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अधूरा उपवन

>> Wednesday, October 10, 2012




मन के आँगन में
तुमने अपनी ही 
परिभाषाओं के 
खींच दिये हैं 
कंटीले तार
और फिर 
करते हो इंतज़ार 
कि , 
भर जाये आँगन 
फूलों से .

हाँ , होती है 
हरियाली 
पनपती है 
वल्लरी 
पत्ते भी सघन 
होते हैं 
पर फूल 
नहीं खिलते हैं । 

क्या तुमको 
ऐसा नहीं लगता कि
मन का उपवन 
अधूरा  रह जाता है 
और खुशियों का आकाश 
हाथ नहीं आता है । 



81 comments:

Rakesh Kumar 10/10/2012 4:53 PM  

मन के उपवन में फूल खिलने ही चाहिये.
अपनी परिभाषाओं के कंटीले तार काटकर
यह सम्भव होगा ?

विभा रानी श्रीवास्तव 10/10/2012 4:59 PM  

वल्लरी (manjari)
पत्ते भी सघन
होते हैं
पर फूल
नहीं खिलते हैं
बबूल रोपने पर
आम कहाँ होते हैं !!

रश्मि प्रभा... 10/10/2012 5:03 PM  

उम्मीदों की पूर्ती के लिए खाद और सिंचन भी तो मायने रखते हैं ... सोच लेने मात्र से क्या होगा !

आशा बिष्ट 10/10/2012 5:08 PM  

बहुत सही..पर मानव की प्रवृति हैं सोचता अपने अनुरूप ही है..

ANULATA RAJ NAIR 10/10/2012 5:39 PM  

फूलों बिना सूना लगता है उपवन.....तारों की बाड़ निकाल फेंकिये.....

सुन्दर रचना दी....
सादर
अनु

Suman 10/10/2012 5:42 PM  

हाँ , होती है
हरियाली
पनपती है
वल्लरी
पत्ते भी सघन
होते हैं
पर फूल
नहीं खिलते हैं ।
सही कहा है ....फूल खिलने के लिए
स्नेह का खाद पानी जरुरी है
बहुत सुन्दर लगी रचना ...

Maheshwari kaneri 10/10/2012 5:53 PM  

मन उपवन है तो फूल तो खिलने ही चाहिए...सुन्दर रचना..आभार..

महेन्द्र श्रीवास्तव 10/10/2012 5:53 PM  

बहुत सुंदर रचना
क्या कहने

वाणी गीत 10/10/2012 6:01 PM  

परिभाषाओं के कंटीले तार .फूल खिले भी कैसे !!
बिम्ब के माध्यम ने ख़ूबसूरती से समझाया !

shikha varshney 10/10/2012 6:17 PM  

हम्म ...कंटीली झाडियाँ..बस यही तो रोक देती हैं फूलों को खिलने से.पर लोग समझते हैं कि सुरक्षा के लिए लगा रहे हैं.क्या करिये.
गहन पंक्तियाँ.

ऋता शेखर 'मधु' 10/10/2012 6:43 PM  

बिना फूल के उपवन...बिल्कुल अच्छा नहीं लगेगा, कँटीले पौधे थोड़े कम ही रखे जाएँ तो उत्तम|

मेरा मन पंछी सा 10/10/2012 7:42 PM  

सच में बिना फूलों के उपवन अच्छा नहीं दिखता..
गहना भाव लिए रचना..
:-)

शिवम् मिश्रा 10/10/2012 7:45 PM  

वाह ...


विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस पर देश के नेताओं के लिए दुआ कीजिये - ब्लॉग बुलेटिन आज विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस पर पूरी ब्लॉग बुलेटिन टीम और पूरे ब्लॉग जगत की ओर से हम देश के नेताओं के लिए दुआ करते है ... आपकी यह पोस्ट भी इस प्रयास मे हमारा साथ दे रही है ... आपको सादर आभार !

Arvind Mishra 10/10/2012 8:13 PM  

गहरे अहसास की एक कविता -एक उलाहना या फिर मनुहार !

Anupama Tripathi 10/10/2012 8:26 PM  


मन के आँगन में
तुमने अपनी ही परिभाषाओं के खींच दिये हैं कंटीले तार और फिर करते हो इंतज़ार कि , भर जाये आँगन फूलों से .


