विषधर
>> Thursday, September 22, 2011
शहरी हवा
कुछ इस तरह चली है
कि इन्सां सारे
सांप हो गए हैं ,
साँपों की भी होती हैं
अलग अलग किस्में
पर इंसान तो सब
एक किस्म के हो गए हैं .
साँप देख लोंग
संभल तो जाते हैं
पर इंसानी साँप
कभी दिखता भी नहीं है ..
जब चढ़ता है ज़हर
और होता है असर
तब चलता है पता कि
डस लिया है किसी
मानवी विषधर ने
जितना विष है
इंसान के मन में
उसका शतांश भी नहीं
किसी भुजंग में
स्वार्थ के वशीभूत हो
ये सभ्य कहाने वाले
पल रहे हैं विषधर
शहर शहर में .
77 comments:
अगर आपकी उत्तम रचना, चर्चा में आ जाए |
शुक्रवार का मंच जीत ले, मानस पर छा जाए ||
तब भी क्या आनन्द बांटने, इधर नहीं आना है ?
छोटी ख़ुशी मनाने आ, जो शीघ्र बड़ी पाना है ||
चर्चा-मंच : 646
http://charchamanch.blogspot.com/
सच कहा है ... इंसान तो सांप से भी १० कदम आगे मीकल गया है ... और इसका विष पड़ता ही जा रहा है ...
यह मानवी विषधर ... शहर-शहर में बसे हुए हैं ..गहन भावों के साथ सार्थक व सटीक लेखन ।
sach hai ,insaan swaart ke liye kuchh bhee kar rahaa hai
एक सशक्त रचना संगीता जी ! सच में सांप को देख कर तो सतर्क हुआ जा सकता है लेकिन उन साँपों से कैसे बचा जाये जो इंसानी चेहरों का मुखौटा चढ़ाए डसने आते हैं और इतने विषैले होते हैं कि उनके काटे का कोई इलाज भी नहीं होता ! कितना मुश्किल है इन्हें पहचानना ! बहुत ही सार्थक एवं जीवंत रचना ! बधाई स्वीकार करें !
सांप रो रहा है...इन्सान सा वो नहीं ! वह ज़हरीला है , तो लोग एहतियात बरतते ही हैं , पर इन्सान - वह तो पल पल रंग बदलता है
आपकी कविता ने अज्ञेय की कविता याद दिला दी। जिसमें वे कहते हैं कि ये सांप तुम शहर कब गए थे, जहां से यह डसना सीखकर आए।
आपकी कविता पढ़कर एक सांप नाराज हो गया....
बार-बार आदमी से हमारी तुलना कर के हमारा मजाक क्यों उड़ाया जाता है। क्या एक सांप कभी दूसरे सांप को काटता है..?
आपकी कविता पढ़कर एक सांप नाराज हो गया....
बार-बार आदमी से हमारी तुलना कर के हमारा मजाक क्यों उड़ाया जाता है। क्या एक सांप कभी दूसरे सांप को काटता है..?
इंसानी विषधर से बचना और पहचानना ही मुश्किल है ……………बहुत गहरी बात कहती एक सशक्त अभिव्यक्ति।
ना जाने कितने अश्वसेन, कितने विश्रुत विषधर भुजंग
बढ़ा रहे शोभा कुटिल ह्रदय की, जैसे वो उनका हो निषंग
ताक में रहता है वो , कब छिड़े महाभारत जैसा कोई प्रसंग
मुझे ये पंक्तियाँ याद आई .
वर्तमान का यथार्थ है ये ,काश ये मिथ्या होता तो ये दुनिया ही खूबसूरत हों जाती सही अर्थों में ...
गहन भावों के साथ सार्थक व सटीक लेखन| धन्यवाद|
नि:शब्द करती है आपकी हर रचना
दी ! वैसे आज की तस्वीर ही सब कुछ कह रही है :) कविता की जरुरत नहीं थी .
पर मिल गई तो अब उसकी तारीफ़ में शब्द नहीं मिल रहे हैं.
वाह दी... बहुत खूब....
अज्ञेय जी याद आ गए...
"सांप तुम सभ्य तो नहीं हुए होगे
शहर में बसना भी नहीं आया
फिर यह डसना कहाँ से सीखा
विष कहाँ से पाया?"
सशक्त रचा है आपने...
सादर....
बिलकुल सही लिखा है |
अवधी के सिद्ध रचनाकार/कवि स्व० विश्वनाथ सिंह 'विकल' की पंक्तियाँ बरबस ही याद आ रही हैं ..........
'जिनिगियव पै कर बा , मौतियव पै कर बा |
न यहरै गुजर बा , न वहरै बसर बा |
इ नाहक मा बदनाम , विषधर बेचारे ,
मुला आदमी के न काटे जहर बा |'
पल रहे हैं विषधर
शहर शहर में...
