जुगुप्सा की प्यास
>> Sunday, October 17, 2010
नमक के बिना
स्वाद नहीं आता
खाने में ,
और
जिंदगी में भी
नमक
होना ही चाहिए
दोस्त भी
घुल जाते हैं
पानी में
नमक की तरह
और भूल जाते हैं
कि कभी
रहता था उनका
अलग वजूद .
पर अग्निकण जब
वाष्पित कर देते हैं
पानी को
तो रह जाता है
मात्र नमक
रुक्षता लिए हुए ,
बढ़ जाती है तब
जुगुप्सा की प्यास
नहीं दिखता फिर
कोई आस - पास
न कोई स्नेह धार
फूटती है
न ही कोई शीतल
झरना बहता है
अपने - अपने
अहम के दावानल में
फिर इंसान
स्वयं ही
स्वयं को झोंकता है .
चाहते हो गर
अग्नि से बचना
तो ,
जुगुप्सा की प्यास पर
काबू पाओ
मिल जायेंगे फिर
मीठे झरने
बस तुम
चिंगारी को
मत हवा दिखाओ ...
81 comments:
आप भावनाओ को उद्घृत करने के लिए प्रयुक्त बिम्बों से चमत्कृत कर देती हो . मानवीय संबंधो की रासायनिक क्रिया के माध्यम से संतृप्त विलयन वाली अभिव्यक्ति .
संयत कवित्व से भरपूर कविता में आपका व्यापक सरोकार निश्चित रूप से मूल्यवान है। काव्यभाषा सहज है। इनमें कल्पना की उड़ान भर नहीं है बल्कि जीवन के पहलुओं को देखने और दिखाने की जद्दोजहद भी है।
जुगुप्सा की प्यास पर
काबू पाओ
मिल जायेंगे फिर
मीठे झरने
बस तुम
चिंगारी को
मत हवा दिखाओ
बस यही सार है ..काश समझ जाये हर कोई तो कोई भी रिश्ता न टूटे.
बेहतरीन रचना दी ! एक एक पहलु को सलीके से समझती हुई.
चाहते हो गर
अग्नि से बचना
तो ,
जुगुप्सा की प्यास पर
काबू पाओ
मिल जायेंगे फिर
मीठे झरने
बस तुम
चिंगारी को
मत हवा दिखाओ ...
संबंधों के बिखराव और बचाव का बहुत ही सुन्दर रासायनिक विश्लेषण और उपचार..बहुत ही सुन्दर विम्बों का प्रयोग...बधाई..
चाहते हो गर
अग्नि से बचना
तो ,
जुगुप्सा की प्यास पर
काबू पाओ
yathaarth rachaa-basaa hai har panktimein, badhaai!
चाहते हो गर
अग्नि से बचना
तो ,
जुगुप्सा की प्यास पर
काबू पाओ
-पते की बात....बहुत बढ़िया. :)
एक सुंदर संदेश देती आप की यह सुंदर कविता, धन्यवाद
विजयादशमी की बहुत बहुत बधाई
bahut hi khubsurti se likha hai aapne..
achhi lagii rachna...
मित्रता को केन्द्रित करके अच्छी रचना दी है। सही मायने में मित्र वही होते हैं जो एक दूसरे के मन के पूरक होते हैं, उनकी भावनाएं एक होती हैं तभी तो वे पानी में नमक की तरह घुल जाते हैं और पृथक वजूद में दृष्टिगत नहीं होते। लेकिन हमारी सांसारिक इच्छाएं कहाँ रहने देती हैं किसी मित्र को केवल मित्र? अच्छी कविता है। बधाई।
मानवीय संबंधों का बहुत सुन्दर विश्लेषण.संगीता ,जी भाव और भाषा दोनों पर अच्छी पकड़ है आपकी .
5/10
रचना में उत्कृष्ट भाव हैं, नयापन है, प्रयोग है.
पोस्ट आम पाठक के लिए नहीं है.
बड़ी सुन्दर सलाह है आपकी।
मिल जायेंगे फिर
मीठे झरने
बस तुम
चिंगारी को
मत हवा दिखाओ ...
--
आपकी रचना सत्य ही बोलती है!
--
असत्य पर सत्य की विजय के पावन पर्व
विजयादशमी की आपको और आपके परिवार को
बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!
