संधि - विच्छेद
>> Tuesday, October 5, 2010
कुछ सम्बन्ध
बन जाते हैं
यकायक
और कुछ को
पड़ता है बनाना
या यूँ कहें कि
बना दिए जाते हैं
जो सम्बन्ध
उनको पड़ता है
निबाहना ,
और इस
निबाहने की
प्रक्रिया में
कहाँ हो पाती है
संबंधों में संधि ?
सिर के ऊपर की
एक छत
सम्बन्ध के विच्छेद को
दृष्टिगत नहीं होने देती .
एक साथ रह कर भी
एक दूसरे से
निबाहते हुए
कभी एक होने नहीं देती .
भावनाएं मर जाती हैं
प्रेम पनपता ही नहीं
फिर भी लोग
कहते है कि
सम्बन्ध - विच्छेद
हुआ ही नहीं ..
और इसी तरह
ढोते चले जाते हैं
भार ज़िन्दगी का
शायद संधि होती है तब
जब विच्छेद होता है
आत्मा और शरीर का .....
76 comments:
शायद संधि होती है तब
जब विच्छेद होता है
आत्मा और शरीर का .....
बेहद गहन और सूक्ष्म अभिव्यक्ति……………हर अनकहा कह दिया और वो भी बडी सादगी के साथ मगर गंभीरता बरकरार रखी।
यह तो पूरी तरह से बुद्धि विच्छेदक कल्पना है !
बहुत खूब , लिखते रहिये ...
सत्य ... अक्सर जीवन में ऐसा होता है .
वर्तमान जीवन के सन्दर्भ में सार्थक रचना .
आभार ..............
bahut hi khubsurat rachna..... aapka lekhan hamesha mere liye prerna shrot raha hai...
mere is vichaar par aapki tippani chahunga.....
http://i555.blogspot.com/2010/10/blog-post_04.html#comments
Haan aur kai baar humein bhi nahi pata hota h k samandh hai ya vichchhedit ho chuka h.. beatiful poem as always...
और इसी तरह
ढोते चले जाते हैं
भार ज़िन्दगी का
शायद संधि होती है तब
जब विच्छेद होता है
आत्मा और शरीर का...
बहुत गहन भाव और गहन अभिव्यक्ति
संबंधो के सम्बन्ध में एक खूबसूरत कविता . वो तो हमेशा ही खूबसूरत होती है . खूबसूरत सम्बन्ध है आपका , आपकी लेखनी से .
suder....bhavatmak....sadhuwad...
गहरी दृष्टिपूर्ण, विचार उत्प्रेरक अभिव्यक्ति के लिए बहुत-बहुत आभार। -: VISIT MY BLOG :- जमीँ पे है चाँद छुपा हुआ।...........कविता को पढ़कर अपने अमूल्य विचार व्यक्त करने के लिए आप सादर आमंत्रित हैँ। आप इस लिँक पर क्लिक कर सकती हैँ।
sach...satvachan
भावनाएं मर जाती हैं
प्रेम पनपता ही नहीं
फिर भी लोग
कहते है कि
सम्बन्ध - विच्छेद
हुआ ही नहीं ..
......क्या खूब संबंधों की वास्तविकता का चित्रण किया है....बहुत सशक्त अभिव्यक्ति....आभार .
जब विच्छेद होता है
आत्मा और शरीर का .
दी ! कई बार तो इसके बाद भी संधि नहीं होती. रिश्ता बनना और उसे निभाना दो अलग बातें है ..अपने बहुत सहजता से समझा दिया .
बहुत ही खूबसूरत अभिव्यक्ति है.
फिर भी लोग
कहते है कि
सम्बन्ध - विच्छेद
हुआ ही नहीं ..
यही तो चक्कर है....मजबूरी के रिश्ते लोगों को नज़र नहीं आते...बहुत ही गहन भाव छुपा है कविता में.
"रिसते रिश्ते". गहराई से आती रचना, गहराई तक जाती रचना.....
ऎसे रिश्तो से तो सम्बंध विच्छेद ही अच्छा, दोनो खुल कर तो जी सके , बहुत अच्छी लगी आप की रचना, धन्यवाद
चाहे अनचाहे रिश्तों पर गूढ़ मनन की हुई सशक्त अभिव्यक्ति.
