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हस्ताक्षर

>> Saturday, July 25, 2009




वातानुकूलित कक्ष में
बैठ कर
तुम करते हो फैसले
उन जिंदगियों के
जिनकी किस्मत में
बदबूदार बस्तियां हैं
कर देते हो
हस्ताक्षर
उन्हें ढहाने के
जिनकी ज़िन्दगी में
केवल झोपड़ - पट्टियाँ हैं.
क्यों कि
तुम्हारी नज़र में
शहर को सुन्दर बनाना
ज़रूरी है
पर ये
झुग्गी - झोपडियां
उनकी मजबूरी है.

मन और कक्ष तुम
सदैव बंद रखते हो
इसीलिए तुम
ऐसे फैसले कर देते हो
ज़रा अपने
मन और कमरे के
गवाक्षों को खोलो
और उनकी ज़िन्दगी के
गवाह बनो .

जिस दिन तुम
उनकी ज़िन्दगी
जान जाओगे
अपने फैसले पर
पछताओगे .
कलम तुम्हारा
रुक जायेगा
मन तुम्हारा
पीडा से
भर जायेगा
और खुद के किये
हस्ताक्षर पर
तुम्हारा ह्रदय
धिक्कार कर रह जाएगा ....

ख़ाक

>> Tuesday, July 21, 2009


ज्यों आतप से



भूतल झुलसा हो



जलधर को वो



निहार रहा हो



ऐसे ही ये



ह्रदय दग्ध है



नेह के बादल को



पुकार रहा हो।




रेतीली सी है



ये ज़िन्दगी



मरीचिका सी



दिखती है



दूर दृष्टि से



दिखे सरोवर



निकट पहुँच



बस रेत ही



तपती है।




छू कर



तुम मत



मुझे देखना



हाथ तुम्हारे



जल जायेंगे



अंगारा सी



बनी हुई मैं



ख्वाब तुम्हारे



मिट जायेंगे।




जलने का भी



एहसास न होगा



धुआं - धुआं ही



रह जायेगा



एक - एक



स्वप्न तुम्हारा



जब ख़ाक में


मिल जायेगा ॥

वेदना

>> Monday, July 20, 2009



अंतस की गहराई से
जब आह निकलती है
विलपत हो शब्दों में
तब वो रचना बनती है .

शब्दों को यूँ बाँध - बाँध कर
मन को बांधा करते हैं
अश्कों के सागर पर भी
यूँ बाँध बनाया करते हैं.

बंध जाता है बाँध जब
सागर में गोता खाते हैं
डूब - डूब कर एहसासों के
मोती लाया करते हैं .

मुट्ठी भर - भर कर जब मोती
आ जाते सागर के बाहर
उनकी माला पिरो - पिरो कर
खुद को बहलाया करते हैं .

बहला कर खुद के मन को
फिर नयी चेतना जगती है
स्वयं से ऊपर उठ कर फिर
नयी कल्पना सजती है .

नयी कल्पना फिर से मुझको
ले जाती है गहराई में
और गहराई तक जा कर
फिर से आह निकलने लगती है.

इन आहों के आने - जाने से
मन में पीडा होती है
हर नए सृजन के लिए शायद
वेदना भी ज़रूरी होती है.

भ्रम

>> Saturday, July 11, 2009


हर भावों के रंगों से

रंजित थी उसकी काया

अनभिग्य सा भाव दिखा कर

उसने मेरे मन को भरमाया ।


भ्रम था उसको इसी बात का

कि मैंने चेहरा उसका नहीं पढ़ा

उसके रुखसारों कि लाली को

मैं देख रहा था खडा -खडा।


वदन पलाश फूल बना था

आँखों में झील उतर आई थी

इन्द्रधनुष के रंगों से फिर

सारी दुनिया सज आई थी ।


रक्ताभ अधर पर जैसे

सूर्य किरण सी बिखरी थी

कहने को कुछ मन विचलित था

संकुचित सी खुद में सिमटी थी ।


सब पढ़ आया एक नज़र में

खुद अनभिग्य सा बना हुआ

यही भ्रम बना रहे उसको भी

कि मैंने उसका चेहरा नहीं पढ़ा.

एक प्रश्न

>> Thursday, July 9, 2009


मैं एक

भीषण रेगिस्तान

की मानिंद

जहाँ

छाँव के लिए

दरख्त नही

बस

चुभन के लिए

नागफनी हैं।


तुम सोचते हो

कि

इस रेगिस्तान में

कहीं मीठे जल का

स्रोत होगा

पर

शायद नही मालूम

कि

यहाँ खारा पानी भी

बामुश्किल मिलेगा ।



मरीचिका देख

तुम दौड़ जाते हो

कि

अब तो प्यास

बुझ ही जायेगी

पर

ये नही जानते

कि

हाथ में बस

रेत ही आएगी ।


रेत-

वो भी

अंगारे सी तपती हुई

जिसे मात्र छूने से

पड़ जाते हैं छाले

हाथ में

तो क्या समझूँ?

क्या चल पाओगे

मुझ जैसे रेगिस्तान के

साथ में ?






पावस



पावस की पहली बूंदें


जब धरती पर आती हैं


जीवन को कुछ नई चेतना ,


कुछ नया संदेशा दे जाती हैं।




धरती की उस नम गोद से


नव अंकुर फूटा करते हैं


सूखी धरती पर हरियाली


और सबके चेहरे खिलते हैं।




आतप भाग खड़ा होता है


ठंडी बयार आ जाती है


झुलस रहा था उपवन सारा


वहां बहार छा जाती है।




घनघोर घटाओं से जब


अम्बर भी पट जाता है


बरखा की फुहारों से तब


तन - मन सिंचित हो जाता है ।




बारिश के आने से देखो


खिल जाती है क्यारी - क्यारी


भीग - भीग कर बच्चे देखो


गुंजा रहे धरती सारी ।




यौवन की दहलीज़ पर लगती


वर्षा ऋतु न्यारी - न्यारी ,


इसीलिए भाती है सबको


पावस ऋतु प्यारी - प्यारी .

हमारी वाणी

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