेरे ब्लॉग पर भी आए
बहुत ही बेहतरीन और प्रशंसनीय प्रस्तुति....
इंडिया दर्पण की ओर से शुभकामनाएँ।
"मैं भी जी रही हूँ
कर के ये चिंतन
रोज़ ही करती हूँ
मैं सागर मंथन ।"....
वाह ! अति सुंदर
"मैं भी जी रही हूँ
कर के ये चिंतन
रोज़ ही करती हूँ
मैं सागर मंथन ।"....
वाह ! अति सुंदर
"मैं भी जी रही हूँ
कर के ये चिंतन
रोज़ ही करती हूँ
मैं सागर मंथन ।"....
वाह ! अति सुंदर
"यूं ही समंदर की लहरें आती - जाती हैं ज़िंदगी को जीना है यही समझाती हैं ..."
बहुत सुन्दर रचना अभिव्यक्ति .... आभार
sundar kavita
बस यूं ही
समंदर की लहरें
आती - जाती हैं
ज़िंदगी को जीना है
यही समझाती हैं ,
सही है, जिंदगी सागर मंथन ही है जिससे कभी जहर भी निकलता है और कभी अमृत।
jivan rupi sagar me roj hi hote rahte sagar manthan -------sahi kaha aapne
बहुत ही बेहतरीन प्रस्तुति..
संगीता जी को जन्म दिन की हार्दिक शुभकामनाये
७ मई २०१२
संगीता जी जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनायें...
भावनाएं
साहिल पर
पड़ी रेत सी
वक़्त के पैरों तले
कुचल दी जाती हैं
जो अपने
क्षत- विक्षत हाल पर
पछताती हैं....
bahut sundar ... abhar
संवेदनाएं
तोड़ देती हैं दम
अपने अस्तित्व को
उसमें घोल...waah!
वाह उम्दा चिंतन युक्त मंथन
बहुत सुन्दर प्रस्तुति ...सागर मंथन
रोज ही सागर का मंथन....
सुन्दर रचना दी...
सादर.
सागर मंथन या जिंदगी का मंथन ...यूँ ही चलेगा हर बार .....बार बार ....
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