बहुत सही सटीक अभिव्यक्ति...आभार
संगीता दी बहुत ही गहरे भाव हैं पर कहीं सांप बुरा न मान जाये डरती हूँ
पल रहे हैं विषधर शहर- शहर में ...
या यूँ कहें घर- घर में,
डसने में कोई समझौता या लिहाज़ नहीं करते ये इंसानी विषधर ! ना रिश्तों का , ना प्रेम का!
सत्य वचन!
सच में आज की वास्तविकता यही है !
किन्तु सांप को माफ़ किया जा सकता है
क्योंकि यह उसकी प्रकृति है !
सभी पाठकों का आभार ..
@@ राजेश जी ,
आपने सही कहा है ..यह रचना अज्ञेय जी की इन्हीं पंक्तियों पर ही आधारित है ..आभार
यथार्थ को सटीकता से बयान करती है यह कविता।
सादर
गहन भावों के साथ सार्थक व सटीक बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति...
मानव तो कुछ क्षेत्रों में महाविषधर को भी मात करता है।
कमाल का ओब्ज़र्वेशन है संगीता दी!
अब तो इतने साँप हो गए हैं हर तरफ कि पता लगाना मुश्किल हो गया है.. बस एक शुभ संकेत यही है कि यह समाज कुछ चन्दन से शीतल मनुष्यों से भी सुवासित हैं, जिनपर विष नहीं व्यापता!!
आभार दी!
sach kaha aapne saamp ka man me vichar aate hi ek dar aa jata hai lekin insan to bahuroopiya hota hai jis se uski pehchaan bhi mushkil hai. aapki bejod soch ka ek namuna he ye rachna bhi.badhayi.
जितनी सुन्दर रचना!
उतना ही सटीक चित्र!
बहुत ही सही कहा....
स्वार्थ के वशीभूत हो ,ये सभ्य कहाने वाले.....
आज की रचना सचमुच नि:शब्द कर गई.इसे पढ़ कर हर एक के जेहन में डस कर जानेवाले बहुत से अपने, बहुत याद आये होंगे.
* आपके घर के बगल में बैठकर यह टिप्पणी लिखना किसी सर्पिली हरक्त से कम नहीं। दो दिन तक यहीं कुंडली मारे रहूंगा।
** लगता है आपने मेरे मन की बातें लिख दी हों।
*** इस कविता को पढने के बाद अज्ञेय की बरबस याद तो आ ही जाती है। कई मित्रों ने कविता भी कोट कर ही दी है, मेरा काम आसान हो गया है।
आदमी के भीतर का ज़हर सबसे ज़्यादा दाहक होता है - एकदम लाइलाज!
बढिया कविता... अज्ञेय जी की याद में ॥
निशब्द करती सशक्त रचना....
बिल्कुल सटीक रचना एक बार को
साँप का काटा पानी पी सकता है
पर इंसानी साँप का काटा पानी भी
नही पी सकता।
आदमी साँप का बाप है.
पल रहे हैं विषधर शहर शहर में। अजी पल रहे हैं विषधर हर आस्तीन में। बहुत अच्छी रचना।
Sunder rachna.
Manav ke bheetar palnewala zahar behad ghatak hai.
bhaut hi sundar...
सही कहा इंसानी सापों से बच पाना नामुमकिन है
यथार्थवादी रचना
bahot achche......
बहुत ही उम्दा रचना |
मेरे ब्लॉग में भी आयें-
**मेरी कविता**
और डँस भी रहे हैं..सशक्त रचना |
सशक्त कविता
देवेन्द्र पाण्डेय से पूरी तरह सहमत हूँ
bahut sahi kaha aapne :)
यह इंसानी जगत के लिए बहुत विचित्र और त्रासद है जब हम उनकी तुलना सांप,कुत्तों आदि से करते हैं,लेकिन इसके अलावा शायद विकल्प भी नहीं बचे हैं !हाँ,आपकी कविता से इंसान तो नहीं पर कुछ सांप ज़रूर अपना ज़हर नाराज़ हो जायेंगे,बकौल देवेन्द्र जी !!
सही कहा है आपने...
सांप के ज़हर का तोड़ तो मिल भी जाता है, अलेकिन इंसान के ज़हर का तोड़ कहां से लाएं...
इंसानी साँपों पर! अच्छा। पढ़ा था कभी…छिपकली(बिछमतिया) के सिर में, शायद बिच्छू के पूँछ में, सर्प के दाँत में विष होता है…लेकिन दुर्जनों के हर अंग में विष होता है…
आद संगीता जी,
सामयिक तथा वातावरण को प्रदुषण मुक्ति से युक्त "विषधर" जैसी रचना आज की आवश्यकता है...
shaandar prastuti ! pal rahe hain wishdhar ab shahar-shahar me . Haqeeqat bayan karti kawita. meri badhai sweekar karein !
waaaaahhh...
tremendous...
ati-uttam...
kitna sahi kaha hai aapne...
