अधूरा उपवन
>> Wednesday, October 10, 2012
मन के आँगन में
तुमने अपनी ही
परिभाषाओं के
खींच दिये हैं
कंटीले तार
और फिर
करते हो इंतज़ार
कि ,
भर जाये आँगन
फूलों से .
हाँ , होती है
हरियाली
पनपती है
वल्लरी
पत्ते भी सघन
होते हैं
पर फूल
नहीं खिलते हैं ।
क्या तुमको
ऐसा नहीं लगता कि
मन का उपवन
अधूरा रह जाता है
और खुशियों का आकाश
हाथ नहीं आता है ।
81 comments:
मन के उपवन में फूल खिलने ही चाहिये.
अपनी परिभाषाओं के कंटीले तार काटकर
यह सम्भव होगा ?
वल्लरी (manjari)
पत्ते भी सघन
होते हैं
पर फूल
नहीं खिलते हैं
बबूल रोपने पर
आम कहाँ होते हैं !!
उम्मीदों की पूर्ती के लिए खाद और सिंचन भी तो मायने रखते हैं ... सोच लेने मात्र से क्या होगा !
बहुत सही..पर मानव की प्रवृति हैं सोचता अपने अनुरूप ही है..
फूलों बिना सूना लगता है उपवन.....तारों की बाड़ निकाल फेंकिये.....
सुन्दर रचना दी....
सादर
अनु
हाँ , होती है
हरियाली
पनपती है
वल्लरी
पत्ते भी सघन
होते हैं
पर फूल
नहीं खिलते हैं ।
सही कहा है ....फूल खिलने के लिए
स्नेह का खाद पानी जरुरी है
बहुत सुन्दर लगी रचना ...
मन उपवन है तो फूल तो खिलने ही चाहिए...सुन्दर रचना..आभार..
बहुत सुंदर रचना
क्या कहने
परिभाषाओं के कंटीले तार .फूल खिले भी कैसे !!
बिम्ब के माध्यम ने ख़ूबसूरती से समझाया !
हम्म ...कंटीली झाडियाँ..बस यही तो रोक देती हैं फूलों को खिलने से.पर लोग समझते हैं कि सुरक्षा के लिए लगा रहे हैं.क्या करिये.
गहन पंक्तियाँ.
बिना फूल के उपवन...बिल्कुल अच्छा नहीं लगेगा, कँटीले पौधे थोड़े कम ही रखे जाएँ तो उत्तम|
सच में बिना फूलों के उपवन अच्छा नहीं दिखता..
गहना भाव लिए रचना..
:-)
वाह ...
विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस पर देश के नेताओं के लिए दुआ कीजिये - ब्लॉग बुलेटिन आज विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस पर पूरी ब्लॉग बुलेटिन टीम और पूरे ब्लॉग जगत की ओर से हम देश के नेताओं के लिए दुआ करते है ... आपकी यह पोस्ट भी इस प्रयास मे हमारा साथ दे रही है ... आपको सादर आभार !
गहरे अहसास की एक कविता -एक उलाहना या फिर मनुहार !
मन के आँगन में
तुमने अपनी ही परिभाषाओं के खींच दिये हैं कंटीले तार और फिर करते हो इंतज़ार कि , भर जाये आँगन फूलों से .
कांटे तो मन के द्वार ही बंद कर देंगे ....तब तो ईश्वर भी अंदर नहीं आ सकते ....
गहन अभिव्यक्ति दी ....
हरियाली पनपती है वल्लरी पत्ते भी सघन होते हैं पर फूल नहीं खिलते हैं ।
बहुत सुन्दर बात कही है। फूल तो तब खिलते हैं जब हमारे विचार और प्रयास ऐसे होते हैं।
परिभाषा वाली कटीले बाड हटाये , हरी भरी पुष्प लदी फुलवारी पायें .
लगती है दीदी लगती है.. लेकिन आपकी कविता के भावों की हरियाली मनमोहक लगती है!और ऐसे में मन उपवन महक उठता है हमारा!!
मन के उपवन में फूल खिलते रहना चाहिये.
