घायल रिश्ते
>> Tuesday, April 16, 2013
परम्पराओं के नाम पर
देखते हैं हम
नयी पीढ़ी को ,
एक आलोचक की दृष्टि से ,
और भरते रहते हैं
थोड़ा थोड़ा बारूद
उनके मन आँगन में,
नहीं देना चाहते आज़ादी
यह समझने की ,
कि इनसे होती हैं अपनी
जड़ें मजबूत ,
बिना जाने बूझे
बस निबाहते हैं
जब परम्पराओं को ,
तो आस्था का तत्व
नहीं होता उसमें ,
और एक दिन
यही बन जाता है एक
विध्वंसकारी विस्फोटक ,
जब होता है विस्फोट तो ,
रिश्तों का जिस्म
हो जाता है लहू - लुहान ,
और हम -
हतप्रभ से रह जाते हैं
अपनी परवरिश पर
एक प्रश्न चिह्न लिए हुये ......
58 comments:
परम्पराओं की बात तब आती है जब अति का तांडव होने की आशंका होती है ..... कभी बुज़ुर्ग अति करते हैं,कभी युवा पीढ़ी ............ कभी विनम्रता घातक,कभी संवेदना,कभी दूरी,कभी नजदीकी ......पलड़े पर कुछ नहीं होता
जब होता है विस्फोट तो ,
रिश्तों का जिस्म
हो जाता है लहू - लुहान ,
और हम -
हतप्रभ से रह जाते हैं
अपनी परवरिश पर
एक प्रश्न चिह्न लिए हुये .....जिनका जवाब उस वक़्त सिर्फ मौन होता है
बेहद गहन भाव लिए मन को छूती रचना
ये तो नहीं पता सच में परंपरा के नाम से उनको सिखाते हैं या जो खुद न कर सके उनके माध्यम से करना चाहते हैं ... पर कभी कभी अच्छी परंपरा भी गलत तरीके से दल जाती है ... जो विस्फोट की स्थिति ले आती है ...
पर अपने सही कहा ... इसके नाम पे सक कुछ थोपा जरूरी नहीं ...
वक़्त के साथ थोडा परिवर्तन जरूरी है परम्पराओं में भी. सब बदलते हैं, कुछ हमने भी बदलीं, कुछ आने वाली पीढीयाँ भी बदलेंगी अपनी जरुरत और समझ के अनुसार. तभी विकसित होगा स्वस्थ समाज. थोपी गई कोई भी चीज़ सकारात्मक नहीं होती.
बहुत ही सार्थक और प्रभावशाली रचना दी!.
बडा सटीक चित्रण किया है ………परम्परा के नाम पर होते दोहन का ।
बहुत सुंदर, अच्छी रचना
अच्छी रचना .बेहतरीन प्रस्तुति.आभार
परम्पराओं की चारदीवारी में खुलेपन की खिड़की से ताजा बयार ना हो तो विस्फोट होना ही है !
सार्थक विचार !
रिश्ते घायल हर जगह पर होते हैं। माता-पिता और बच्चों के अलाव अन्य रिश्ते भी घायल देखे जाते हैं। पर माता-पिता के रिश्ते बच्चों के साथ घायल हो तो पीढियां बर्बाद होने का खतरा होता है। इसी विषय पर प्रकाश डालती आपकी सुमदर कविता।
बुजुर्गों को अपने जवानी के दिन याद करने चाहिए, इस तरह शायद युवाओं की सोच समझने में कुछ मदद मिलें।
विचारशील कविता , लिखते रहिये… !
प्रश्न उठें अवश्य पर उत्तर न मिल पाने पर विरोधी न बन जायें।
विकारों को शरण देने से संस्कृति विकृति ही बनती है।
और एक दिन
यही बन जाता है एक
विध्वंसकारी विस्फोटक ,
जब होता है विस्फोट तो ,
रिश्तों का जिस्म
हो जाता है लहू - लुहान ,
और हम -
हतप्रभ से रह जाते हैं
अपनी परवरिश पर
एक प्रश्न चिह्न लिए हुये ......
दोनों पीढ़ी में तादात्म्य होना आवश्यक है ...
सामायिक सार्थक अभिव्यक्ति
पीढ़ी दर पीढ़ी यह प्रश्न बना रहता है
प्रश्न का उत्तर सबको पता भी रहता है
कोशिश कर कोई नहीं बदलना नहीं चाहता है
सादर !!
नयी और पुरानी पीढ़ी के बीच संतुलन हो तब न निबाह होगा परम्पराओं का और खिलेंगे रिश्ते...
