मोह से निर्मोह की ओर
>> Friday, July 21, 2017
मोह से ही तो
उपजता है निर्मोह
मोह की अधिकता
लाती है जीवन में क्लिष्टता
और सोच हो जाती है कुंद
मोह के दरवाज़े होने लगते हैं बंद ।
हम ढूँढने लगते हैं ऐसी पगडण्डी
जो हमें निर्मोह तक ले जाती है
धीरे धीरे जीवन में
विरक्तता आती चली जाती है
मोह की तकलीफ से गुज़रता
इंसान निर्मोही हो जाता है
या यूँ कहूँ कि इंसान
मोह के बंधन तोड़ने को
मजबूर हो जाता है ।
संवेदनाएं रहती हैं अंतस में
पर ज़ुबाँ मौन होती है
प्रश्न होते हैं चेहरे पर
और आँखें नम होती हैं
बीतते वक़्त के साथ
खुश्क हो जाती हैं आँखें
और चेहरा भावशून्य हो जाता है
ऐसा इंसान लोगों की नज़र में
निर्मोही बन जाता है ।
45 comments:
सही कहा आपने, जीवन कुछ इसी तरह मोह से निर्मोह की यात्रा पर चल पडता है, बहुत शुभकामनाएं.
रामराम
#हिन्दी_ब्लॉगिंग
इंसान के मोही से निर्मोही बनने की संक्षिप्त यात्रा को प्रभावी शब्दों में बयान किया गया है। समय के साथ परिवर्तन भावों-स्वभावों में भी होते हैं। सुन्दर रचना।
ओह ,
मार्मिक अभिव्यक्ति !
आप के लफ़्ज़ों ने कई दिलों के जस्बात
बयां कर दिए।
स्वस्थ रहें👌👌👍
शुभ प्रभात दीदी
सादर नमन
मोह और निर्मोह को
सरलता से परिभाषित किया है आपने
सादर
#हिन्दी_ब्लॉगिंग
समय इंंसान को सब कुछ सिखा देता हैं। सुंदर अभिव्यक्ति।
बहुत सुन्दर
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " "कौन सी बिरयानी !!??" - ब्लॉग बुलेटिन , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
कितना मोह करता है इंसान लेकिन एक दिन सबका मोह यहीं धरा का धरा रह जाता है
बहुत सुन्दर रचना
मोह और विरक्ति? संसार में परस्पर विरोधी गुण पूरक रूप में उपस्थित हैं ( दुर्गा सप्तशती में या देवी सर्वभूतेषु में देखिये),
दोनो के सामंजस्य बिना जीवन का निस्तार नहीं .
जो निर्मोह आँखों में शून्यता भर दे शायद वह असली वैराग्य नहीं..संत कहते हैं वैराग्य से कौन सा सुख नहीं मिलता..
चित्त की यही गति होत है मोह के ठेस से । अति सुंदर ।
ऐसे इंसान दूसरों की नज़र में निर्मोही बन जाता है ... पर ये भी सच है की वो निर्मोही नहीं हो पाता ... असल निर्मोह होना तो जीवन के द्वेष, मोह, को त्यागना होता है ... किसी से द्रोह न रखना ... सबको प्रेम करना ही निज को मोह से दूर करना है ... बहुत ही गहरी भावाव्यक्ति है ...
समय का फेर मन की दशा दिशा भी बदलता ही है
मोह के जंगल से ही गुजरती है निर्मोह और विरक्ति की पगडंडी.... बहुत गहन और प्रभावी अभिव्यक्ति...
waah bahut khoob behtareen rachna
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एक दिन सबका मोह यहीं धरा का धरा रह जाता है
बहुत अच्छी तरह समझााई है आपने संगीता जी , मोह से निर्मोह की यात्रा...
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 20 दिसंबर2017 को लिंक की गई है.................. http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
बहुत प्यारी रचना
आदरणीय संगीता जी -- बहुत ही सरल शब्दों में आपने मोहग्रस्त इन्सान के निर्मोही कहे जाने की कथा को कह दिया | अनुपम दर्शन है ये जीवन का | बहुत ही अच्छा लिखा आपने | सादर
मोही से निर्मोही होने तक का सफ़र ख़ूबसूरती से बयान करती प्रभावी रचना. बधाई एवं शुभकामनायें.
बहुत ही अच्छा लिखा है आपने. बधाई एवं शुभकामनायें
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टीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।
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http://bulletinofblog.blogspot.in/2018/03/blog-post.html
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बहुत सुन्दर लिखा है .
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जब मोह ही प्रतिकार करे तो अनाशक्ति स्वाभाविक है...जो मोह का मान न रख पाये वे अनाशक्ति को निर्मोह ही समझेंगे...
इंसान निर्मोही हो जाता है
या यूँ कहूँ कि इंसान
मोह के बंधन तोड़ने को
मजबूर हो जाता है ।
संवेदनाएं रहती हैं अंतस में
पर ज़ुबाँ मौन होती है
ये विवशता है....बाध्यता है ये मन की। अनाशक्ति में निर्मोही होने से शान्ति नहीं शून्यता हासिल है
बहुत ही चिन्तनपरक लाजवाब सृजन।
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