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घायल रिश्ते

>> Tuesday, April 16, 2013




परम्पराओं के नाम पर 
देखते हैं हम 
नयी पीढ़ी को ,
एक आलोचक की दृष्टि से ,
और भरते रहते हैं 
थोड़ा थोड़ा बारूद 
उनके मन आँगन में,
नहीं देना चाहते आज़ादी 
यह समझने की ,
कि इनसे होती हैं अपनी 
जड़ें मजबूत ,
बिना जाने बूझे 
बस निबाहते हैं 
जब परम्पराओं को ,
तो आस्था का तत्व 
नहीं होता उसमें ,
और एक दिन 
यही बन जाता है एक 
विध्वंसकारी  विस्फोटक ,
जब होता है विस्फोट तो ,
रिश्तों का जिस्म 
हो जाता है लहू - लुहान ,
और हम - 
हतप्रभ से रह जाते हैं 
अपनी परवरिश पर 
एक प्रश्न चिह्न  लिए हुये ......




58 comments:

रश्मि प्रभा... 4/16/2013 3:33 PM  

परम्पराओं की बात तब आती है जब अति का तांडव होने की आशंका होती है ..... कभी बुज़ुर्ग अति करते हैं,कभी युवा पीढ़ी ............ कभी विनम्रता घातक,कभी संवेदना,कभी दूरी,कभी नजदीकी ......पलड़े पर कुछ नहीं होता

सदा 4/16/2013 3:35 PM  

जब होता है विस्फोट तो ,
रिश्तों का जिस्म
हो जाता है लहू - लुहान ,
और हम -
हतप्रभ से रह जाते हैं
अपनी परवरिश पर
एक प्रश्न चिह्न लिए हुये .....जिनका जवाब उस वक्‍़त सिर्फ मौन होता है
बेहद गहन भाव लिए मन को छूती रचना

दिगम्बर नासवा 4/16/2013 3:38 PM  

ये तो नहीं पता सच में परंपरा के नाम से उनको सिखाते हैं या जो खुद न कर सके उनके माध्यम से करना चाहते हैं ... पर कभी कभी अच्छी परंपरा भी गलत तरीके से दल जाती है ... जो विस्फोट की स्थिति ले आती है ...
पर अपने सही कहा ... इसके नाम पे सक कुछ थोपा जरूरी नहीं ...

shikha varshney 4/16/2013 3:43 PM  

वक़्त के साथ थोडा परिवर्तन जरूरी है परम्पराओं में भी. सब बदलते हैं, कुछ हमने भी बदलीं, कुछ आने वाली पीढीयाँ भी बदलेंगी अपनी जरुरत और समझ के अनुसार. तभी विकसित होगा स्वस्थ समाज. थोपी गई कोई भी चीज़ सकारात्मक नहीं होती.
बहुत ही सार्थक और प्रभावशाली रचना दी!.

vandana gupta 4/16/2013 3:46 PM  

बडा सटीक चित्रण किया है ………परम्परा के नाम पर होते दोहन का ।

महेन्द्र श्रीवास्तव 4/16/2013 3:46 PM  

बहुत सुंदर, अच्छी रचना

Madan Mohan Saxena 4/16/2013 3:53 PM  

अच्छी रचना .बेहतरीन प्रस्‍तुति.आभार

वाणी गीत 4/16/2013 4:20 PM  

परम्पराओं की चारदीवारी में खुलेपन की खिड़की से ताजा बयार ना हो तो विस्फोट होना ही है !
सार्थक विचार !

साहित्य और समीक्षा डॉ. विजय शिंदे 4/16/2013 4:21 PM  

रिश्ते घायल हर जगह पर होते हैं। माता-पिता और बच्चों के अलाव अन्य रिश्ते भी घायल देखे जाते हैं। पर माता-पिता के रिश्ते बच्चों के साथ घायल हो तो पीढियां बर्बाद होने का खतरा होता है। इसी विषय पर प्रकाश डालती आपकी सुमदर कविता।

Majaal 4/16/2013 4:30 PM  

बुजुर्गों को अपने जवानी के दिन याद करने चाहिए, इस तरह शायद युवाओं की सोच समझने में कुछ मदद मिलें।
विचारशील कविता , लिखते रहिये… !