कांटे तो मन के द्वार ही बंद कर देंगे ....तब तो ईश्वर भी अंदर नहीं आ सकते ....

गहन अभिव्यक्ति दी ....

रेखा श्रीवास्तव 10/10/2012 8:36 PM  

हरियाली पनपती है वल्लरी पत्ते भी सघन होते हैं पर फूल नहीं खिलते हैं ।

बहुत सुन्दर बात कही है। फूल तो तब खिलते हैं जब हमारे विचार और प्रयास ऐसे होते हैं।

ashish 10/10/2012 8:41 PM  

परिभाषा वाली कटीले बाड हटाये , हरी भरी पुष्प लदी फुलवारी पायें .

चला बिहारी ब्लॉगर बनने 10/10/2012 8:53 PM  

लगती है दीदी लगती है.. लेकिन आपकी कविता के भावों की हरियाली मनमोहक लगती है!और ऐसे में मन उपवन महक उठता है हमारा!!

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया 10/10/2012 9:29 PM  

मन के उपवन में फूल खिलते रहना चाहिये.
दृढ इच्छा शक्ती से अपना गुलसन मह्काइये,,,,,

RECENT POST: तेरी फितरत के लोग,

मनोज कुमार 10/10/2012 9:34 PM  

फूल खिलने के लिए एक विशेष प्रकार के हॉर्मोन की ज़रूरत पड़ती है। लेकिन उस हॉर्मोन को बनाने वाले प्रेरक तत्व अगर पर्याप्त मात्रा में न हों तो ऐसी स्थिति आनी लाजिमी है।

कविता में आपने इस खूबी से इन बातों को समोया है कि एक बेहतरीन रचना कहते हुए मुझे कोई हिचक नहीं हो रही।

प्रवीण पाण्डेय 10/10/2012 9:46 PM  

पुष्प सदा ही,
और अधिक,
खिलते खिलते,
रह जाते हैं।

प्रतिभा सक्सेना 10/10/2012 10:09 PM  

मन का उपवन ,बिना रोक-टोक मनमाना खिलता रहे!

Aditi Poonam 10/10/2012 10:25 PM  

गहन -गंभीर भावभीनी कविता

डॉ. मोनिका शर्मा 10/10/2012 10:32 PM  

बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति .... गहरी बात कहती पंक्तियाँ

Dr. sandhya tiwari 10/10/2012 10:56 PM  

फूल खिलने ही चाहिये, फूलों बिना सूना है उपवन..........

Sadhana Vaid 10/10/2012 10:56 PM  

क्या तुमको
ऐसा नहीं लगता कि
मन का उपवन
अधूरा रह जाता है
और खुशियों का आकाश
हाथ नहीं आता है ।

बहुत बहुत सुन्दर संगीता जी ! बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करती एक सार्थक रचना !

Mamta Bajpai 10/10/2012 11:01 PM  

लोगों के पूर्वाग्रह ..स्व निर्मित परिभाषाएं ही तो है सारे फसाद की जड़ .....

Satish Saxena 10/10/2012 11:02 PM  

बढ़िया अभिव्यक्ति , आपको शुभकामनायें...
सादर

महेन्‍द्र वर्मा 10/10/2012 11:03 PM  

हम अपने चारों ओर कटीले तारों का धेरा स्वयं निर्मित कर लेते हैं।

अनुभूतियां शब्दों में सहज प्रतिबिम्बित है।

mukti 10/10/2012 11:25 PM  

जब भी चीज़ों को परिभाषाओं में ढालने की कोशिश होती है, सब कुछ अवरुद्ध सा हो जाता है.
बुत खूबसूरत पंक्तियाँ हैं.

Manju Mishra 10/10/2012 11:34 PM  

मन के आँगन में
तुमने अपनी ही
परिभाषाओं के
खींच दिये हैं
कंटीले तार
और फिर
करते हो इंतज़ार
कि ,
भर जाये आँगन
फूलों से .

बहुत सच बात कही आपने संगीता जी . क्षमा चाहती हूँ बहुत दिनों से आपके ब्लॉग पर आना नहीं हो पाया।

kshama 10/11/2012 12:58 AM  

Bahut dinon baad aapko padha...bada hee achha laga.