बहुत अच्छी रचना है दी....
सादर
अनु
सही बात कही है दीदी...
जब दिल से परम्पराओं में आस्था नहीं उत्पन्न होगी...तब तक उसका निर्वाह होना बहुत मुश्किल है...
~सादर!!!
यह प्रश्न चिन्ह सही है और हमें आत्म विश्लेषण करना चाहिए कि गलती कहाँ हुई ??
रिश्ते घायल ना हों इसके लिये बहुत ज़रूरी है कि उनकी जड़ें सुसंस्कार व नैतिक मूल्यों के खाद पानी से मजबूत बनाई जाएँ ! जहाँ सतही औपचारिकताएं निभाई जाती हैं वहाँ किसी भी रिश्ते में स्थायित्व नहीं रहता ! बहुत सुंदर एवँ सशक्त रचना संगीता जी ! बधाई स्वीकार करें !
काश हर कोई यह समझ पाता और अपनी संतान को अपनी संपत्ति नहीं समझता..
परवरिश तो दिशा देने का नाम है, एक नियंत्रित दिशा..
प्रेरक!!!
बहुत सटीकता से आपने इस विषय को उठाया, अति गहन विषय.
रामराम.
बेहद सटीक सशक्त रचना,आभार संगीता जी,,
RECENT POST : क्यूँ चुप हो कुछ बोलो श्वेता.
सही बात...सामयिक भाव
सुंदर रचना
और एक दिन
यही बन जाता है एक
विध्वंसकारी विस्फोटक ,
जब होता है विस्फोट तो ,
रिश्तों का जिस्म
हो जाता है लहू - लुहान ,
और हम -
हतप्रभ से रह जाते हैं
आपकी नज्म़ पढ़ते-पढ़ते एक शेर निकल आया आपकी नज्र करता हूं-
जितनी जंजीरें हैं उनपर चोट करेगा.
वो बारूद का पुतला है, विस्फोट करेगा.
पुराना नये को जगह दे और नया उसे उचित मान-महत्व दे -सचेत दोनों पक्षों को रहना है.यह संघर्षण कोई नई बात नहीं.
परंपरायें कभी बनाई ही इसलिए गई थी कि, जीवन जीने के लिए सुविधा हो,आज समय बदल गया है तो परंपराओंमे बदलाव भी आना जरुरी है ! स्वतंत्रता के साथ नई पीढ़ी को यदि समझदारी भी दी जाय तो,वे खुद जान जायेंगे उचित क्या है अनुचित क्या है !
परंपराये बच्चों से बढ़कर उनकी ख़ुशीयों से बढ़कर नहीं है यह बात प्रत्येक माता -पिता
को समझ लेनी चाहिए !
शुभ प्रभात दीदी
परिवर्तन का चक्र
हमेशा चलायमान रहता है
अनुसार उसके...
सोच में ..
बदलाव भी..
अवश्यंभावी है
हम-आप...
दोनों को..
सहना होगा...
सादर
जब परम्पराओं को ,
तो आस्था का तत्व
नहीं होता उसमें ,
और एक दिन
यही बन जाता है एक
विध्वंसकारी विस्फोटक ,
जब होता है विस्फोट तो ,
रिश्तों का जिस्म
हो जाता है लहू - लुहान ,
बहुत ही गहरी रचना है.
सुन्दर अभिव्यक्ति...
बहुत ही अच्छा मुद्दा उठाया है आपने...सुंदर प्रस्तुति...बधाई स्वीकारें!
जब होता है विस्फोट तो ,
रिश्तों का जिस्म
हो जाता है लहू - लुहान ,
और हम -
हतप्रभ से रह जाते हैं
अपनी परवरिश पर
एक प्रश्न चिह्न लिए हुये .....जिनका जवाब उस वक़्त सिर्फ मौन होता है
बेहतरीन प्रस्तुति.आभार
latest post"मेरे विचार मेरी अनुभूति " ब्लॉग की वर्षगांठ
namste di
achchhi rachna.......:)
सुन्दर रचना |
कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
Tamasha-E-Zindagi
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दोनों पीढ़ियों के विचारो में सामंजस्य जरुरी है... इसे स्वीकारना होगा... गहन भाव ...आभार
विचारणीय कविता।
बेहतरीन और बहुत कुछ लिख दिया आपने..... सार्थक अभिवयक्ति......
बहुत बढ़िया
परम्पराओं को स्वस्थ और सम्यक बनाये रखने के लिए समय समय पर उनके स्वरुप पर विचार होते रहना चहिये . जरुरत पड़ने पर कांट छांट भी.