चाहते हो गर
अग्नि से बचना
तो ,
जुगुप्सा की प्यास पर
काबू पाओ
बहुत कुछ कह दिया आपने तो नामक के बहाने
चाहते हो गर
अग्नि से बचना
तो ,
जुगुप्सा की प्यास पर
काबू पाओ
मिल जायेंगे फिर
मीठे झरने
बस तुम
चिंगारी को
मत हवा दिखाओ ...
bahut sundar... Namak aur dost.. aur unki katha aik taraajo me rakh kar bahut sundar dhang se aapne kuch kaam ki baate bata dee..
बहुत खूबसूरत रचना संगीता जी ! बस इन्ही मीठे झरनों की तलाश में कभी कभी सारा जीवन बीत जाता है और मीठे पानी की प्यास लिये अधर तृषित ही रह जाते हैं ! अति सुन्दर !
.
तो ,
जुगुप्सा की प्यास पर
काबू पाओ
मिल जायेंगे फिर
मीठे झरने
बस तुम
चिंगारी को
मत हवा दिखाओ ...
हमेशा की तरह एक बेहद प्रभावी अभिव्यक्ति --आभार
.
sandesh deti aapki yah panktiyan...
Adbhut Rachna ..
VIKAS PANDEY
www.vicharokadarpan.blogspot.com
सुंदर सलाह और सार्थक सन्देश देती रचना ..... दशहरे की शुभकामनाएं
बढ़ जाती है तब
जुगुप्सा की प्यास
नहीं दिखता फिर
कोई आस - पास
न कोई स्नेह धार
फूटती है
न ही कोई शीतल
झरना बहता है
अपने - अपने
अहम के दावानल में
फिर इंसान
स्वयं ही
स्वयं को झोंकता है...
हमेशा की तरह...बहुत उम्दा रचना.
विजयदशमी पर्व की शुभकामनाएं
चाहते हो गर
अग्नि से बचना
तो ,
जुगुप्सा की प्यास पर
काबू पाओ
बहुत सुन्दर .. सद्विचार
गहरा अर्थ
जब तक हम एक दूसरे में पानी और नमक बन घुले मिले रहते हैं तो जिंदगी में भी स्वाद बना रहता है. पर जब परिस्थितियों की आंच अगर हमें अपने चरित्र को ही नकार देने के लिए विवश कर देती है तो जिंदगी भी अपना स्वाद खो देती है. आपसी संबंधो की एक कड़ी, मित्रता के अंतर्संबंधों की सच्चाई को उजागर करती, एक दूसरे के लिए दावानल की जगह शीतल झरना बने रहने का संदेश देती, एक बेहद भाव प्रवण रचना जो बड़ी खूबसूरती से मन में एक अमिट छाप छोड़ जाती है. आभार.
सादर
डोरोथी.
Bahut sunder.
चाहते हो गर
अग्नि से बचना
तो ,
जुगुप्सा की प्यास पर
काबू पाओ
चाहते हो गर
अग्नि से बचना
तो ,
जुगुप्सा की प्यास पर
काबू पाओ
बहुत सुन्दर रचना
बहुत कुछ सिखाती है !
संगीता जी मेरे ब्लॉग पर भी पधारें..
ज़िन्दगी अधूरी है तुम्हारे बिना.. ....
बस तुम
चिंगारी को
मत हवा दिखाओ .
वह क्या बात है............कितनी सहज़ता से अपनी ही क्या हम सब की बात कह गयीं....
हार्दिक बधाई.........
चन्द्र मोहन गुप्त
मुझे तो यहां दो कवितायें दिखाई दीं वो भी एकदम अलग अलग !
१.नमक के बिना ...नमक रुक्षता लिए हुए !
२.बढ़ जाती है ...मत हवा दिखाओ !
इन दोनों कविताओं को 'बढ़ जाती है के' साथ 'तब' लगा कर जोड़ा गया है यहां 'जब' का प्रयोग करते ही दोनों कविताएं अलग अलग हो जायेंगी वैसे भी दोनों हिस्से एक दूसरे से अलग अलग तो हैं ही !
मेरे ख्याल से अग्नि कणों से वाष्पित हो नमक रह जाने और नमक के फिर से पानी में घुल जाने का चक्र निरंतर और प्राकृतिक है तथा इसमें जुगुप्सा को घुसाना अनावश्यक /अप्राकृतिक है ! इसलिए पहली कविता यहीं पर पूर्ण हुई !
दूसरी कविता जुगुप्सा की प्यास बढनें से शुरू होकर एक सन्देश पर खत्म होती तो इसमें बेचारा नमक और उसकी रुक्षता कहाँ से आ गयी ?