दृढ इच्छा शक्ती से अपना गुलसन मह्काइये,,,,,
RECENT POST: तेरी फितरत के लोग,
फूल खिलने के लिए एक विशेष प्रकार के हॉर्मोन की ज़रूरत पड़ती है। लेकिन उस हॉर्मोन को बनाने वाले प्रेरक तत्व अगर पर्याप्त मात्रा में न हों तो ऐसी स्थिति आनी लाजिमी है।
कविता में आपने इस खूबी से इन बातों को समोया है कि एक बेहतरीन रचना कहते हुए मुझे कोई हिचक नहीं हो रही।
पुष्प सदा ही,
और अधिक,
खिलते खिलते,
रह जाते हैं।
मन का उपवन ,बिना रोक-टोक मनमाना खिलता रहे!
गहन -गंभीर भावभीनी कविता
बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति .... गहरी बात कहती पंक्तियाँ
फूल खिलने ही चाहिये, फूलों बिना सूना है उपवन..........
क्या तुमको
ऐसा नहीं लगता कि
मन का उपवन
अधूरा रह जाता है
और खुशियों का आकाश
हाथ नहीं आता है ।
बहुत बहुत सुन्दर संगीता जी ! बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करती एक सार्थक रचना !
लोगों के पूर्वाग्रह ..स्व निर्मित परिभाषाएं ही तो है सारे फसाद की जड़ .....
बढ़िया अभिव्यक्ति , आपको शुभकामनायें...
सादर
हम अपने चारों ओर कटीले तारों का धेरा स्वयं निर्मित कर लेते हैं।
अनुभूतियां शब्दों में सहज प्रतिबिम्बित है।
जब भी चीज़ों को परिभाषाओं में ढालने की कोशिश होती है, सब कुछ अवरुद्ध सा हो जाता है.
बुत खूबसूरत पंक्तियाँ हैं.
मन के आँगन में
तुमने अपनी ही
परिभाषाओं के
खींच दिये हैं
कंटीले तार
और फिर
करते हो इंतज़ार
कि ,
भर जाये आँगन
फूलों से .
बहुत सच बात कही आपने संगीता जी . क्षमा चाहती हूँ बहुत दिनों से आपके ब्लॉग पर आना नहीं हो पाया।
Bahut dinon baad aapko padha...bada hee achha laga.
हाँ , होती है
हरियाली
पनपती है
वल्लरी
पत्ते भी सघन
होते हैं
पर फूल
नहीं खिलते हैं ।
क्या बात है संगीता जी ....
बहुत खूबसूरत ....
मन के आँगन में
तुमने अपनी ही
परिभाषाओं के
खींच दिये हैं
कंटीले तार
और फिर
करते हो इंतज़ार
कि ,
भर जाये आँगन
फूलों से .
क्या बात है संगीता जी ,,बहुत सटीक मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया है आप ने ,,,बधाई
क्या तुमको
ऐसा नहीं लगता कि
मन का उपवन
अधूरा रह जाता है
और खुशियों का आकाश
हाथ नहीं आता है ।
बेहद संवेदनशील रचना ………दिल के पास से गुजरती हुई
क्या तुमको
ऐसा नहीं लगता कि
मन का उपवन
अधूरा रह जाता है
और खुशियों का आकाश
हाथ नहीं आता है ।
बहुत सार्थक प्रस्तुति काँटों की छाँव में फूल कहाँ से खिलेंगे बहुत बधाई संगीता जी
मन के आँगन में
तुमने अपनी ही
परिभाषाओं के
खींच दिये हैं
कंटीले तार
और फिर
करते हो इंतज़ार
कि ,
भर जाये आँगन
फूलों से .
क्या बात है ... भावमय करते शब्द
मन की रहस्यात्मकता को प्रस्तुत करती सुंदर रचना !
बहुत सुंदर रचना, संगीता जी......
इच्छाओं के पुष्प हमेशा नहीं खिला करते...
बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति
क्या तुमको
ऐसा नहीं लगता कि
मन का उपवन
अधूरा रह जाता है
और खुशियों का आकाश
हाथ नहीं आता है । .....................
