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न्याय ....???

>> Monday, June 9, 2014


Bodies of two girls found hanging together

आज भी किसी पेड़ पर 
टंगा है एक शव 
भीड़ भी जुटी है भव्य 
हो रही है आपस में बत कुचनी 
किसकी होगी भला ये करनी 
दांत के बीच उंगली दबाये 
दृश्य देख रहे थे लोग चकराए 
किसका होगा ये  दुस्साहस
किसने ये जघन्य कर्म किया 
टांगना ही था पेड़ पर तो 
अंग भंग क्यों  किया 
मिडिया ने भी बात को 
कुछ इस कदर उछाला 
शर्मसार हो नेताओं को 
जवाबदार  बना  डाला ।
कहा नेता ने इसकी 
सी बी आई  जांच करायेंगे 
दोषी को  इस अपराध की 
ज़रूर सजा दिलाएंगे । 
न जाने कितनी  टंगी देह का 
इंतज़ार  इंतज़ार ही रह गया 
अभी तक तो किसी भी देह को 
न्याय नहीं मिला 
उठ गया है विश्वास अब 
कानून और  न्याय से 
इसी लिए आज न्याय कर दिया 
अपने हाथ से ।
भीड़ ये विभत्स दृश्य देख रही थी 
पेड़ पर आज मादा की नहीं , 
नर की देह थी । 
है  ये मेरी  कल्पना 
पर सच भी हो सकती है 
कोई  ज़ख़्मी औरत 
रण चंडी  भी  बन सकती है ।


Bodies of two girls found hanging together



37 comments:

गिरधारी खंकरियाल 6/09/2014 5:47 PM  

लाश नर की हो या मादा की, अपेक्षा तो न्याय की है, जो मिलता ही नही।

गिरधारी खंकरियाल 6/09/2014 5:48 PM  

लाश नर की हो या मादा की, अपेक्षा तो न्याय की है, जो मिलता ही नही।

रविकर 6/09/2014 6:29 PM  

सटीक प्रस्तुति -
आभार आदरेया -

संगीता स्वरुप ( गीत ) 6/09/2014 6:51 PM  

गिरधारी लाल जी
शुक्रिया आपकी टिप्पणी का । यहाँ बात नर और मादा देह से अलग है । कविता का मर्म न्याय न मिलना से ज्यादा कुछ है ।औरत के सब्र का इतना इम्तिहान न लो कि वो खुद क्रूर फैसले लेने पर कटिबद्ध हो जाए यदि ऐसा हुआ तो वो लोग जिनसे गलतियाँ हो जाती हैं ऐसे ही टंगे नज़र आयेंगे ।

ब्लॉग बुलेटिन 6/09/2014 8:26 PM  

पोस्ट के फॉन्ट बेहद छोटे आकार मे दिख रहे है ... कृपया फॉन्ट साइज़ बढ़ा लीजिये |
सादर |

shikha varshney 6/09/2014 8:55 PM  

अब शायद इसी न्याय की दरकार है. बहुत हुआ. आपकी कल्पना काश सच हो जाए बस एक बार. बहुत कुछ बदल जाएगा उसके बाद.
सटीक मर्मस्पर्शी कविता.

प्रतिभा सक्सेना 6/09/2014 9:58 PM  

अंतर तो नर और मादा देह का ही है.सारी शिकायतें और अपेक्षाएँ नारी देह से रहती आई हैं और अंततः पापिनी ,अपराधिनी भी वही .मुझे नहीं लगता स्त्री के मन और आत्मा का विचार कहीं होता हो !

Sadhana Vaid 6/09/2014 10:00 PM  

समुचित व सटीक न्याय तो यही होगा और होना भी चाहिए ! न्याय मिलने की आस में नारी और कितना ज़ुल्म सहेगी ! सब्र का बाँध जिस दिन टूट जाएगा ऐसा ही होगा ! सार्थक सृजन !

shalini rastogi 6/09/2014 11:13 PM  

मर्मस्पर्शी रचना !

रश्मि प्रभा... 6/09/2014 11:19 PM  

आखिर कब तक, कब तक चलेगा क्रम ?!

ANULATA RAJ NAIR 6/10/2014 6:58 AM  

सच...न्याय का इंतज़ार कब तक...
अब तो खुद ही तलवार उठा ले स्त्रियाँ :-(
बेहद दुखद है...

मार्मिक अभिव्यक्ति.

सादर
अनु

Vaanbhatt 6/10/2014 7:10 AM  

बहुत ही सार्थक प्रस्तुति...

वाणी गीत 6/10/2014 8:10 AM  

और वह "काली" हो जाती है ! जुल्म जब हद से बढ़ जाए तो यह भी घटित हो सकता है !

अनामिका की सदायें ...... 6/10/2014 9:12 AM  

kanoon jab andha behra ho jaye to vo din bhi door nahi ki aisi kalpnaaye charitaarth ho jayen.

prabhaavshali prastuti.