मैंने जो कहा वो मेरा व्यक्तिगत ख्याल है बाकी कवि आप हैं ,कविता आपकी है उससे जैसा चाहें सुलूक करें आपका अधिकार है !
जमें नहीं तो टिप्पणी डिलीट कर दीजियेगा !
अद्भुत! रचनाओं के द्वारा संदेश हो तो सबका भला है। बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
बेटी .......प्यारी सी धुन
कविता अच्छी है संगीता जी !
विजय दशमी की शुभकामनायें !
so totally right dadi...bohot bohot acchi kavita hai
luv u dadi
शुभ प्रभात दी,
हरियाली के लिए नमी जरुरी है... रिश्तों के लिए भी...
कोई सम्बन्ध स्पष्ट नहीं दिखता पर पता नहीं क्यूँ आपकी रचना पढ़कर गुलज़ार साहब की यह नज़्म याद आ गयी...
"मुझको भी तरकीब सिखा दे यार जुलाहे...
अक्सर देखा है कि ताना बुनते
जब कोई तागा टूट गया
या ख़त्म हुआ,
फिर से बाँध के या
सिरा कोई जोड़ के उसमें,
आगे बुनने लगते हो,
लेकिन तेरे इस ताने में
इक भी गाँठ गिरह बुन्तर की
देखा नहीं सकता है कोई...
मैंने भी बुनना चाह था
इक ताना रिश्तों का
लेकिन उसकी सारी गांठे
साफ़ नज़र आती हैं, मेरे यार जुलाहे...
मुझको भी तरकीब सिखा दे यार जुलाहे... "
बढ़िया कविता के लिए और विजयोत्सव की बधाई.
मानवीये संबन्धो का गहन विश्लेषण्……………यही तो रिश्तों की भाषा है जो कोई समझ ना पाता है।
जुगुप्सा खुद ही एक प्यास हैं !
बस तुम
चिंगारी को
मत हवा दिखाओ
हमेशा की तरह एक बेहद प्रभावी अभिव्यक्ति --आभार
जुगुप्सा ही रिश्तों को बिगाड़ती है.अपवित्र करती है.सही कहा आपने.
Main to Padhte hi Namkeen Ho gaya.
kavita salty context me hain. but sweet he,
bahut achhe se aapne samjhaya he
badhai
जुगुप्सा की प्यास पर
काबू पाओ
मिल जायेंगे फिर
मीठे झरने
बस तुम
चिंगारी को
मत हवा दिखाओ ...
कविता में बड़े सुन्दर भावों को समेट कर रखा है , गर ये समझ ही आ जाये तो फिर कुछ और ही रूप हो इस दुनियाँ का और मानव का.
मै अपनी अल्प बुद्धि से इतना कहना चाहूँगा की कविता में अगर दो या दो से ज्यादा भावो को प्रकट करने के लिए किसी जब या तब प्रयोग है तो बुरा क्या है . कहने को तो ये भी कहा जा सकता है की नमक ही क्यू , शक्कर क्यू नहीं ? कम से कम वहा रुक्षता तो नहीं मिठास महसूस होती दोस्ती की . और हा शायद ये भी कहा जा सकता है कि वाष्पीकरण के लिए single या multiple evaporators प्रयोग किये गए ये भी नहीं है कविता में .
prabhavi bhaav vyakt hue hain!
regards,
अच्छा सन्देश! अच्छे विचार !
सराहनीय !
अच्छा सन्देश! अच्छे विचार !
सराहनीय !
इस बार मेरे नए ब्लॉग पर हैं सुनहरी यादें...
एक छोटा सा प्रयास है उम्मीद है आप जरूर बढ़ावा देंगे...
कृपया जरूर आएँ...
सुनहरी यादें ....
सभी पाठकों का आभार ..
अरविन्द जी ,
जुगुप्सा का अर्थ निंदा है ..अब आप इसे प्यास भी कह सकते हैं ..
अलि जी ,
आपकी सोच अपनी जगह दुरुस्त हो सकती है ...लेकिन बहुत बार अपनी बात कहने के लिए दो चीज़ों की तुलना की जाती है ..
यहाँ भी कुछ ऐसा ही है ..मित्रता में कभी कभी इतना घुल जाते हैं जैसे पानी में नमक ...और यदि मित्र से अपेक्षाएं पूरी नहीं होतीं
तो इतने अग्निबाण चलते हैं कि मित्रता मात्र रुक्षता लिए नमक कि तरह हो जाती है ..सारा पानी यानी प्रेम बाष्प बन कर उड़ जाता है ..