जी हाँ,ऐसा भी होता है कभी कभी, परन्तु ऐसे में मुझे अक्सर किसी का एक प्यारा शेर उम्मीद की नई किरण दिखाता हुआ याद आ जाता है .आप भी वो शेर देखिये :-
जब कभी हाथ से उम्मीद का दामन छूटा,
ले लिया आपके दामन का सहारा हमने।
har angle se kavita ko soch kar dekha aur paya kavita me nirasha ke put ke sath ummed wali nazer bhi hai. likhne wala jis bhaav bhoomi par utar kar kavita ka srijan karta hai us tak pathak shayad hi pahunch paye....lekin fir bhi apne dimag ke ghode to daudata hi hai so hamne bhi dauda diya aur lagta hai kavita jis bhaav-bhoomi par likhi gayi uske janm ka karan ek prayas n hone ki kami k falswaroop hona sambhav ho sakta hai. ki shayad aapas ke samvaad ki kami rahi hogi, vishay par saral hokar vishleshan nahi kiya gaya hoga ya samne wale ko apni baat kehne ka mauka n dekar sirf apne poorvagrahon ke tahat hi dusre ke bare me nirnay le liya gaya.
han lekin sach kaha ki
मन का उपवन
अधूरा रह जाता है
और खुशियों का आकाश
हाथ नहीं आता है ।
lekin kisi bhi karan ko itna astitv dekar to zindgi ko / rishto ko / sambandhon ko nahi jiya jata na ?
So beautiful!!
वाह!सरल तरीके से बड़ी बात समझा दिया आपने।
ये जो ये जो कंटीले तारों सी परिभाषायें हैं न ये ऐसी ही रहेंगी। इससे लिपटकर, लताएँ मित्रों को धोखा दे सकती हैं लेकिन ये तार कभी नहीं कटेंगे। हम कभी नहीं जान पाते कि हमारी परिभाषायें, हमारे आदर्श थोथे हैं। कभी जान भी गये तो मानते नहीं। मानने से हमारा अहंकार हमे रोकता है। जब मानेंगे नहीं तो काटेंगे कैसे? काटेंगे नहीं तो फूल उगेंगे कैसे? अपने भीतर के कंटीले तारों को पहचाने, अहंकार का भी समूल नाश हो और कोई सच्चा गुरू मिल जाये तो बात बने।
सभी पाठकों का आभार ...
@@ देवेन्द्र जी ,
कविता के सार तक पहुँचने के लिए आभार ।
यह त्रासदी हर घर की है ....अपने वर्चस्व में बंधे.....लोग.....क्यारिओं को अक्सर खुशबू और फूलों से वंचित रखते हैं ..और छोटी छोटी खुशियाँ बस दस्तक देती रह जाती हैं
मन के आँगन में
तुमने अपनी ही
परिभाषाओं के
खींच दिये हैं
कंटीले तार
और फिर
करते हो इंतज़ार
कि ,
भर जाये आँगन
फूलों से .
kya sunder likh diya aapne kitna sach hai ye ki kya kahun
rachana
सही बात कही आपने... मन के आँगन में कोई फूल खिले भी कैसे जब तक मन का उपवन अधुरा रहे।सुंदर प्रस्तुति।
सुन्दर भाव. सच में बाग लगाते हैं हम, पतझड़ भी आती है बस आती नहीं बहारें हैं.
di
bahut hi saty,man agar khali - khali sa ho to bhala fir koi fool kaise khil sakta hai man ke aangan me.
bahut hi gahre bhav samahit aapki is prastuti me.
shabdon ki sarlta ke saath gahnta ka tartamy jodne me aapko maharat hasil hai------
hardik naman ke saath
poonam
मन के आँगन में
तुमने अपनी ही
परिभाषाओं के
खींच दिये हैं
कंटीले तार
और फिर
करते हो इंतज़ार
कि ,
भर जाये आँगन
फूलों से .
इंसानी फितरत को सही शब्द दिए आपने
उम्मीद की डोर सदा दूसरे के हाथ में थमाने और उसे टूटते देखते रहने के सिवा कोई विकल्प नहीं है . बस..बहुत ही अच्छी लगी..