हरकीरत ' हीर' 10/11/2012 8:59 AM  

हाँ , होती है
हरियाली
पनपती है
वल्लरी
पत्ते भी सघन
होते हैं
पर फूल
नहीं खिलते हैं ।

क्या बात है संगीता जी ....
बहुत खूबसूरत ....

इस्मत ज़ैदी 10/11/2012 9:03 AM  

मन के आँगन में
तुमने अपनी ही
परिभाषाओं के
खींच दिये हैं
कंटीले तार
और फिर
करते हो इंतज़ार
कि ,
भर जाये आँगन
फूलों से .

क्या बात है संगीता जी ,,बहुत सटीक मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया है आप ने ,,,बधाई

vandana gupta 10/11/2012 9:57 AM  

क्या तुमको
ऐसा नहीं लगता कि
मन का उपवन
अधूरा रह जाता है
और खुशियों का आकाश
हाथ नहीं आता है ।

बेहद संवेदनशील रचना ………दिल के पास से गुजरती हुई

Rajesh Kumari 10/11/2012 12:05 PM  

क्या तुमको
ऐसा नहीं लगता कि
मन का उपवन
अधूरा रह जाता है
और खुशियों का आकाश
हाथ नहीं आता है ।
बहुत सार्थक प्रस्तुति काँटों की छाँव में फूल कहाँ से खिलेंगे बहुत बधाई संगीता जी

सदा 10/11/2012 3:12 PM  

मन के आँगन में
तुमने अपनी ही
परिभाषाओं के
खींच दिये हैं
कंटीले तार
और फिर
करते हो इंतज़ार
कि ,
भर जाये आँगन
फूलों से .
क्‍या बात है ... भावमय करते शब्‍द

Anita 10/11/2012 4:54 PM  

मन की रहस्यात्मकता को प्रस्तुत करती सुंदर रचना !

Dr Varsha Singh 10/11/2012 5:23 PM  

बहुत सुंदर रचना, संगीता जी......

डा. गायत्री गुप्ता 'गुंजन' 10/11/2012 5:34 PM  

इच्छाओं के पुष्प हमेशा नहीं खिला करते...

Unknown 10/11/2012 6:08 PM  

बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति

Kunwar Kusumesh 10/11/2012 6:39 PM  

क्या तुमको
ऐसा नहीं लगता कि
मन का उपवन
अधूरा रह जाता है
और खुशियों का आकाश
हाथ नहीं आता है । .....................

जी हाँ,ऐसा भी होता है कभी कभी, परन्तु ऐसे में मुझे अक्सर किसी का एक प्यारा शेर उम्मीद की नई किरण दिखाता हुआ याद आ जाता है .आप भी वो शेर देखिये :-
जब कभी हाथ से उम्मीद का दामन छूटा,
ले लिया आपके दामन का सहारा हमने।

अनामिका की सदायें ...... 10/11/2012 10:07 PM  

har angle se kavita ko soch kar dekha aur paya kavita me nirasha ke put ke sath ummed wali nazer bhi hai. likhne wala jis bhaav bhoomi par utar kar kavita ka srijan karta hai us tak pathak shayad hi pahunch paye....lekin fir bhi apne dimag ke ghode to daudata hi hai so hamne bhi dauda diya aur lagta hai kavita jis bhaav-bhoomi par likhi gayi uske janm ka karan ek prayas n hone ki kami k falswaroop hona sambhav ho sakta hai. ki shayad aapas ke samvaad ki kami rahi hogi, vishay par saral hokar vishleshan nahi kiya gaya hoga ya samne wale ko apni baat kehne ka mauka n dekar sirf apne poorvagrahon ke tahat hi dusre ke bare me nirnay le liya gaya.
han lekin sach kaha ki
मन का उपवन
अधूरा रह जाता है
और खुशियों का आकाश
हाथ नहीं आता है ।
lekin kisi bhi karan ko itna astitv dekar to zindgi ko / rishto ko / sambandhon ko nahi jiya jata na ?