बधाई.
सही कहा आपने पहले संधि तो हो।
गहरे भावों की भाषा।
बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति......अनचाहे रिश्ते पर अच्दी कविता
बहुत ही सशक्त अभिव्यक्ति ! कितनी सच्ची बात कह दी आपने ! जाने कितने संबंध ऐसे होते हैं जो जुड़े होने का भ्रम तो ज़रूर देते हैं लेकिन कहीं से भी जुड़े नहीं होते !
सिर के ऊपर की
एक छत
सम्बन्ध के विच्छेद को
दृष्टिगत नहीं होने देती
एक बहुत ही सच्ची और ईमानदार प्रस्तुति ! बधाई !
संगीता दी, एक नंगा सच बयान किया है आपने… अपने आस पास देखे हैं ऐसे रिश्ते जिनसे रिसता है रक्त और फैलती है बदबू… क्योंकि इन संबंधों में एक और बिरवा भी फूट चला है और अब तो संधि भी नहीं हो पा रही है और विच्छेद भी नहीं.. बस ढो रहे हैं दोनों सलीब सम्बंधों (?) के. मुझे तो यह कविता सच्चाई के बहुत क़रीब लगी.
नई तरह के संबंधों की तरफ इशारा किया है आपनें जिनसे हर कोई मुंह छुपाना चाहता है पर आखिर को निबाहना ही पड़ते हैं :)
ज़िदगी के यथार्थ को कविता के माध्यम से आपने बखूबी उद्घाटित किया है।
बहुत दिन पहिले एगो सिनेमा आया था बासु भट्टाचार्य्य का गृह प्रवेश. हमरा फेवरेट सिनेमा के लिस्ट में से एक. अईसने जटिल सम्बंध का कहानी था. एक जगह कहा गया था कि इस तरह का सम्बंध में साथ साथ चलते चलते, पास पास रह जाता है लोग. आज आपके कविता में तीन घण्टा का पूरा सिनेमा समा गया. संगीता दी, एक और ख़ूबसूरत कविता.
Aah! Kitne vidarak saty se ru b ru karaya hai aapne!Aur kitni kushaltase!
संबंधों को साकार करती सार्थक रचना के लिए बधाई !
संबंध में समझौते होते ही हैं। करने ही पड़ते हैं। हाम विच्छेद हमारी मनसिकता की उत्पत्ति है।
मौजूदा दौर में यही स्थिति है.... सही चित्रण ......
अपने भाव को बहुत ही सहजता से लिख डाला ....धन्यवाद !!
शायद संधि होती है जब आत्मा और शरीर का विच्छेद होता है ...
रिश्तों में ऐसे संधि विच्छेद होने तो नहीं चाहिए , मगर होते भी हैं ....
गणितीय शब्दावली पर एक बहुत ही अनूठा बिम्ब ...
आभार ..!
आपने संदी और संधि विच्छेद और संधि को जीवन में परिभाषित बहुत सुन्दर शब्दों में किया है और एकदम सही रूप से किया . एक नहीं कितने जीवन isi तरह से चल रहे हैं और दुनियाँ के नजर में भ्रम में जी रहे हैं.
विचार जगाती रचना...बधाई.
बहुत ही खूबसूरत अभिव्यक्ति है !
और हर शब्द में बहुत ही गहराई है !
बहुत सुंदर कविता और मुझे तो इतना पसंद आया की इस ब्लॉग का अनुसरण किये बिना रह नहीं सकता !
kuch baaton ka jawaab sirf maun hota hai......ye bhi aisi ho kuch hai
touched me....
बहुत बेहतरीन रचना सत्य मगर
कुछ अपवादों के साथ :)
शायद संधि होती है तब
जब विच्छेद होता है
आत्मा और शरीर का .....
बहुत ही गहन एवं भावमय प्रस्तुति ।
एक खूबसूरत कविता -संबंधो के सम्बन्ध में !!
एक छत
सम्बन्ध के विच्छेद को
दृष्टिगत नहीं होने देती .
