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वृत्त

>> Sunday, June 28, 2009




जब भी

करना चाहा है

अपनी सोच को

विस्तृत ,

तो मैं

उस सोच के

चारों ओर

एक वृत्त बना लेती हूँ ,

और ध्यान लगा देती हूँ

उस वृत्त के केंद्र पर।

केंद्र जितना सूक्ष्म

होता जता है

मेरी सोच का दायरा

उतना ही

विस्तार पाता है ।

और फिर

वो वृत्त

जिसमें मैंने बाँधा था

सोचों को

ना जाने

कहाँ चला जाता है...

तब मेरा मन

कपास के फूल की तरह

उड़ता चला जाता है...

गंतव्य

>> Wednesday, June 24, 2009



हर प्राणी की

आखिरी मंजिल

मौत है

ये सभी जानते हैं ।

फिर भी ना जाने क्यों ?

हम अपने गंतव्य

स्वयं ही

चुनना चाहते हैं ।

क्या इंसान

अपने चुने

गंतव्य पर पहुँच

संतुष्ट हो पाता है ?

या कि

वो सोचता है

क्या इस मंजिल से

उसका कोई नाता है ?

इसी ऊहापोह में

ज़िन्दगी क्षण - क्षण

आगे बढ़ती जाती है

और न चाहते हुए भी

अपने गंतव्य तक

पहुँच जाती है ।

जहाँ से न आगे

जाया जा सकता है

और न ही

पीछे आया जा सकता है

और फिर

मृत्यु के आलिंगन को ही

गंतव्य मान लिया जाता है.....

लोकतंत्र का उत्सव

>> Sunday, June 21, 2009




लोकतंत्र का उत्सव


मना रहे इस बार


जनता नेताओं से


खाए बैठी है खार ।


जनता के हाथ में


आ गया एक हथियार


जूते से हैं लैस सब


चलाने को तैयार ।


नेताजी अब सोच रहे


कैसे होगा बेडा पार


भरी सभा में डर रहे


क्या रखें अपने विचार ?


जनता से कर धोखा


और करके अत्याचार


आज खड़े हैं आ कर वो


जूते का पहने हार ।


त्रस्त हुई अब जनता


नेताओं पर कर विश्वास


पर नेताजी घूम रहे


ले कर जीत की आस ।


कोई नहीं है ऐसा नेता


जो सुने जनता की पुकार


जनता तो ठगी ही जायेगी


आए कोई भी सरकार ॥

क्यों लिखती हूँ ?



मन के भावों को

कैसे सब तक पहुँचाऊँ

कुछ लिखूं या

फिर कुछ गाऊँ ।

चिंतन हो

जब किसी बात पर

और मन में

मंथन चलता हो

उन भावों को

लिख कर मैं

शब्दों में

तिरोहित   कर जाऊं ।


सोच - विचारों की शक्ति

जब कुछ

उथल -पुथल सा

करती हो

उन भावों को

गढ़ कर मैं

अपनी बात

सुना जाऊँ

जो दिखता है

आस - पास

मन उससे

उद्वेलित होता है

उन भावों को

साक्ष्य रूप दे

मैं कविता सी

कह जाऊं.

दल - दल कुंठाओं का



उम्मीद -,

जन्म देती है

कुंठाओं को

और कुंठाएं

बिखेर देती है

रिश्तों को ।

जब तक

समझ आता है

ये बिखराव

हो जाती है देर

और फिर नयी कुंठा

जन्म ले लेती है।

यूँ ही

कुंठाओं के

दल - दल में

घिर जाता है इंसान ।

और जो रिश्ते

सांस लेते थे

उसके अन्दर

धंस जाते हैं

दल - दल में॥

प्रेम



प्रेम तो

अनमोल है ।

तो मूल्य

कैसे लगाया जाये?

उम्मीद कर देती है

कत्ल प्रेम का

और चाहत

छीन लेती है सुकून

ख्वाहिशों को

इतना न बढाओ

कि प्रेम की

ख्वाहिश ही

ख़त्म हो जाए ।


प्यार में

इल्जाम नहीं होता

और न ही ये

हाथों की लकीरों में

मिलता है

बस चाहिए इसे केवल

दिल का एक कोना

जहाँ ये

भर -पूर खिलता है ।

जब तक सांस है

तब तक

प्रेम का नाम है

फिर भी न जाने क्यूँ ?

इनकी वफाई पर

इल्जाम आता है ।

गर प्यार है तो

कुछ हासिल करने की

चाहत न करो और

अपने प्यार को कभी

गुनाह का नाम न दो...

अपाहिज



वो मानव

जिसका कोई

अंग भंग हो

आम भाषा में

अपाहिज कहलाता है

पर मुझे नहीं लगता

कि भंगित अंग होने से

अपाहिजता का

कोई नाताहै ।

मैंने देखे हैं

ऐसे इंसान

जिनके नेत्र नहीं

वो सूंघ कर

काम चलाते हैं

जिनके हाथ नहीं

वो पैरों को हाथ बनाते हैं

और पैर विहीन

अपने कर से

चल कर जाते हैं ।

जिनके हाथ - पांव नहीं

वो धड को

इस्तमाल में लाते हैं।

मैंने पैर की उंगली में

फंसे ब्रश से

चित्रकारी करते देखा है

एक हाथ से

सलाइयों पर

स्वेटर बुनते देखा है ।

फिर कैसे मान लें

किऐसे लोग

अपाहिज होते हैं ?


अपाहिज हैं वो लोग

जो मात्र सोच की

बैसाखी ले कर चलते हैं

और अपनी

अकर्मण्यता को

अपनी मजबूरी कहते हैं॥

झौंके हवा के





छाए रहे बादल


मेरे आसमां में


सोचा तो था


कि बरस जायेंगे


उमड़ - घुमड़ कर


पर हवा के


तेज़ झौंके


उडा ले गए


उन जलद के टुकडों को


और बरस गए


किसी और आँगन में


जहाँ बारिश में भीगते


बच्चों की किलकारियां


गूंज रहीं थीं...

सूना आँगन


मैंने


अरमानों के आसमां में

ख़्वाबों के तारे
टांग दिए थे

जिनको

सूरज की रोशनी से

चमक मिलती थी

आज लग गया है

ग्रहण और

खो गयी है चमक ।

चाँद भी आज

निकला नहीं है ।

आँगन भी मेरा

सूना हो गया है

उन तारों के साथ ,

और रह गया है बस

मेरा खाली हाथ..

हमारी वाणी

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