प्रवीण पाण्डेय 4/16/2013 4:40 PM  

प्रश्न उठें अवश्य पर उत्तर न मिल पाने पर विरोधी न बन जायें।

सुज्ञ 4/16/2013 4:57 PM  

विकारों को शरण देने से संस्कृति विकृति ही बनती है।

Ramakant Singh 4/16/2013 5:08 PM  

और एक दिन
यही बन जाता है एक
विध्वंसकारी विस्फोटक ,
जब होता है विस्फोट तो ,
रिश्तों का जिस्म
हो जाता है लहू - लुहान ,
और हम -
हतप्रभ से रह जाते हैं
अपनी परवरिश पर
एक प्रश्न चिह्न लिए हुये ......

दोनों पीढ़ी में तादात्म्य होना आवश्यक है ...

विभा रानी श्रीवास्तव 4/16/2013 6:01 PM  

सामायिक सार्थक अभिव्यक्ति
पीढ़ी दर पीढ़ी यह प्रश्न बना रहता है
प्रश्न का उत्तर सबको पता भी रहता है
कोशिश कर कोई नहीं बदलना नहीं चाहता है
सादर !!

ANULATA RAJ NAIR 4/16/2013 6:06 PM  

नयी और पुरानी पीढ़ी के बीच संतुलन हो तब न निबाह होगा परम्पराओं का और खिलेंगे रिश्ते...

बहुत अच्छी रचना है दी....
सादर
अनु

Anita Lalit (अनिता ललित ) 4/16/2013 6:57 PM  

सही बात कही है दीदी...
जब दिल से परम्पराओं में आस्था नहीं उत्पन्न होगी...तब तक उसका निर्वाह होना बहुत मुश्किल है...
~सादर!!!

Satish Saxena 4/16/2013 7:20 PM  

यह प्रश्न चिन्ह सही है और हमें आत्म विश्लेषण करना चाहिए कि गलती कहाँ हुई ??

Sadhana Vaid 4/16/2013 7:54 PM  

रिश्ते घायल ना हों इसके लिये बहुत ज़रूरी है कि उनकी जड़ें सुसंस्कार व नैतिक मूल्यों के खाद पानी से मजबूत बनाई जाएँ ! जहाँ सतही औपचारिकताएं निभाई जाती हैं वहाँ किसी भी रिश्ते में स्थायित्व नहीं रहता ! बहुत सुंदर एवँ सशक्त रचना संगीता जी ! बधाई स्वीकार करें !

चला बिहारी ब्लॉगर बनने 4/16/2013 8:45 PM  

काश हर कोई यह समझ पाता और अपनी संतान को अपनी संपत्ति नहीं समझता..
परवरिश तो दिशा देने का नाम है, एक नियंत्रित दिशा..
प्रेरक!!!

ताऊ रामपुरिया 4/16/2013 8:51 PM  

बहुत सटीकता से आपने इस विषय को उठाया, अति गहन विषय.

रामराम.

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया 4/16/2013 9:00 PM  

बेहद सटीक सशक्त रचना,आभार संगीता जी,,
RECENT POST : क्यूँ चुप हो कुछ बोलो श्वेता.

डॉ. मोनिका शर्मा 4/16/2013 11:18 PM  

सही बात...सामयिक भाव

Unknown 4/16/2013 11:28 PM  

सुंदर रचना



और एक दिन
यही बन जाता है एक
विध्वंसकारी विस्फोटक ,
जब होता है विस्फोट तो ,
रिश्तों का जिस्म
हो जाता है लहू - लुहान ,
और हम -
हतप्रभ से रह जाते हैं

devendra gautam 4/16/2013 11:53 PM  

आपकी नज्म़ पढ़ते-पढ़ते एक शेर निकल आया आपकी नज्र करता हूं-

जितनी जंजीरें हैं उनपर चोट करेगा.
वो बारूद का पुतला है, विस्फोट करेगा.

devendra gautam 4/16/2013 11:53 PM  
This comment has been removed by the author.
प्रतिभा सक्सेना 4/17/2013 12:50 AM  

पुराना नये को जगह दे और नया उसे उचित मान-महत्व दे -सचेत दोनों पक्षों को रहना है.यह संघर्षण कोई नई बात नहीं.

