स्व अस्तित्व
>> Friday, July 2, 2010
बोली के दंशों में
कितना विष रखते हो
ज़ेहन के हर कोने में
गरल पैबस्त करते हो .
क्यों नहीं सीखते तुम
कुछ गुड़ की सी बातें करना
आसान हो जाता फिर
इस कड़वाहट को पीना .
अहम् तुम्हारा जब भी
सिर चढ़ कर बोलेगा
मेरा निज अस्तित्व
यूँ ही डग मग डोलेगा .
नहीं चाहती हूँ कि
यूँ टूट बिखर मैं जाऊं
इस बिखरन से बचने की
कौन शक्ति कहाँ से पाऊं ?
बस मूँद कर
मैं पलकों को
स्व - अस्तित्व
एकत्र करती हूँ
और फिर से मैं इस
मैदान ऐ जिंदगी में
उतर पड़ती हूँ .
43 comments:
ye hui na baat ..ek dum positve,,... zindagi me ye sab to lag hio rahta hai ...aankh dikhane se kisi ke kab tak ghyabraye koi ... bahut achhi naazm mumma..luv u
बस मूँद कर
मैं पलकों को
स्व - आस्तित्त्व
एकत्र करती हूँ
और फिर से मैं इस
मैदान ऐ जिंदगी में
उतर पड़ती हूँ .
एकदम सच्ची अभिव्यक्ति...खुद पर विश्वास कर...खुद ही हिम्मत जुटानी पड़ती है...
dwand to chalte rahenge jeevan bhur unse nipatane kee kshamata sanjona ye swayam ko hee karna hota hai.........
keep it up.
आपकी रचना पढ़ कर एक गाना याद आ गया..
कुछ तो लोग कहेंगे...
लोगो का काम है कहना..
तो जनाब जिसका जैसा स्वभाव है वो वैसा ही रहेगा...आप अपना आपा क्यूँ खोएं ?
तो....स्व-आस्तित्व बनाये रखें....वर्ना जीना मुश्किल है..
संगीता माँ,
चरण स्पर्श!
गिरना, फिर सम्हलना, फिर आगे बढ़ना!
जय हो!
----------------------------
इट्स टफ टू बी ए बैचलर!
इससे बड़ी तो कोई ताक़त ही नहीं .. फिर कोई भी हो मुक़ाबिल... प्रेरणादायक!
स्व अस्तित्व ज़रूरी है...तब गुड़ खुद ब खुद जिह्वा पैर आ जाता है
जिन्दगी की यही रीत है,हार के बाद ही जीत है
कहां तक ये मन को अन्धेरे छलेंगे उदासी भरे दिन कभी तो ढलेंगे
डोंट वरी बी हैप्पी
कुछ पाकर खोना है कुछ खोकर पाना है
जिन्दगी का मतलब तो आना और जाना है
आपकी रचना को पढ़कर बहुत से गीत याद आ रहे हैं
अच्छी व सच्ची रचना.
बहुत शक्तिशाली अभिव्यक्ति -
बधाई
दी !
बस मूँद कर
मैं पलकों को
स्व - आस्तित्त्व
एकत्र करती हूँ
और फिर से मैं इस
मैदान ऐ जिंदगी में
उतर पड़ती हूँ
बस यही है मूलमंत्र जीवन का ..बाकि सब विष एक कान से पियो और दूसरे से निआक दो :) ...बहुत बहुत अछ्छी कविता.
bahut sundar likha hai apne........... mere blog par comment dene ke liye dhanyavaad.........prateeksha me........
bahut hee pyaari rachnaa
दिदी
बस मूँद कर
मैं पलकों को
स्व - अस्तित्व
एकत्र करती हूँ
और फिर से मैं इस
मैदान ऐ जिंदगी में
उतर पड़ती हूँ .
बस यही तो राज़ है एक सकारात्मक ज़िंदगी का.. स्व-अस्तित्व को एकत्रित करना और केन्द्र कि तरफ यात्रा करना.. बहुत सशक्त रचना... बधाई....
:)
अहम् तुम्हारा जब भी
सिर चढ़ कर बोलेगा
मेरा निज अस्तित्व
यूँ ही डग मग डोलेगा .
नहीं चाहती हूँ कि
यूँ टूट बिखर मैं जाऊं
इस बिखरन से बचने की
कौन शक्ति कहाँ से पाऊं ?
--
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति!
बस मूँद कर
मैं पलकों को
स्व - अस्तित्व
एकत्र करती हूँ
और फिर से मैं इस
मैदान ऐ जिंदगी में
उतर पड़ती हूँ .
क्या बात है!!!!! कितनी सकारात्मक बात.सच है टूट कर बिखरना तो कोई नहीं चाहता पर सबके पास इतना हौसला भी नहीं होता
संगीता जी! स्व अस्तित्व को आपने अईसा अस्त्र बनाया है जिसको न अग्नि जला सकता है, न पानी गला सकता है अऊर न हवा सुखा सकता है. फिर चाहे किसी का अहम् हो, चाहे कोई भी गरल.बहुत सुंदर अऊर प्रेरना दायक!