उससे भी मन नहीं भरता तो निंदा करके प्यास बुझाने का असफल प्रयत्न किया जाता है ..निंदा भी तो उसी की करी जाती है जिसके बारे में आप सब जानते हों ..
फिर यह भी नहीं दिखाई देता कि आप किससे निंदा कर रहे हैं ..मैंने इस परिस्थिति को जोड़ने का प्रयत्न किया है ...बाकी तो पाठक के ऊपर है कि वो किस तरह रचना को लेते हैं ...आपने इस रचना पर अपने विचार दिए ..आपका आभार ..
नमक के बिना
स्वाद नहीं आता
खाने में ,
और
जिंदगी में भी
नमक
होना ही चाहिए
दोस्त भी
घुल जाते हैं
पानी में
नमक की तरह
बहुत ही सुन्दर बढ़िया रचना .... आभार
मिल जाएंगे
फिर मीठे झरने
बस तुम
चिंगारी को
मत हवा दिखाओ...
यथार्थ को रेखांकित करती एक भावमयी रचना।
अग्निकण जब
वाष्पित कर देते हैं
पानी को
तो रह जाता है
मात्र नमक
रुक्षता लिए हुए ,
जीवन का एक सच यह भी है.....बहुत पते कि बात कह दी है, कविता के माध्यम से
चाहते हो गर
अग्नि से बचना
तो ,
जुगुप्सा की प्यास पर
काबू पाओ
सब समझ जाते तो... :)
बहुत ख़ूबसूरत नज़्म, शब्द :)
बड़े दिन बाड़ा आया मैं तो देर से पढ़ पाया...
बहुत अच्छी कविता, दी ! बहुत कुछ दिया सोचने और गुनने के लिये।
नमन!
जहाँ तक मैं समझी हूँ जुगुप्सा का अर्थ नफरत/ घृणा है और इसी अर्थ को ध्यान में रख कर इस रचना को पढ़ा और समझा है.
चाहते हो गर
अग्नि से बचना
तो ,
जुगुप्सा की प्यास पर
काबू पाओ
मिल जायेंगे फिर
मीठे झरने
बस तुम
चिंगारी को
मत हवा दिखाओ
जीवन की और दोस्ती की सफलता का मन्त्र देती एक सुंदर रचना का सृजन किया है आपने. इस मार्गदर्शन के लिए बहुत बहुत शुक्रिया.
वाह दोस्ती पर अच्छा लिखा आपने....
दशहरे की शुभकामनाएं...
aap bahut achha likhti hai
bahut achhi rachna
hamesa ki tarah
sangeeta bahut sunder sandesh detee ye rachana mujhe bahuuuuuuuuut pasand aaee.........
aur chingaree ko hava dena to aag lagane walee baat hogayee...........
laajawab lekhan .
अपने- अपने अहम् के दावानल में
जल जाते हैं स्नेह के तंतु ...
बहुत सुन्दर सार्थक कविता ..
आभार ...!
आपसी संबंध और सामंजस्य पर सार्थक रचना ।
दीदी,
सार्थक,
अहम के दावानल में
फिर इंसान
स्वयं ही
स्वयं को झोंकता है .
चाहते हो गर
अग्नि से बचना
तो ,
जुगुप्सा की प्यास पर
काबू पाओ ।
बहुत ही सुन्दर एवं भावमय प्रस्तुति ।
हर हाल में नमक जरूरी है।
खूबसूरत बिम्बों के माध्यम से कविता और भी रोचक बन जाती है...बधाई.
बहुत सुन्दर संदेश दिया है।
घुघूती बासूती
बहुत ख़ूबसूरत और लाजवाब रचना! आपकी लेखनी की जितनी भी तारीफ़ की जाए कम है!
कविता मन की भावनाओं को किस कदर अलन्कृत कर देती है, यह देखने को मिलता है। बहुत ही सुन्दर एवम मार्मिक प्रस्तुति……आभार।
kahan ho dadi....long time...
वाह बेहद सुन्दर भावाभिव्यक्ति..........
सार्थक एवं प्रभावी पोस्ट के लिए बधाई स्वीकार करें.....
अहम के दावानल में
फिर इंसान
स्वयं ही
स्वयं को झोंकता है .