डॉ. मोनिका शर्मा 6/10/2014 10:51 AM  

समसामयिक और मन को उद्वेलित करती रचना

vandana gupta 6/10/2014 12:31 PM  

अब इसी न्याय की दरकार है

मन के - मनके 6/10/2014 12:38 PM  


अब ये खबरें अधिक विचलित भी नहीं करती.
क्या करें--देह एक व्यापार है--एक साधन है-
और कुछ नहीं.
बहुत कुछ छप चुका है--लिख भी बहुत गया है--
मोमबत्तियाम लिये जनपथ भी रोंदे गये???
कहीं से कोई आवाज आई---राहत आई???
शर्मसार हैं शर्म करने वाले--और कुछा भी नहीं.

Asha Joglekar 6/11/2014 1:01 AM  

उठ गया है विश्वास अब
कानून और न्याय से
इसी लिए आज न्याय कर दिया
अपने हाथ से ।

सामयिक प्रस्तुति।

Anita 6/11/2014 4:04 PM  

मार्मिक !

सदा 6/13/2014 12:07 PM  

सटीक मर्मस्पर्शी कविता.....

Asha Joglekar 6/14/2014 7:34 PM  

संगीता जी बहुत धन्यवाद मेरे ब्लॉग पर आप आईं और प्रतिक्रिया भी दी। हम दिल्ली में वसंत कुंज सेक्टर ए पॉकेट सी के ७०७ नंबर के फ्लेट में रहते हैं। नोवेंबर से एप्रिल तक वहीं होते हैं फिर बच्चों के पास यू एस में अ

Onkar 6/14/2014 8:28 PM  

सटीक रचना

Kailash Sharma 6/15/2014 2:53 PM  

बहुत सटीक और सार्थक प्रस्तुति...अगर हालात ऐसे ही रहे तो वह दिन दूर नहीं जब यह करने को नारी मज़बूर हो जायेगी...

दिगम्बर नासवा 6/19/2014 12:13 PM  

काश की औरत चंडी बन जाए ... ख़ास कर ऐसे दरिंदों के लिए तो बन ही जाना चाहिए ... पुरुष खेल रहा है सदियों से चला आ रहा खेल ... समाज कुछ कर नहीं पाता क्योंकि पुरुष-प्रधान समाज है ... क़ानून व्यवस्था फेल है ... उद्वेलित करती है रचना ...

अशोक सलूजा 6/19/2014 9:36 PM  

रणचंडी के रूप की ज़रूरत है आज .....
शुभकामनायें!

Madhuresh 6/21/2014 8:35 PM  

समाज में ऐसे पापी पैदा हो गए हैं ये सोचकर ही दिल सिहर उठता है. किसी रणचंडी का प्रादुर्भाव नितांत आवश्यक है।

Satish Saxena 6/21/2014 9:54 PM  

सहमत हूँ इस दर्दनाक अभिव्यक्ति से ! मंगलकामनाएं आपको !

shephali 6/27/2014 4:27 PM  

न्याय व्यवस्था इनको देह मानती है ना, जिस दिन इंसान मानने लगेगी तब शायद न्याय की उम्मीद बढ़ जाये

शिवनाथ कुमार 6/28/2014 2:04 PM  

औरतों को सम्मान और सुरक्षा दोनों जरुरी है
वरना उसे चंडी का रूप लेना को बाध्य होना ही पड़ेगा
सादर !

डॉ. जेन्नी शबनम 7/02/2014 7:37 PM  

हर स्त्री को रणचंडी बनना ही पडेगा, और कोई विकल्प बचा ही नहीं किसी के भी पास. काश! कि सबमें थोड़ी थोड़ी ही सही अपने अधिकार के लिए लड़ने की ताकत आ जाए...

अज़ीज़ जौनपुरी 7/28/2014 5:02 PM  

रणचंडी ही बनने की ज़ुरूरत है

dr.sunil k. "Zafar " 7/31/2014 2:33 PM  

सत्य कहा हैं..........
सुन्दर प्रस्तुति

सविता मिश्रा 'अक्षजा' 9/06/2014 10:42 PM  

bahut sundar दी ..न्याय तो ऐसा ही होना चाहिय पर फिर जंगल राज कायम हो जायेगा क्योकि हर दूसरी स्त्री प्रतिशोध लेने को आतुर दिखेगी ....सादर नमस्ते दी

कविता रावत 9/11/2014 11:56 AM  

सब्र की भी हद हो जाय तो फिर आर-पार का रास्ता ही सबके बेहतर ..
बहुत बढ़िया

प्रेम सरोवर 9/23/2014 8:32 PM  

भावप्रवण रचना। धन्यवाद।

कविता रावत 9/30/2014 7:49 PM  

नवरात्र की शुभकामनायें!

yashoda Agrawal 12/16/2019 10:46 AM  

आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में मंगलवार 17 दिसम्ब 2019 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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