शिल्पगतरूप में सुगठित एवं प्रभावकारी रचना के लिए बधाई स्वीकारें।
सद्भावी -डॉ० डंडा लखनवी
एकदम सच्ची अभिव्यक्ति...खुद पर विश्वास कर...खुद ही हिम्मत जुटानी पड़ती है...
सुन्दर अभिव्यक्ति!
स्त्री अस्तित्व पर तो सदैव ही सवाल खड़े किये जाते रहे हैं...संघर्ष ही मिठास की कुंजी है..
शुभकामनाएं...
उद्बोधन समीचीन ।
प्रशंसनीय ।
Hi di..
Apna swa-astitv samete..
Chala koi jeevan path par..
Mushkil ki har ghadi main wo fir..
Rahe adig hi jeevan bhar..
Sundar kavita..
Deepak..
राजकुमार जी से सहमत अच्छी व सच्ची रचना.
यही तो ज़िन्दगी है…………टूटना, गिरना और फिर सम्भलना……………भावों को बहुत ही खूबसूरती से संजोया है…………स्व को पा लिया जिसने बस जीना आ गया उसे।
बस मूँद कर
मैं पलकों को
स्व - अस्तित्व
एकत्र करती हूँ
और फिर से मैं इस
मैदान ऐ जिंदगी में
उतर पड़ती हूँ .
जी हा!... शक्ति को फिर एक बार एकत्रित कर के... जीवन रुपी मैदान में कूद पड्ना ही मनुष्य धर्म है!....बहुर सुंदर और सकारात्मक सोच जगाने वाली रचना!
हौसला बनाए रखना बहुत जरूरी है.. बहुत बढ़िया कविता...
बस मूँद कर
मैं पलकों को
स्व - अस्तित्व
एकत्र करती हूँ
और फिर से मैं इस
मैदान ऐ जिंदगी में
उतर पड़ती ह
waah kya baat kahi hai ?bahut hi sundar rachna hai .bha gayi behad .
जीवन रस से भरपूर भाव।
................
अपने ब्लॉग पर 8-10 विजि़टर्स हमेशा ऑनलाइन पाएँ।
बस मूँद कर
मैं पलकों को
स्व - अस्तित्व
एकत्र करती हूँ
और फिर से मैं इस
मैदान ऐ जिंदगी में
उतर पड़ती हूँ .
sadiyon se yahi himmat jutakar hum 60 baras iss zindagi ke saath nyaay kar hi le jate hain..
shaandaar rachna..badhai
बस मूँद कर
मैं पलकों को
स्व - अस्तित्व
एकत्र करती हूँ
और फिर से मैं इस
मैदान ऐ जिंदगी में
उतर पड़ती हूँ .
ऐसी प्रेरणादायक रचना को
लिखना / पढ़ना अपने आप में एक
अनुपम अनुभूति से साख्शात्कार करना ही होता है
सुन्दर काव्य से परिचय करवाने हेतु आभार स्वीकारें
गिरकर उठ खड़े होना गिराने वाले पर जीत है ।
बहुत सुंदर रचना.
शुभकामनाएं...
सुन्दर रचना, आशावादी अंत .... ये पंक्तियाँ बहुत अच्छी लगी
बोली के दंशों में
कितना विष रखते हो
ज़ेहन के हर कोने में
गरल पैबस्त करते हो
सच है, हार्दिक बधाई.
ढेर सारी शुभकामनायें.
जीवन की इस जंग में खुद का अस्तित्व ही सहायक होता है ... लाजवाब लिखा है .....
अगर तुक मिलाने से बचें और मुक्त छन्द में ही कविता लिखें तो प्रवाह अधिक दिखाई देगा ।
कह नहीं सकती कि आप्की कविताओं का मर्म समझ सकी या नहीं मगर सभी कवितायें मन के करीब लगीं... thanks to let me find your blog...all pics are also very gud...
तलाश जिन्दा लोगों की ! मर्जी आपकी, आग्रह हमारा!!
