copyright. Powered by Blogger.

अपनी अपनी रामायण -अपने अपने राम

>> Sunday, February 28, 2021


हर बात के 
न जाने मतलब कितने 
हर शख़्स की 
न जाने कितनी कहानियाँ ,
हर कहानी का 
एक अलग किरदार 
हर किरदार को
निबाहते हुए
करता है इंसान 
अलग अलग 
व्यवहार ,
हर कहानी में 
उलझते पात्र 
ऐसे ही सोच के भी 
उलझते धागे ,
सीधा करने को 
जितना तत्पर 
ये उतना ही 
टूट जाते ।
किस पर करोगे 
तुम विश्वास 
किससे लगाओगे 
थोड़ी सी आस ,
कौन तुम्हारा 
अपना है 
जो देगा तुमको 
थोड़ा सा मान ,
सबकी अपनी अपनी 
रामायण 
और अपने अपने 
राम । 





धर्मराज युधिष्ठिर

>> Sunday, February 21, 2021


युधिष्ठिर , 
तुम नहीं रहे  कभी भी 
मेरी जिज्ञासा के पात्र 
रहे तुम केवल 
पांडवों में से एक मात्र । 
तुम्हारे पूरे जीवन मे 
बस एक ही प्रसंग 
याद आता है 
जहाँ तुम्हारे होने का 
महत्त्व दर्शाता है । 

यक्ष प्रश्नों के उत्तर दे 
अपने भाइयों को 
जीवन दान दिया था 
बाकी तो तुमने हमेशा
उनका हर अधिकार हरा था । 
पासों की बिसात पर 
तुमने कौन सा रूप
दिखाया था 
एक एक कर 
सारे भाइयों को 
दाँव पर लगाया था 
यहाँ तक कि खुद के साथ 
द्रोपदी भी हार गए थे 
जीतने की धुन में 
एक एक को जैसे मार गए थे
भरी सभा में चीर हरण पर 
तुम्हें शर्म नहीं आयी 
भाइयों की क्रोधाग्नि पर भी 
तुमने ही रोक लगाई ।

द्रोपदी के मन में भी 
कभी सम्मानित न हुए होंगे 
उसके मन में तो हमेशा ही 
कुछ तीक्ष्ण प्रश्न रहे होंगे  
यूँ तो तुम 
कहलाये धर्मराज 
लेकिन एक बात बताओ आज 
जब तुम स्वयं को 
हार चुके थे 
जुए के दाँव पर 
फिर क्या अधिकार बचा था 
तुम्हारा  द्रौपदी पर  ? 

खैर, 
 तुमसे करूँ भी तो 
क्या करूँ प्रश्न 
क्योंकि हर बार की तरह 
बीच में धर्म का पाठ पढ़ा दोगे 
और तर्क कुतर्क से 
खुद को सही बता दोगे ।
ऐसे  लोगों के लिए 
कहते हैं आज कल के लोग 
"जस्ट इग्नोर "
मैं भी नही चाहती 
तुमसे पूछना कुछ और । 

















पिघलती बर्फ

>> Tuesday, February 16, 2021

बसन्त आगमन का दिन ही 
चुन लिया था मैंने
बासंती जीवन के लिए .
पर  बसंत !  
तुम तो न आये ।

ऐसा नहीं कि 
मौसम नहीं बदले 
ऐसा भी नहीं कि 
फूल नहीं खिले 
वक़्त बदला 
ऋतु बदली 
पर बसन्त !
तुम तो न आये । 

सजाए थे ख्वाब रंगीन 
इन सूनी आँखों में 
भरे थे रंग अगिनत 
अपने ही खयालों में 
कुछ हुए पूरे 
कुछ रहे अधूरे 
पर बसन्त !
तुम तो न आये ।

बसन्त तुम आओ 
या फिर न आओ 
जब भी खिली होगी सरसों 
नज़रें दूर तलक जाएंगी 
और तुम मुझे हमेशा 
पाओगे अपने इन्तज़ार में ,
बस बसन्त ! 
एक बार तुम आओ । 

*****************

अचानक
ज़रा सी आहट हुई
खोला जो दरीचा
सामने बसन्त खड़ा था 
बोला - लो मैं आ गया 
मेरी आँखों में 
पढ़ कर शिकायत 
उसने कहा 
मैं तो कब से 
थपथपा रहा था दरवाजा 
हर बार ही 
निराश हो लौट जाता था 
तुमने जो ढक रखा था 
खुद को मौन की बर्फ से 
मैं भी तो प्रतीक्षा में था कि
कब ये बर्फ पिघले 
और 
मैं कर सकूँ खत्म
तुम्हारे चिर इन्तज़ार को ।
और मैं - 
किंकर्तव्य विमूढ़ सी 
कर रही थी स्वागत 
खिलखिलाते बसन्त का । 



मौन की साधना

>> Sunday, February 14, 2021



मौन की तलाश में 


मैं मौन हूँ ,


ढूँढती रहती हूँ मै


मौन को अपने अन्दर
लेकिन उठता रहता है 
मन में एक बवंडर 
साँस की ताल पर 
बाँधती हूँ मौन की लय 
ज़िन्दगी के तार कर देते 
सारी सोच का विलय 
बन्द आंखों से फिर 
एक भीड़ नज़र आती है 
और मेरी नज़र खुद को ही 
ढूँढती रह जाती है ।
थक हार फिर से मैं 
साँस की सरगम पकड़ती हूँ
शांत मन से फिर मौन का 
अनुसरण  करती हूँ । 
थोड़ी देर मौन मेरे साथ 
वक़्त बिताता है कि,
कोलाहल का रेला 
फिर से चला आता है ।
बस इसी जद्दोजहद में 
बीत रही है ज़िन्दगी 
मौन को साधना ही 
बन गयी  है बंदगी । 







हमारी वाणी

www.hamarivani.com

About This Blog

आगंतुक


ip address

  © Blogger template Snowy Winter by Ourblogtemplates.com 2009

Back to TOP