उम्मीद की डोर सदा दूसरे के हाथ में थमाने और उसे टूटते देखते रहने के सिवा कोई विकल्प नहीं है . बस..बहुत ही अच्छी लगी..
अधूरी अभिलाषाओं का संसार वैसे भी बहुत फैला हुआ होता हैं
bahut achchi lagi.....
कँटीले तार बाड़ पर ही ठीक लगते हैं. उपवन के भीतर कँटीले तार न ही हों तो अच्छा.
जी, हमारे स्वयं को आग्रह व खींची लकीरों प्यार की असीमता व अनंतमयता से हमें विमुख रखते हैं।सुंदर व गंभीर भाव लेखन।
उपवन में फूलों का भी बहुत महत्त्व है. जीवन चक्र में सभी का अपना अपना योगदान है.
बहुत ही उम्दा रचना|
सादर नमन |
मन के आँगन में
तुमने अपनी ही
परिभाषाओं के
खींच दिये हैं
कंटीले तार
और फिर
करते हो इंतज़ार
कि ,
भर जाये आँगन
फूलों से .
अभिलाषाएं /परिभाषाएं तुम्हारी ठीक सही पर नहीं खिलते हैं बंद हवा में फूल ,चाहिए उन्हें खुली धूप साफ़ हवा पानी .बढ़िया सूक्षम भाव जगत की रचना .
सुन्दर रचना
नेत्र खोल देने वाली कविता है यह । ज़िंदगी की सच्चाई को बयान करती है । इसे समझने के बाद पता चलता है कि चाहने के बाद भी मनुष्य को फूलों की जगह कांटे क्यों मिलते हैं ।
इतनी सुंदर और सटीक कविता लिखने के लिए साधुवाद ।
सच कटीले तारों के बीच मन का सुमन कभी नहीं खिल सकता!
..बहुत सुन्दर प्रस्तुति ...
Wow! what a wonderful thought and a beautiful poem! I loved it Sangeeta:)
सलाम। बहुत दिनों बाद ब्लॉग पर आया हूं। व्यस्तताओं और उलझनों में फंसा मन आपकीकविता में इस कदर उलझ गया कि खुद को भूल गया। बहुत ही अच्छी कविता। बधाई।
उम्दा प्रस्तुती।
आपकी पोस्ट पढ़ कर मख्मूर जी के शेर याद आगये...
कितनी दीवारें उठी हैं एक घर के दर्मियां
घर कहीं ग़ुम हो गया दीवारो-दर के दर्मिया
बस्तियां "मख्मूर" यूँ उजड़ी कि सेहरा हो गयीं
फासिले बढ़ने लगे जब घर से घर के दर्मिया.
कभी मेरे ब्लॉग पर भी आईये ...
http://rohitasghorela.blogspot.com/2012/10/blog-post_17.html
मनभावन, सरल शब्दों में सुन्दर रचना.
sundar rachna..saral shabdon me man ke bhavon ko utara hai aapne.
सहज भाषा में भावों से सजी सुन्दर रचना |
नई पोस्ट:- जवाब नहीं मिलता
बढ़िया अभिव्यक्ति ,सुन्दर कविता सादर बधाई।.
बहुत सुन्दर भाव लिए रचना .
sach kaha aapne ........yah pravarti to basi hui hai man me ........soch ko sarthak karna hoga , sarthak rachna sangeeta ji
बहुत सुन्दर भावपूर्ण अभिव्यक्ति...
मन का उपवन अधूरा रह जाता है और फूल नही खिलते खुशियों का आकाश हाथ नही आता .
वाह ।
बहुत ही अच्छी कविता |आभार
bahut acchi abhiwayakti ......sangeeta jee ..
बोया पेड़ बबूल का, तो आम कहाँ से होये!
मार्मिक!
ढ़
--
ए फीलिंग कॉल्ड.....
रचना अच्छी लगी।
yuvaam.blogspot.com
हम अपने चारों ओर कटीले तारों का धेरा स्वयं निर्मित कर लेते हैं। अनुभूतियां शब्दों में सहज प्रतिबिम्बित है।
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