काले अंग्रेजों के विरुद्ध जारी संघर्ष को आगे बढाने के लिये, यह टिप्पणी प्रदर्शित होती रहे, आपका इतना सहयोग मिल सके तो भी कम नहीं होगा।
=0=0=0=0=0=0=0=0=0=0=0=0=0=0=0=0=
सागर की तलाश में हम सिर्फ बूंद मात्र हैं, लेकिन सागर बूंद को नकार नहीं सकता। बूंद के बिना सागर को कोई फर्क नहीं पडता हो, लेकिन बूंद का सागर के बिना कोई अस्तित्व नहीं है। सागर में मिलन की दुरूह राह में आप सहित प्रत्येक संवेदनशील व्यक्ति का सहयोग जरूरी है। यदि यह टिप्पणी प्रदर्शित होगी तो विचार की यात्रा में आप भी सारथी बन जायेंगे।
ऐसे जिन्दा लोगों की तलाश हैं, जिनके दिल में भगत सिंह जैसा जज्बा तो हो। गौरे अंग्रेजों के खिलाफ भगत सिंह, सुभाष चन्द्र बोस, असफाकउल्लाह खाँ, चन्द्र शेखर आजाद जैसे असंख्य आजादी के दीवानों की भांति अलख जगाने वाले समर्पित और जिन्दादिल लोगों की आज के काले अंग्रेजों के आतंक के खिलाफ बुद्धिमतापूर्ण तरीके से लडने हेतु तलाश है।
इस देश में कानून का संरक्षण प्राप्त गुण्डों का राज कायम हो चुका है। सरकार द्वारा देश का विकास एवं उत्थान करने व जवाबदेह प्रशासनिक ढांचा खडा करने के लिये, हमसे हजारों तरीकों से टेक्स वूसला जाता है, लेकिन राजनेताओं के साथ-साथ अफसरशाही ने इस देश को खोखला और लोकतन्त्र को पंगु बना दिया गया है।
अफसर, जिन्हें संविधान में लोक सेवक (जनता के नौकर) कहा गया है, हकीकत में जनता के स्वामी बन बैठे हैं। सरकारी धन को डकारना और जनता पर अत्याचार करना इन्होंने कानूनी अधिकार समझ लिया है। कुछ स्वार्थी लोग इनका साथ देकर देश की अस्सी प्रतिशत जनता का कदम-कदम पर शोषण एवं तिरस्कार कर रहे हैं।
आज देश में भूख, चोरी, डकैती, मिलावट, जासूसी, नक्सलवाद, कालाबाजारी, मंहगाई आदि जो कुछ भी गैर-कानूनी ताण्डव हो रहा है, उसका सबसे बडा कारण है, भ्रष्ट एवं बेलगाम अफसरशाही द्वारा सत्ता का मनमाना दुरुपयोग करके भी कानून के शिकंजे बच निकलना।
शहीद-ए-आजम भगत सिंह के आदर्शों को सामने रखकर 1993 में स्थापित-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास)-के 17 राज्यों में सेवारत 4300 से अधिक रजिस्टर्ड आजीवन सदस्यों की ओर से दूसरा सवाल-
सरकारी कुर्सी पर बैठकर, भेदभाव, मनमानी, भ्रष्टाचार, अत्याचार, शोषण और गैर-कानूनी काम करने वाले लोक सेवकों को भारतीय दण्ड विधानों के तहत कठोर सजा नहीं मिलने के कारण आम व्यक्ति की प्रगति में रुकावट एवं देश की एकता, शान्ति, सम्प्रभुता और धर्म-निरपेक्षता को लगातार खतरा पैदा हो रहा है! अब हम स्वयं से पूछें कि-हम हमारे इन नौकरों (लोक सेवकों) को यों हीं कब तक सहते रहेंगे?
जो भी व्यक्ति इस जनान्दोलन से जुडना चाहें, उसका स्वागत है और निःशुल्क सदस्यता फार्म प्राप्ति हेतु लिखें :-
(सीधे नहीं जुड़ सकने वाले मित्रजन भ्रष्टाचार एवं अत्याचार से बचाव तथा निवारण हेतु उपयोगी कानूनी जानकारी/सुझाव भेज कर सहयोग कर सकते हैं)
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा
राष्ट्रीय अध्यक्ष
भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास)
राष्ट्रीय अध्यक्ष का कार्यालय
7, तँवर कॉलोनी, खातीपुरा रोड, जयपुर-302006 (राजस्थान)
फोन : 0141-2222225 (सायं : 7 से 8) मो. 098285-02666
E-mail : dr.purushottammeena@yahoo.in
good
कितना विष रखते हो ..नहीं सीखते..गुड़ की सी बातें ...आसान हो..इस कड़वाहट को पीना ण्
नहीं चाहती ...टूट बिखर जाऊं...
बस मूँद कर
मैं पलकों को
स्व . अस्तित्व
एकत्र करती हूँ
और फिर से मैं इस
मैदान ऐ जिंदगी में
उतर पड़ती हूँ ....
गुड़ में अक्सर काले जले हुए कड़वे कण पता नहीं कैसे और कहां से आ जाते हैं ..पर कुल्ला करके हम फिर गुड़ निगलते हैं...हां आगे रास्ते पर चल पड़ते हैं
अच्छी कविता है ..बधाई
बहुत सुंदर रचना......
बस मूँद कर
मैं पलकों को
स्व - अस्तित्व
एकत्र करती हूँ
और फिर से मैं इस
मैदान ऐ जिंदगी में
उतर पड़ती हूँ .
आपके संघर्ष को प्रणाम करता हूँ....कविता बहुत ही प्रेरणादायक है.
Very powerful positive lines,I must appriciate.Beautifulpicture selection,excellent.
with regards
dr.bhoopendra jeevansandarbh.blogspot.com
kah diya tumane shabdon men aur ujagar kar dee vedana har usa man kee jo isi sah-astitva ki talash men jeevan bhar bhatakti rahati hain aur kuchh bhi haasil nahin hota. bahut sundar prastuti.
Post a Comment