देवेन्द्र पाण्डेय 10/12/2012 7:56 AM  

वाह!सरल तरीके से बड़ी बात समझा दिया आपने।

ये जो ये जो कंटीले तारों सी परिभाषायें हैं न ये ऐसी ही रहेंगी। इससे लिपटकर, लताएँ मित्रों को धोखा दे सकती हैं लेकिन ये तार कभी नहीं कटेंगे। हम कभी नहीं जान पाते कि हमारी परिभाषायें, हमारे आदर्श थोथे हैं। कभी जान भी गये तो मानते नहीं। मानने से हमारा अहंकार हमे रोकता है। जब मानेंगे नहीं तो काटेंगे कैसे? काटेंगे नहीं तो फूल उगेंगे कैसे? अपने भीतर के कंटीले तारों को पहचाने, अहंकार का भी समूल नाश हो और कोई सच्चा गुरू मिल जाये तो बात बने।

संगीता स्वरुप ( गीत ) 10/12/2012 9:36 AM  

सभी पाठकों का आभार ...

@@ देवेन्द्र जी ,

कविता के सार तक पहुँचने के लिए आभार ।

Saras 10/12/2012 10:12 AM  

यह त्रासदी हर घर की है ....अपने वर्चस्व में बंधे.....लोग.....क्यारिओं को अक्सर खुशबू और फूलों से वंचित रखते हैं ..और छोटी छोटी खुशियाँ बस दस्तक देती रह जाती हैं

Rachana 10/12/2012 9:16 PM  

मन के आँगन में
तुमने अपनी ही
परिभाषाओं के
खींच दिये हैं
कंटीले तार
और फिर
करते हो इंतज़ार
कि ,
भर जाये आँगन
फूलों से .
kya sunder likh diya aapne kitna sach hai ye ki kya kahun
rachana

उपेन्द्र नाथ 10/12/2012 10:44 PM  

सही बात कही आपने... मन के आँगन में कोई फूल खिले भी कैसे जब तक मन का उपवन अधुरा रहे।सुंदर प्रस्तुति।

ओंकारनाथ मिश्र 10/13/2012 3:51 AM  

सुन्दर भाव. सच में बाग लगाते हैं हम, पतझड़ भी आती है बस आती नहीं बहारें हैं.

पूनम श्रीवास्तव 10/13/2012 4:36 AM  

di
bahut hi saty,man agar khali - khali sa ho to bhala fir koi fool kaise khil sakta hai man ke aangan me.
bahut hi gahre bhav samahit aapki is prastuti me.
shabdon ki sarlta ke saath gahnta ka tartamy jodne me aapko maharat hasil hai------
hardik naman ke saath
poonam

Vandana Ramasingh 10/13/2012 6:58 AM  

मन के आँगन में
तुमने अपनी ही
परिभाषाओं के
खींच दिये हैं
कंटीले तार
और फिर
करते हो इंतज़ार
कि ,
भर जाये आँगन
फूलों से .

इंसानी फितरत को सही शब्द दिए आपने

Amrita Tanmay 10/13/2012 9:02 AM  

उम्मीद की डोर सदा दूसरे के हाथ में थमाने और उसे टूटते देखते रहने के सिवा कोई विकल्प नहीं है . बस..बहुत ही अच्छी लगी..

Amrita Tanmay 10/13/2012 9:02 AM  

उम्मीद की डोर सदा दूसरे के हाथ में थमाने और उसे टूटते देखते रहने के सिवा कोई विकल्प नहीं है . बस..बहुत ही अच्छी लगी..

Anju (Anu) Chaudhary 10/13/2012 1:05 PM  

अधूरी अभिलाषाओं का संसार वैसे भी बहुत फैला हुआ होता हैं

Bharat Bhushan 10/14/2012 9:18 AM  

कँटीले तार बाड़ पर ही ठीक लगते हैं. उपवन के भीतर कँटीले तार न ही हों तो अच्छा.

देवेंद्र 10/14/2012 10:21 AM  

जी, हमारे स्वयं को आग्रह व खींची लकीरों प्यार की असीमता व अनंतमयता से हमें विमुख रखते हैं।सुंदर व गंभीर भाव लेखन।

रचना दीक्षित 10/14/2012 11:55 AM  

उपवन में फूलों का भी बहुत महत्त्व है. जीवन चक्र में सभी का अपना अपना योगदान है.

मन्टू कुमार 10/14/2012 1:03 PM  

बहुत ही उम्दा रचना|

सादर नमन |

virendra sharma 10/14/2012 7:17 PM  

मन के आँगन में
तुमने अपनी ही
परिभाषाओं के
खींच दिये हैं
कंटीले तार
और फिर
करते हो इंतज़ार
कि ,
भर जाये आँगन
फूलों से .