जितना विष है
इंसान के मन में
उसका शतांश भी नहीं
किसी भुजंग में
स्वार्थ के वशीभूत हो
ये सभ्य कहाने वाले
पल रहे हैं विषधर
शहर शहर में .
आज का सत्य यही है ।
sangeeta di
apne bhavon ko ek anuthe tareeke se sajane me to aapko maharat hasil hai.har panktiyan aaj ke sach ko darshati hain .bahut hisa sahi likha hai aapne ye insaan rurpi saanp kab das le pata hi nahi chalta .saanp ke jahar ko to utaaraa ja sakta hai par insaani saanp------------?
bahut hi gahan vishhleshhan
badhai
sadar naman
poonam
जितना विष है
इंसान के मन में
उसका शतांश भी नहीं
किसी भुजंग में
यही है कटु यथार्थ।
आदमी की जुबान भी जहरीली हो गई है।
गहरे भाव और अभिव्यक्ति के साथ बहुत ख़ूबसूरत रचना लिखा है आपने! सटीक रचना!
जाकिर जी के सर्प संसार ब्लॉग पर क्या इन साँपों की व्याख्या भी होगी ?
जितना विष है
इंसान के मन में
उसका शतांश भी नहीं
किसी भुजंग में
स्वार्थ के वशीभूत हो
ये सभ्य कहाने वाले
पल रहे हैं विषधर
शहर शहर में .
यथार्थ का काव्यमय सुन्दर वैचारिक प्रस्तुतिकरण...
पर इंसानी साँप
कभी दिखता भी नहीं है ..
जब चढ़ता है ज़हर
और होता है असर
तब चलता है पता कि
डस लिया है किसी
मानवी विषधर ने
सच की तस्वीर दिखाती धारदार कटाक्षमय रचना...
इंसान के मन में
उसका शतांश भी नहीं
किसी भुजंग में
तिस पर तुर्रा यह कहत ये विश्बीज़ -नारी कि झाईं पडत अंधा होत भुजंग .बहुत गहरा व्यंग्य .शहर का दंश ,शहरीपन का ज़हरीला पन समेटे है इस रचना का कैनवास .
आस्तीन वालों से बचना तो और भी मुश्किल है...
इंसान के जहर का कोई मुकाबला है , मरने के बाद भी दर्द देता है !
शुभकामनायें आपको !
adarneey agyeya ji ki bhi ek rachna kuch isi tareh hai...yaad to nahi kintu bhav yahi hain ki hey vishdhar tum to kabhi shaher mei rahe nahi to dasna kahan se seekha....vish kahan se aya?
sahi kaha aapne ki insani vishdhar ko to pehchanna bhi kathin hai..
विषधर मानव विश्वास मे लेकर डसता है इसलिये जहर भी सीधे हृदय मे फ़ंसता है
सुन्दर प्रस्तुति, बधाई,
विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
जितना विष है
इंसान के मन में
उसका शतांश भी नहीं
किसी भुजंग में
....बहुत सटीक अभिव्यक्ति..गहन भावों की बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति..आभार
♥
आपको सपरिवार
नवरात्रि पर्व की बधाई और शुभकामनाएं-मंगलकामनाएं !
-राजेन्द्र स्वर्णकार
आधुनिक मानव का सशक्त चित्रण । देवेन्द्र पाण्डेय जी का सवाल बङा वाजिब लगा ।
इंसान की सांप से तुलना बहुत अच्छी लगी |अच्छी और सारगर्भित रचना |
इस पावन पर्व पर हार्दिक शुभ कामनाएं |
आशा
बहुत सुन्दर रचना !
बहुत ही सामयिक रचना संगीता जी, आप की कविता पढ़ कर कुछ याद आ गया.. आप के साथ बाँटना चाहती हूँ...
चोट का निशान कहीं नहीं फ़िर भी ये सांप मर गया कैसे
जरूर इसने किसी आदमी को डस लिया होगा
manju
यथार्थ उकेर दिया रचना में...
पल रहे हैं विषधर
शहर शहर में .
बेहद करीबी रचना ..
aadhunik paristhitiyon par sateek kavita
इंसान के भीतर पल रहे भुजंगो को देख पाना वास्तव में बहुत कठिन होता है...वर्तमान परिपेक्ष में सटीक ब्यंग करती सार्थक रचना... शुभकामनायें !!
स्वार्थ के वशीभूत हो
ये सभ्य कहाने वाले
पल रहे हैं विषधर
शहर शहर में .
या शायद ...
ये अब तो किसी न किसी बहाने
घुस जाते हैं हर घर में
बहुत खूब
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 30 अक्टूबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
प्रभावशाली रचना - - नमन सह।
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