Suman 4/17/2013 7:12 AM  

परंपरायें कभी बनाई ही इसलिए गई थी कि, जीवन जीने के लिए सुविधा हो,आज समय बदल गया है तो परंपराओंमे बदलाव भी आना जरुरी है ! स्वतंत्रता के साथ नई पीढ़ी को यदि समझदारी भी दी जाय तो,वे खुद जान जायेंगे उचित क्या है अनुचित क्या है !

Suman 4/17/2013 7:21 AM  

परंपराये बच्चों से बढ़कर उनकी ख़ुशीयों से बढ़कर नहीं है यह बात प्रत्येक माता -पिता
को समझ लेनी चाहिए !

yashoda Agrawal 4/17/2013 7:58 AM  

शुभ प्रभात दीदी
परिवर्तन का चक्र
हमेशा चलायमान रहता है
अनुसार उसके...
सोच में ..
बदलाव भी..
अवश्यंभावी है
हम-आप...
दोनों को..
सहना होगा...

सादर

ओंकारनाथ मिश्र 4/17/2013 8:44 AM  

जब परम्पराओं को ,
तो आस्था का तत्व
नहीं होता उसमें ,
और एक दिन
यही बन जाता है एक
विध्वंसकारी विस्फोटक ,
जब होता है विस्फोट तो ,
रिश्तों का जिस्म
हो जाता है लहू - लुहान ,



बहुत ही गहरी रचना है.

शारदा अरोरा 4/17/2013 10:47 AM  

सुन्दर अभिव्यक्ति...

सारिका मुकेश 4/17/2013 1:30 PM  

बहुत ही अच्छा मुद्दा उठाया है आपने...सुंदर प्रस्तुति...बधाई स्वीकारें!

कालीपद "प्रसाद" 4/17/2013 3:04 PM  


जब होता है विस्फोट तो ,
रिश्तों का जिस्म
हो जाता है लहू - लुहान ,
और हम -
हतप्रभ से रह जाते हैं
अपनी परवरिश पर
एक प्रश्न चिह्न लिए हुये .....जिनका जवाब उस वक्‍़त सिर्फ मौन होता है
बेहतरीन प्रस्‍तुति.आभार
latest post"मेरे विचार मेरी अनुभूति " ब्लॉग की वर्षगांठ

Tamasha-E-Zindagi 4/17/2013 5:13 PM  

सुन्दर रचना |

कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
Tamasha-E-Zindagi
Tamashaezindagi FB Page

संध्या शर्मा 4/17/2013 7:19 PM  

दोनों पीढ़ियों के विचारो में सामंजस्य जरुरी है... इसे स्वीकारना होगा... गहन भाव ...आभार

विभूति" 4/17/2013 9:58 PM  

बेहतरीन और बहुत कुछ लिख दिया आपने..... सार्थक अभिवयक्ति......

Manav Mehta 'मन' 4/17/2013 11:23 PM  

बहुत बढ़िया

ashish 4/18/2013 7:57 AM  

परम्पराओं को स्वस्थ और सम्यक बनाये रखने के लिए समय समय पर उनके स्वरुप पर विचार होते रहना चहिये . जरुरत पड़ने पर कांट छांट भी.

अरुण कुमार निगम (mitanigoth2.blogspot.com) 4/18/2013 9:12 AM  

समय के साथ जीवन शैली में परिवर्तन स्वाभाविक है.जीवन मूल्यों में गिरावट नहीं आनी चाहिये.

शिवनाथ कुमार 4/18/2013 9:51 AM  

परंपरा के नाम पर कुछ भी थोपा नहीं जाना चाहिए
हाँ, परंपरा का ज्ञान जरुर होना चाहिए
आस्था तो अन्दर की चीज है
सुंदर प्रभावपूर्ण ....
सादर !

Rajput 4/18/2013 11:23 AM  

नई पीढ़ी के साथ सम्ञ्ज्सय बैठाना बहुत जरूरी है।
शानदार रचना

राजेश सिंह 4/18/2013 2:58 PM  

हतप्रभ से रह जाते हैं
अपनी परवरिश पर
एक प्रश्न चिह्न लिए हुये ......
सचमुच चिंतनीय और विचारणीय

Tanuj arora 4/19/2013 12:06 PM  

Smay ke sath ghayal hte rishte...
Behtrin prastuti.

