हाँ , सुन रही हूँ मैं ......
>> Tuesday, June 1, 2021
उषा किरण जी की एक रचना ---
मोटी दीवारों को भेद
जब आती है कोई
मर्मान्तक चीख
तो ठिठक जाते है
बहुत से लोग
किसी अनहोनी आशंका से ।
कुछ होते है
महज़ तमाशबीन ,
तो कुछ के चेहरे पर होती है
व्याप्त एक बेबसी
और कुछ के हृदय से
फूटता है आक्रोश
कुछ कर गुजरने की चाहत में
दिए जाते है अनेक
तर्क वितर्क ।
सुनती है वो पीड़िता
और कह उठती है अंत में कि
हाँ , सुन रही हूँ मैं
लेकिन नही उछाल पायी
वो पत्थर , जो उठाया था
पहली बार किये अन्याय के विरुद्ध ।
क्यों कि
उठाते ही पत्थर
चेहरा आ गया था सामने
मेरे बूढ़े माँ बाप का
उनकी निरीह बेबसी को देख
सह गयी थी सब अत्याचार ।
और अब बन गयी हूँ
स्वयं ही माँ
तो बताओ कैसे उछाल पाऊंगी
अब मैं कोई पत्थर ?
इसी का जवाब है ये मेरी रचना ।
मोटी दीवारों को भेद
जब आती है कोई
मर्मान्तक चीख
तो ठिठक जाते है
बहुत से लोग
किसी अनहोनी आशंका से ।
कुछ होते है
महज़ तमाशबीन ,
तो कुछ के चेहरे पर होती है
व्याप्त एक बेबसी
और कुछ के हृदय से
फूटता है आक्रोश
कुछ कर गुजरने की चाहत में
दिए जाते है अनेक
तर्क वितर्क ।
सुनती है वो पीड़िता
और कह उठती है अंत में कि
हाँ , सुन रही हूँ मैं
लेकिन नही उछाल पायी
वो पत्थर , जो उठाया था
पहली बार किये अन्याय के विरुद्ध ।
क्यों कि
उठाते ही पत्थर
चेहरा आ गया था सामने
मेरे बूढ़े माँ बाप का
उनकी निरीह बेबसी को देख
सह गयी थी सब अत्याचार ।
और अब बन गयी हूँ
स्वयं ही माँ
तो बताओ कैसे उछाल पाऊंगी
अब मैं कोई पत्थर ?
32 comments:
वाह ...बहुत सुन्दर 👌...सच है बेबसी और लाचारी ही कभी कायरता कहलाने लगती है और वही एक दिन आदत में ढल जाती है ...कैसे उठाए फिर कोई पत्थर ?
पत्थर भला उठाएगा क्या पत्थर। हृदय स्पर्शी कविता।
ओह! बहुत मार्मिक रचना. निशब्द कर दिया. आभार.
पढ़ा नहीं गया..
नारी
डरती है
चढ़ती है
उतरती है
गढ़ती है
मरती भी है
कभी..
जलती भी है
सादर नमन
बहुत बहुत सुन्दर
हर बार किसी न किसी की खातिर जुल्म सहती है, किस माटी की बनी है यह जो फिर भी साथ रहती है, मार्मिक रचना !
दिल को छूती बहुत सुंदर रचना,संगिता दी।
हृदय विदारक रचना ।
हृदय विदारक रचना ।
हृदय विदारक रचना ।
मन उद्वेलित हुआ पढ़कर .... विचारणीय भाव
लेकिन नही उछाल पायी
वो पत्थर , जो उठाया था
पहली बार किये अन्याय के विरुद्ध ।
क्यों कि
उठाते ही पत्थर
चेहरा आ गया था सामने
मेरे बूढ़े माँ बाप का
उनकी निरीह बेबसी को देख
सह गयी थी सब अत्याचार ।
बस यही तो होता आया है हमेशा से ....
सहने और दबे रहने के पीछे का करण या वजह सुनने वाले को तो बेकार ही लगती है...और सहने वाले को वह कायर कह सकता है पर सहने वाला ही जानता है कि उसने कितनी हिम्मत से सहा है।
बहुत ही मार्मिक एवं हृदयस्पर्शी सृजन।
सुंदर प्रस्तुति
कुछ के हृदय से
फूटता है आक्रोश
कुछ कर गुजरने की चाहत में
दिए जाते है अनेक
तर्क वितर्क ।
दिल को छू जाने वाली अत्यंत मार्मिक रचना!
