खलिश मन की .........
>> Thursday, February 24, 2022
मन की पीड़ा 
घनीभूत हो 
आँखों से 
बह जाती है 
खारे पानी से फिर
मन की धरती 
बंजर हो जाती है ।
उगता नहीं 
एक भी बूटा 
फिर, 
स्नेहसिक्त भावों से 
भावनाओं की 
दूब भी बस 
यूँ ही 
मुरझा  जाती है ।
खुशियों की चाहत में 
कितने दर्पण  टूटे 
सोचों के ,
अनचाहे ही 
मन धरती पर 
किरचें भी 
चुभ जाती हैं ।
अपना समझ 
जिसको भी 
तुम हमराज 
बनाते हो
उसकी ही 
ख्वाहिश अक्सर
मन की खलिश 
बन जाती है ।
 
 
 
 
 
 





