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लक्ष्य

>> Saturday, November 21, 2009



उम्र की ढलान पर
ज़िन्दगी जैसे
लक्ष्य - विहीन सी
हो जाती है
पंखों की क्षमता जैसे
सारी त्वरित शून्य सी
हो जाती है .
कटे - फटे पंखों से
कब कोई विहग
उड़ पाता है
अपने परों को देख - देख
मन उदास सा
हो जाता है .

जब ताकत थी पंखों में तो
क्षितिज भी
दूर नहीं लगता था
उन्मुक्त गगन में जैसे
मन का पंछी
विचरण करता था .

अब एक उड़ान के लिए
मन विह्वल हो जाता है
गर चाहूँ पाना कुछ भी
लक्ष्य कहीं खो जाता है.

सख्त ज़मीन

>> Tuesday, November 17, 2009

अहम् जब
जमा लेता हैं जड़ें
सोच के वृक्ष पर
और
हर टहनी से
निकलने लगती हैं
छोटी - छोटी जड़ें
जो तेजी से
बढ़ती हैं
धरती की ओर
अन्दर धंसने के लिए .

जब ये
धंस जाती हैं
पूरी तरह से तो
धरती सख्त हो जाती है
और इन जड़ों को
निकालने की हर कोशिश
व्यर्थ हो जाती है
क्यों कि ये
मन की ज़मीन के
अन्दर ही अन्दर
एक दूसरे से
इस कदर उलझ जाती हैं
कि एक को
निकालने की कोशिश में
दूसरी बाहर आ जाती है

फिर इस वृक्ष को
अपने हाल पर ही
छोड़ना होता है
हर टहनी पर उगी
जड़ का बोझ
इसे स्वयं ही
ढोना होता है
वक़्त के साथ - साथ
ये जड़ें भी
सूख जाती हैं और
सख्त होती ज़मीन
कुछ नर्म भी हो जाती है

वादा

>> Monday, November 9, 2009


सांझ समय
बैठी थी
पुष्प वाटिका में
कि
यादों के झुरमुट से
निकल कर आ गया था
चेहरा तुम्हारा सामने
आँखों में प्यास लिए।
तुम्हें देख
थिरक आई थी
मुस्कान मेरे लबों पर ।
ये देख
लगे थे करने चहलकदमी ।
जैसी कि
तुम्हारी आदत थी ।
तुम्हें देखते हुए
थक जाती थी
ग्रीवा मेरी
इधर से उधर
करते - करते।
तभी ऐसा लगा कि
तुम कह रहे हो
क्या होगा ?
हमारे अरमानो का
सपनो का
चाहतों का ।
धीरे से मैंने कहा कि
सब बिखर गए हैं
और
अब बिखरे हुए
ख़्वाबों को
चुना नहीं जाता है
गर चुनना भी चाहूँ तो
हाथ लहू - लुहान
हुआ जाता है ।
लगा कि तुमने
मेरे कंधे झिंझोड़ दिए हैं
और मैं जैसे
नींद से जाग गयी ।
मेरी बेटी
मेरे कन्धों पर
हाथ रख कर
कह रही थी कि
माँ, सपने क्यों
बिखर जाते हैं ?
मन के छाले
क्यों फूट जाते हैं ?
ये आंसू भी सब कुछ
क्यों कह जाते हैं ?
मुझे लगा कि
मेरी बेटी
अब बड़ी हो गयी है
मैंने उसे देखा
एक गहरी नज़र से
और कहा कि
मैं तुम्हारे हर ख्वाब
चुन लुंगी
अरमानो का खून
नहीं होने दूंगी
आँख से कतरा
नहीं बहने दूंगी
ये वादा है मेरा तुमसे
एक माँ का वादा है
जिसे मैं ज़रूर
पूरा करुँगी.

मौन

>> Wednesday, November 4, 2009

जब व्यापता है

मौन मन में

बदरंग हो जाता है

हर फूल उपवन में

मधुप की गुंजार भी

तब श्रृव्य होती नहीं

कली भी गुलशन में

कोई खिलती नहीं ।

शून्य को बस जैसे

ताकते हैं ये नयन

अगन सी धधकती है

सुलग जाता है मन ।

चंद्रमा की चांदनी भी

शीतलता देती नहीं

अश्क की बूंदें भी

तब शबनम बनती नहीं ।

पवन के झोंके आ कर

चिंगारी को हवा देते हैं

झुलसा झुलसा कर वो

मुझे राख कर देते हैं

हो जाती है स्वतः ही

ठंडी जब अगन

शांत चित्त से फिर

होता है कुछ मनन

मौन भी हो जाता है

फिर से मुखरित फूलों पर छा जाती है इन्द्रधनुषी रंजित अलि की गुंजार से मन गीत गाता है विहग बन अस्मां में उड़ जाना चाहता है ..

हमारी वाणी

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