वाह वाह। अद्भुत।
बेबसी का अंतर्द्वंद्व
स्वयं के अनुभव बहुत कुछ बता देते है ...
समय तो बीत जाता है मन की टीस हमेशा कुछ अनुभव दे जाती है ...
सुन्दर रचना
बहुत ही गूढ़ तथा स्त्रीमन की वेदना व्यक्त करती बहुत ही सारगर्भित अभिव्यक्ति,सार्थक रचना के लिए सार्थक मन भी होना चाहिए,आपको नमन ।
जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार ४ जून २०२१ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
बहुत खूब।
नारी सहन ही करती है।
अपनो को सहज रखने के लिए।
यही बन्धन है, यही कैद है।
और अब बन गयी हूँ
स्वयं ही माँ
तो बताओ कैसे उछाल पाऊंगी
अब मैं कोई पत्थर ? ---वाह बहुत ही गहन सृजन...अच्छी रचना।
हृदयस्पर्शी सृजन ।
हाँ , सुन रही हूँ मैं
लेकिन नही उछाल पायी
वो पत्थर , जो उठाया था
पहली बार किये अन्याय के विरुद्ध ।
काश !! हर बेबसी को तोड़..हिम्मत कर पहली बार ही किसी ने ये पथ्थर उछाल दिया होता तो...हर बार वो खुद घायल नहीं होती...
काश !! पहले बार सीता माँ ने ही अग्निपरीक्षा के बिरुद्ध आवाज़ उठा दी होती कि -राम तुम्हे भी मेरे साथ इस परीक्षा से गुजरना होगा तो...हर बार हर स्त्री को परीक्षा ना देनी होती...पर ये सब काश ही रह गया...और आज जब होश आया तो स्त्रियां कुछ ज्यादा ही उग्र हो गयी।
लाज़बाब सृजन दी ,सादर नमन
न जाने कितनी घुट चुकी चीखों का प्रतिनिधित्व करती है यह कविता। दिल को छू गई!!
तो कुछ के चेहरे पर होती है...व्याप्त एक बेबसी...और कुछ के हृदय से...फूटता है आक्रोश...कुछ कर गुजरने की चाहत में...
इस बेबसी ने ही सबको परेशान कर रखा है...करना तो है पर कहाँ से...शुरुआत तो घर से ही होगी...सुन्दर रचना...
गहन भावाभिव्यक्ति ,मर्म भेदी भी और एक निरिह बेबसी भी।
अप्रतिम सृजन।
आप सभी पाठकों का आभिनंदन और आभार ...
मार्मिक अभिव्यक्ति- नारी की विवशता और अंतस् की करुणा का वास्तविक चित्र!
जी दीदी , उषा जी की रचना मैंने भी पढ़ी थी जिसमें सार्वजनिक अन्याय का शिकार महिला को इस के विरुद्ध आवाज और पत्थर उठाने का आह्वान किया गया है | कहते हैं साहसी लोग ही क्रांति रचते हैं , कायर कुछ नहीं कर पाते |पर एक लडकी और औरत के लिए ऐसे अन्यायों का सामना करना कोई आसान नहीं | उस की हस्ती दूसरों के बारे में सोचने में ही खर्च हो जाती है | उसका अस्तित्व वहीँ समाप्त होने के कगार पर खड़ा दिखता है जहाँ अपनों का सामाजिक सम्मान आड़े आता है | यहीं से हौंसले पस्त होने लगते हैं | एक ऐसी रचना जो मर्मान्तक स्थिति को बखूबी सामने रखती है | स्वयं पाषाणी बन सहती नारी की पीड़ा को बहुत सजीवता से दर्शाती रचना के लिए बधाई और शुभकामनाएं |
क्यों कि/उठाते ही पत्थर //चेहरा आ गया था सामने //
मेरे बूढ़े माँ बाप का ///उनकी निरीह बेबसी को देख
सह गयी थी सब अत्याचार । //और अब बन गयी हूँ//
स्वयं ही माँ /तो बताओ कैसे उछाल पाऊंगी//अब मैं कोई पत्थर ? ////
भावपूर्ण पंक्तियाँ !!
मार्मिक सृजन।
समाज के एक पहलू का सार्थक चित्रण।
सादर
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