ख़ाक
>> Tuesday, July 21, 2009
ज्यों आतप से
मिल जायेगा ॥
भूतल झुलसा हो
जलधर को वो
निहार रहा हो
ऐसे ही ये
ह्रदय दग्ध है
नेह के बादल को
पुकार रहा हो।
रेतीली सी है
ये ज़िन्दगी
मरीचिका सी
दिखती है
दूर दृष्टि से
दिखे सरोवर
निकट पहुँच
बस रेत ही
तपती है।
छू कर
तुम मत
मुझे देखना
हाथ तुम्हारे
जल जायेंगे
अंगारा सी
बनी हुई मैं
ख्वाब तुम्हारे
मिट जायेंगे।
जलने का भी
एहसास न होगा
धुआं - धुआं ही
रह जायेगा
एक - एक
स्वप्न तुम्हारा
जब ख़ाक में
मिल जायेगा ॥
7 comments:
कही गहरे उतर गया आपका ये शेर.......... लाजवाब ग़ज़ल......... प्रणाम
कही गहरे उतर गयी आपकी रचना .......
laajwaab
गहरे छुनेवाले भाव
Adarneeya sangeeta ji,
bahut achchhee lagee apakee panktiyan.....
Poonam
बहुत अच्छा लगा पढ़कर !
शुभकामनाएँ
आज की आवाज
संगीता जी..
जिन्दगी सच में मृगमरीचिका ही तो है...बहुत खूबसूरती से इस बात को आपने दर्शाया..और उस पर अपने साथी को आगाह करना...वाह क्या बात है..
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