वृत्त
>> Sunday, June 28, 2009
जब भी
करना चाहा है
अपनी सोच को
विस्तृत ,
तो मैं
उस सोच के
चारों ओर
एक वृत्त बना लेती हूँ ,
और ध्यान लगा देती हूँ
उस वृत्त के केंद्र पर।
केंद्र जितना सूक्ष्म
होता जता है
मेरी सोच का दायरा
उतना ही
विस्तार पाता है ।
और फिर
वो वृत्त
जिसमें मैंने बाँधा था
सोचों को
ना जाने
कहाँ चला जाता है...
तब मेरा मन
कपास के फूल की तरह
उड़ता चला जाता है...
8 comments:
वाह.......... नए तरीके से लिखी हुयी सजीव रचना......... सोच का दायरा ........... फिर केन्द्रित होकर ओका दायरा बढ़ता जाता है........... सत्य लिखा
"जब भी करना चाहा है अपनी सोच को विस्तृत ,तो मैं उस सोच के चारों ओर एक वृत्त बना लेती हूँ ,और ध्यान लगा देती हूँ उस वृत्त के केंद्र पर"
इन पंक्तियों का जवाब नहीं...
रचना बहुत अच्छी लगी....बहुत बहुत बधाई....
ाआदरणीया संगीता जी,
बहुत बढिया दर्शनिक भावों वाली रचना के लिये बधाई स्वीकार करें ।
पूनम
अत्यंत गूढ़ अर्थ संजोये हुए है आप की रचना !
उत्कृष्ट कविता !
शुभकामनाएं !!!
आज की आवाज
aap ke ahsas ko salam
bahut badhiya likha aapne
bahut hee gaharee soch bahut hee achee kavita
Anil
जिस तरह जौहरी हीरे को तराशता है,उसी तरह आप हर बढ़ते कदमन के संग शब्दों को तराशते हुए भावनाओं में पिरो रही हैं..........
Sangeeta ji..ek daarshnik soch darshati hui apki ye rachna satye ka marg dikhati hai..
such kaha aapne jb ham apni soch ko itna vistrit kar lete hai ki kender bindu suksham aur vrit ka ant ho jata hai to her asambhav sambhav ho jata hai aur man kapas k phool ki tareh halka ho jata hai, sara bojh man se hat jata hai..
kya pakad hai aapki zindgi k falsfo per...bahut gehri soch.badhayi.
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