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गंतव्य

>> Wednesday, June 24, 2009



हर प्राणी की

आखिरी मंजिल

मौत है

ये सभी जानते हैं ।

फिर भी ना जाने क्यों ?

हम अपने गंतव्य

स्वयं ही

चुनना चाहते हैं ।

क्या इंसान

अपने चुने

गंतव्य पर पहुँच

संतुष्ट हो पाता है ?

या कि

वो सोचता है

क्या इस मंजिल से

उसका कोई नाता है ?

इसी ऊहापोह में

ज़िन्दगी क्षण - क्षण

आगे बढ़ती जाती है

और न चाहते हुए भी

अपने गंतव्य तक

पहुँच जाती है ।

जहाँ से न आगे

जाया जा सकता है

और न ही

पीछे आया जा सकता है

और फिर

मृत्यु के आलिंगन को ही

गंतव्य मान लिया जाता है.....

2 comments:

दिगम्बर नासवा 6/26/2009 3:23 PM  

सच कहा है...............अंतिम पड़ाव तो निश्चित ही है सबका.............. पर छोटे छोटे लम्हों को पड़ाव मान कर जीवन जीना भी तो सार्थक करता है जीने को.......... सुदर और गहरा लिखा है .......

अनामिका की सदायें ...... 7/06/2009 11:59 AM  

फिर भी
ना जाने क्यों ?
हम अपने गंतव्य
स्वयं ही
चुनना चाहते हैं .
क्या इंसान
अपने चुने
गंतव्य पर पहुँच
संतुष्ट हो पाता है ?
- beshak maut hi gantavye hai her zindgi ka..lekin iska matlab ye to nahi ki insan us gantavye k intzaar me hath pe haath rakh k baitha rahe...uske papi pait ka sawal hai bhai

इसी ऊहापोह मैं
ज़िन्दगी क्षण - क्षण
आगे बढ़ती जाती है
और न चाहते हुए भी
अपने गंतव्य तक
पहुँच जाती है .

- ab ye to ending hai...aur universal truth hai...sab ne yaha tak pahuchna hi hai.

जहाँ से न आगे
जाया जा सकता है
और न ही पीछे
आया जा सकता है
और फिर
मृत्यु के आलिंगन को ही
गंतव्य मान लिया जाता है.....

marta kya na karta...maanNa hi padta hai ji mrityu ko hi gantavye..

sorry sangeeta ji meri tippani kuch pareshan kar rahi ho to..
aap ka likha ek dam seedha socho per prahaar karta hai..aur abhi apun damaag per jyada zor daalna nahi chaahta..

ok bye take care..aur haaan is acchhi rachna k liye badhayi..

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