अभिलाषाएं /परिभाषाएं तुम्हारी ठीक सही पर नहीं खिलते हैं बंद हवा में फूल ,चाहिए उन्हें खुली धूप साफ़ हवा पानी .बढ़िया सूक्षम भाव जगत की रचना .

Onkar 10/14/2012 8:53 PM  

सुन्दर रचना

जितेन्द्र माथुर 10/15/2012 4:29 PM  
This comment has been removed by the author.
जितेन्द्र माथुर 10/15/2012 4:31 PM  

नेत्र खोल देने वाली कविता है यह । ज़िंदगी की सच्चाई को बयान करती है । इसे समझने के बाद पता चलता है कि चाहने के बाद भी मनुष्य को फूलों की जगह कांटे क्यों मिलते हैं ।

इतनी सुंदर और सटीक कविता लिखने के लिए साधुवाद ।

कविता रावत 10/15/2012 5:59 PM  

सच कटीले तारों के बीच मन का सुमन कभी नहीं खिल सकता!
..बहुत सुन्दर प्रस्तुति ...

AmitAag 10/16/2012 1:17 PM  

Wow! what a wonderful thought and a beautiful poem! I loved it Sangeeta:)

मो. कमरूद्दीन शेख ( QAMAR JAUNPURI ) 10/17/2012 6:40 PM  

सलाम। बहुत दिनों बाद ब्लॉग पर आया हूं। व्यस्तताओं और उलझनों में फंसा मन आपकीकविता में इस कदर उलझ गया कि खुद को भूल गया। बहुत ही अच्छी कविता। बधाई।

Rohitas Ghorela 10/18/2012 7:19 AM  

उम्दा प्रस्तुती।
आपकी पोस्ट पढ़ कर मख्मूर जी के शेर याद आगये...
कितनी दीवारें उठी हैं एक घर के दर्मियां
घर कहीं ग़ुम हो गया दीवारो-दर के दर्मिया

बस्तियां "मख्मूर" यूँ उजड़ी कि सेहरा हो गयीं
फासिले बढ़ने लगे जब घर से घर के दर्मिया.

कभी मेरे ब्लॉग पर भी आईये ...
http://rohitasghorela.blogspot.com/2012/10/blog-post_17.html

पुरुषोत्तम पाण्डेय 10/18/2012 10:46 AM  

मनभावन, सरल शब्दों में सुन्दर रचना.

kavita verma 10/18/2012 3:27 PM  

sundar rachna..saral shabdon me man ke bhavon ko utara hai aapne.

Unknown 10/19/2012 12:23 PM  

सहज भाषा में भावों से सजी सुन्दर रचना |

नई पोस्ट:- जवाब नहीं मिलता

Unknown 10/19/2012 6:30 PM  

बढ़िया अभिव्यक्ति ,सुन्दर कविता सादर बधाई।.

Rajput 10/19/2012 8:42 PM  

बहुत सुन्दर भाव लिए रचना .

shashi purwar 10/20/2012 2:11 PM  

sach kaha aapne ........yah pravarti to basi hui hai man me ........soch ko sarthak karna hoga , sarthak rachna sangeeta ji

Kailash Sharma 10/20/2012 2:55 PM  

बहुत सुन्दर भावपूर्ण अभिव्यक्ति...

Asha Joglekar 10/20/2012 10:21 PM  

मन का उपवन अधूरा रह जाता है और फूल नही खिलते खुशियों का आकाश हाथ नही आता .
वाह ।

जयकृष्ण राय तुषार 10/21/2012 6:16 AM  

बहुत ही अच्छी कविता |आभार

Dr.NISHA MAHARANA 10/22/2012 12:51 PM  

bahut acchi abhiwayakti ......sangeeta jee ..

सूफ़ी आशीष/ ਸੂਫ਼ੀ ਆਸ਼ੀਸ਼ 10/23/2012 6:43 AM  

बोया पेड़ बबूल का, तो आम कहाँ से होये!
मार्मिक!

--
ए फीलिंग कॉल्ड.....

गुरप्रीत सिंह 12/02/2012 11:53 PM  

रचना अच्छी लगी।
yuvaam.blogspot.com

Martinez 1/18/2013 5:05 PM  

हम अपने चारों ओर कटीले तारों का धेरा स्वयं निर्मित कर लेते हैं। अनुभूतियां शब्दों में सहज प्रतिबिम्बित है।

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