बहुत सुन्दर रचना ... बधाई
चाहते हो गर
अग्नि से बचना
तो ,
जुगुप्सा की प्यास पर
काबू पाओ
मिल जायेंगे फिर
मीठे झरने
बस तुम
चिंगारी को
मत हवा दिखाओ ...
hamesh ki tarah gehri aur sunder baat... saadar!
oh my god masi jaan
kya baat hai, kya image banai hai.. Brilliant
कितनी सुन्दर बात कही आपने...
बस मुग्ध कर लिया आपकी इस रचना के भाल और कला पक्ष ने...
दीदी,
मेरे 'घर' पर एक प्रसंसा दृष्टि…।
http://shrut-sugya.blogspot.com/2010/10/blog-post_21.html
बहुत सुंदर ....
जीवन का सन्देश देती है आपकी रचना संगीता जी ......
बहुत सुन्दर भाव....
काश हम यह समझ पाते..
कभी भी रिश्तों में दरार न आती ।
नमक...यानी ‘लवण’। ...और ‘लवण’ ज़रूरी है जीवन में ‘लावण्य’ के लिए!
संगीता जी...आपकी यह रचना काफी पसंद आयी।
..लेकिन क्षमा करें, मैं एक जगह पर अटक गया हूँ- ‘जुगुप्सा की प्यास’ पर। जुगुप्सा का अर्थ(जैसा कि मैं समझता हूँ)है-
किसी घृणास्पद वस्तु को देखकर उससे संबंध न रखने की मनोभावना। ऐसे में,मैं आपका आशय और अभिप्राय नहीं निकाल पा रहा हूँ। बेहतर हो कि आप कुछ प्रकाश डालें।
आशा है, इसे सही परिप्रेक्ष्य में लेंगी! मेरा उद्देश्य आपको या किसी को पीड़ा पहुँचाना नहीं है।
अब आपको कष्ट करने की ज़रूरत नहीं है... मैंने स्वयं ही समझने में भूल की थी। सब कुछ तो यहाँ पर स्पष्ट है..जी! इस पंक्तियों से कि-
"जुगुप्सा की प्यास पर
काबू पाओ"
दरअस्ल Confusion यहाँ पर हुआ था मुझे-
"बढ़ जाती है तब
जुगुप्सा की प्यास"
यदि आपको कोई पीड़ा हुई हो,उसके लिए क्षमाप्रार्थी हूँ।
जितेन्द्र जी,
आपने मेरी रचना में इतनी रूचि दिखाई ...आभारी हूँ ...आपने केवल जीवन के लावण्य तक की बात कही है.... मैंने मित्रता को भी लिखा है ...और जब दोस्ती से पानी रुपी प्रेम और विश्वास ख़त्म हो जाता है तो बस खारापन बचा रह जाता है ...जिससे मन में दोस्त के प्रति निंदा या घृणा की भावना आ जाती है ...और तब वह अपनी दोस्ती को भूल हर जगह निंदा करता रहता है ...मेरा कहने का अर्थ केवल इतना ही है कि भले ही आपकी दोस्ती ख़त्म हो जाये पर दोस्त कि निंदा करना उचित नहीं है ..कभी तो अच्छे दोस्त रहे ही थे न....
bahut sundar badhai sangeetaji karva chauth ki shubhkamnayen
चाहते हो गर
अग्नि से बचना
तो ,
जुगुप्सा की प्यास पर
काबू पाओ
मिल जायेंगे फिर
मीठे झरने
बस तुम
चिंगारी को
मत हवा दिखाओ ..
कवि की ये विशेषता है जो वो कहना चाहता है कुछ ही शब्दों में कह देता है .... सरलता से बहुत गहरी बात कही है आपने ...
padhkar bahut achcha laga.hamesha ki tarah.
चाहते हो गर
अग्नि से बचना
तो ,
जुगुप्सा की प्यास पर
काबू पाओ........
बहुत अच्छी रचना भावों को पकड़ा है आपने .....
तराशा है .......
धन्यवाद.......
http://nithallekimazlis.blogspot.com/
sangeeta ji
bahoot hi sunder tarike se aapne bhavo ko ukera hai............ very nive
हर बार की तरह मैंने आपकी इस कविता को भी ध्यान से पढ़ा.
इस कविता के माध्यम से दिया गया आपका सन्देश बहुत अच्छा है.
तुलसी ने भी कहा है
'नमक के बिना कैसा व्यंजन'
आपने उसे भिन्न सन्दर्भ में प्रयोग किया है | अच्छा है | रमेश जोशी
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