समय के साथ जीवन शैली में परिवर्तन स्वाभाविक है.जीवन मूल्यों में गिरावट नहीं आनी चाहिये.
परंपरा के नाम पर कुछ भी थोपा नहीं जाना चाहिए
हाँ, परंपरा का ज्ञान जरुर होना चाहिए
आस्था तो अन्दर की चीज है
सुंदर प्रभावपूर्ण ....
सादर !
नई पीढ़ी के साथ सम्ञ्ज्सय बैठाना बहुत जरूरी है।
शानदार रचना
हतप्रभ से रह जाते हैं
अपनी परवरिश पर
एक प्रश्न चिह्न लिए हुये ......
सचमुच चिंतनीय और विचारणीय
Smay ke sath ghayal hte rishte...
Behtrin prastuti.
बड़ा उलझा सवाल है ....हमारा अपने आप से ???
आज़ादी कभी दी नही गई ..आजादी हमेशा छिनी जाती है ..और हम अपने बहलाने को कहते हैं हमने आजादी दे दीऔर अब परम्पराओं के नाम पर हम अपने लिए कुछ मांगने के इच्छा रखते हैं ...जबकि वो हमारा भी हक है ..पर कौन जाने इसका जवाब ????
शुभकामनाये हम सब एक जैसों को .......!
(देर से आने की मज़बूरी को नज़र-अंदाज़ करें }
आभार !
सुन्दर और विचारणीय कविता ।
सच में अंध परंपराओं के नाम पर रिश्तों में विध्वंश की सदैव संभावना रहती है...बहुत सटीक और गहन अभिव्यक्ति...
बेहद सुन्दर रचना
आजकल घट रही घटनाओं ने सोचने को मजबूर कर दिया है अपनी परवरिश और परम्पराओं के बारे में. गंभीर और संवेदनशील प्रस्तुति.
हर पीढ़ी की अपनी एक खास पहचान, चाहत और जरुरत होती है। एक दूसरे को एक-दूसरे का सम्मान करना चाहिए।
हतप्रभ से रह जाते हैं
अपनी परवरिश पर
एक प्रश्न चिह्न लिए हुये ......sacchi bat ....
और हम -
हतप्रभ से रह जाते हैं
अपनी परवरिश पर
एक प्रश्न चिह्न लिए हुये ..---
गहन अनुभूति
मार्मिक रचना
बधाई
इन घावों को भरने की शुरुआत अभी से करनी होगी.
अच्छी रचना.
सटीक लेखन
रचना के लिए बहुत सुन्दर विषय चुना है संगीता जी .... अक्सर या यूँ कहें कि ज्यादातर ऐसा होता है कि पुरानी पीढ़ी नयी पीढ़ी को आलोचक की नजर से ही देखती है या फिर उनको हमेशा छोटा या कम अनुभवी ही समझती रहती है ....बेशक यह पुरानी पीढ़ी का प्यार है लेकिन यह प्यार भी जब सामंजस्य से परे हो जाता है तो समस्याएं ही उत्पन्न करता है.
जब होता है विस्फोट तो ,रिश्तों का जिस्म
हो जाता है लहू - लुहान ,
और हम -
हतप्रभ से रह जाते हैं
अपनी परवरिश पर
एक प्रश्न चिह्न लिए हुये ...
ऐसी स्थिति न आये इसके लिए हमें यह समझना ही होगा कि जैसे पौधों को सही ढंग से बढ़ने के लिए उनके आस-पास खाली जगह छोड़नी पड़ती है वैसे ही नए उभरते व्यक्तित्व को भी सही ढंग से विकसित होने के लिए उन्हें भी वैचारिक स्वंतत्रता देनी ही चाहिए .... हमें उनके साथ तो होना चाहिए लेकिन उन पर बंदिशें डालने के लिए नहीं ... परम्पराओं के निर्वहन के लिए नहीं बल्कि उनकी जरूरत के वक़्त में उनकी तरफ हाथ बढ़ाकर उनको सहारा देने के लिये.
Manju Mishra
www.manukavya.wordpress.com
Note : I don't know why but I am not able to post comments on any blogger.com or blogpost blogs from my Wordpress id. it would be great if any one could suggest some solution.
Thanks
bilkul sahi baat kahi hai paramparaon ke naam par thope jate hai kuchh aisi rudhiyan jo bemani ho chuki aur kucch aisi jo nafrat failati hain.....
hame jaagna hoga aur ise aur aage nhi badhana hoga.
sunder rachna
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