अशोक सलूजा 4/20/2013 3:34 PM  

बड़ा उलझा सवाल है ....हमारा अपने आप से ???
आज़ादी कभी दी नही गई ..आजादी हमेशा छिनी जाती है ..और हम अपने बहलाने को कहते हैं हमने आजादी दे दीऔर अब परम्पराओं के नाम पर हम अपने लिए कुछ मांगने के इच्छा रखते हैं ...जबकि वो हमारा भी हक है ..पर कौन जाने इसका जवाब ????
शुभकामनाये हम सब एक जैसों को .......!
(देर से आने की मज़बूरी को नज़र-अंदाज़ करें }
आभार !

गिरिजा कुलश्रेष्ठ 4/20/2013 10:46 PM  

सुन्दर और विचारणीय कविता ।

Kailash Sharma 4/20/2013 11:07 PM  

सच में अंध परंपराओं के नाम पर रिश्तों में विध्वंश की सदैव संभावना रहती है...बहुत सटीक और गहन अभिव्यक्ति...

Onkar 4/21/2013 10:05 AM  

बेहद सुन्दर रचना

रचना दीक्षित 4/21/2013 7:20 PM  

आजकल घट रही घटनाओं ने सोचने को मजबूर कर दिया है अपनी परवरिश और परम्पराओं के बारे में. गंभीर और संवेदनशील प्रस्तुति.

मनोज कुमार 4/22/2013 8:50 PM  

हर पीढ़ी की अपनी एक खास पहचान, चाहत और जरुरत होती है। एक दूसरे को एक-दूसरे का सम्मान करना चाहिए।

Dr.NISHA MAHARANA 4/23/2013 9:11 AM  

हतप्रभ से रह जाते हैं
अपनी परवरिश पर
एक प्रश्न चिह्न लिए हुये ......sacchi bat ....

Jyoti khare 4/24/2013 11:17 PM  

और हम -
हतप्रभ से रह जाते हैं
अपनी परवरिश पर
एक प्रश्न चिह्न लिए हुये ..---

गहन अनुभूति
मार्मिक रचना
बधाई

Alpana Verma 4/26/2013 10:33 AM  

इन घावों को भरने की शुरुआत अभी से करनी होगी.
अच्छी रचना.

Anju (Anu) Chaudhary 4/26/2013 4:46 PM  

सटीक लेखन

Anonymous,  4/26/2013 9:37 PM  

रचना के लिए बहुत सुन्दर विषय चुना है संगीता जी .... अक्सर या यूँ कहें कि ज्यादातर ऐसा होता है कि पुरानी पीढ़ी नयी पीढ़ी को आलोचक की नजर से ही देखती है या फिर उनको हमेशा छोटा या कम अनुभवी ही समझती रहती है ....बेशक यह पुरानी पीढ़ी का प्यार है लेकिन यह प्यार भी जब सामंजस्य से परे हो जाता है तो समस्याएं ही उत्पन्न करता है.

जब होता है विस्फोट तो ,रिश्तों का जिस्म
हो जाता है लहू - लुहान ,
और हम -
हतप्रभ से रह जाते हैं
अपनी परवरिश पर
एक प्रश्न चिह्न लिए हुये ...

ऐसी स्थिति न आये इसके लिए हमें यह समझना ही होगा कि जैसे पौधों को सही ढंग से बढ़ने के लिए उनके आस-पास खाली जगह छोड़नी पड़ती है वैसे ही नए उभरते व्यक्तित्व को भी सही ढंग से विकसित होने के लिए उन्हें भी वैचारिक स्वंतत्रता देनी ही चाहिए .... हमें उनके साथ तो होना चाहिए लेकिन उन पर बंदिशें डालने के लिए नहीं ... परम्पराओं के निर्वहन के लिए नहीं बल्कि उनकी जरूरत के वक़्त में उनकी तरफ हाथ बढ़ाकर उनको सहारा देने के लिये.

Manju Mishra
www.manukavya.wordpress.com

Note : I don't know why but I am not able to post comments on any blogger.com or blogpost blogs from my Wordpress id. it would be great if any one could suggest some solution.

Thanks

prritiy----sneh 6/02/2013 7:33 PM  

bilkul sahi baat kahi hai paramparaon ke naam par thope jate hai kuchh aisi rudhiyan jo bemani ho chuki aur kucch aisi jo nafrat failati hain.....

hame jaagna hoga aur ise aur aage nhi badhana hoga.

sunder rachna

shubhkamnayen

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