एक साथ रह कर भी
एक दूसरे से
निबाहते हुए
कभी एक होने नहीं देती .
भावनाएं मर जाती हैं
प्रेम पनपता ही नहीं
फिर भी लोग
कहते है कि
सम्बन्ध - विच्छेद
हुआ ही नहीं ..
कितनी हकीक़त है आपके शब्दों में यूँ लगता है जैसे जिंदगी को चंद शब्दों में समेट दिया हो किसी ने ,,घुटन ,तड़फ ,त्याग ,वेदना ,प्यार ऐसा लगता है की सारे के सारे अहसासएक ही पंक्ति में निचोड़ के भर दिए है ...बहुत असर करती है ये रचना .
बहुत गहरे भाव लिए बहुत सशक्त अभिवयक्ति है दी , एक इंसान अपनी एक ही ज़िन्दगी में नजाने कितने रिश्तों को निभाता है कुछ सहज ही समां जाते है अंतर्मन की गहराइयों में लेकिन कुछ की जटिलता जीवन में द्वंद कर देती है ....इन जटिल रिश्तों की जटिलता को बहुत सरलता से स्पष्ट करती है आपकी कविता .....हर बार की तरह लाजवाब .
विचारणीय अभिव्यक्ति!
शुभकामनाएं...
bahut sundar kavita--sandhi vichhed ke marm ko darsaati hui.
...aapne to samaaj ko aainaa dikhaa diya hai sangitaji!...maarmik rachana, badhaai!
Kitni sachchi rachna!!!
बहुत सुन्दर प्रभावपूर्ण प्रस्तुति ....
निबाहने की
प्रक्रिया में
कहाँ हो पाती है
संबंधों में संधि ?
ho hi nahi sakti....
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
संधि होती है तब
जब विच्छेद होता है
आत्मा और शरीर का ....
सच कहा आपने...
याकूब मोहसिन साहब का...
एक शेर याद आ रहा है-
दिल ही न मिलेंगे तो सफ़र कैसे कटेगा
दुनिया ने तो रिश्तों में हमें बांध दिया है.
बहुत अच्छी रचना,
यहाँ भी पधारें:-
ऐ कॉमनवेल्थ तेरे प्यार में
फिर भी लोग
कहते है कि
सम्बन्ध - विच्छेद
हुआ ही नहीं ..
बहुत गहरे भाव सुन्दर, सटीक रचना। शुभकामनायें।
रिश्तों की संधि....... बहुत ही भावपूर्ण रचना अभिव्यक्ति ......
सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति के साथ बेहतरीन रचना! बहुत बढ़िया लगा!
Adaraniya Sangita Di,
Bahut hi behatareen dhang se apne sambandhon ka vishleshan kiya hai apnee is rachna men...sundar aur prabhavshali lagi apki yah abhivyakti.
Poonam
शायद संधि होती है तब
जब विच्छेद होता है
आत्मा और शरीर का .....
...यहाँ समझौता वहाँ संधी, बहुत खूब।
बहुत सहजता से सच को थाहती हैं आप .
बहुत सहजता से सच को थाहती हैं आप .
sab kuch kah diya aapne
har bhav
apko navratri ki subhkamnaye
बहुत खूब लिखा है |बधाई
आशा
प्रेम पनपता ही नहीं
फिर भी लोग
कहते है कि
सम्बन्ध - विच्छेद
हुआ ही नहीं ..
- सब की नहीं ,लेकिन कुछ की यही कहानी है |
bahut sundar abhivyakti!
sambandhon ki swatah sfhurt'ta ho to vikshed kabhi nahi hota...
sambandhon se sambandhit sateek rachna!
बिन प्रेम के हुई संधि (विवाह) और विच्छेद (तलाक) का मनोवैज्ञानिक चित्रण ...
बना दिए जाते हैं
जो सम्बन्ध
उनको पड़ता है
निबाहना ,
बहुत सुन्दर.
"थोड़े मन के भाव हैं, कुछ मन के अनुबंध|
विरह-मिलन निरपेक्ष हैं, सरल-जटिल सम्बन्ध||"
अच्छी रचना; नवरात्रि की शुभकामनायें|
- अरुण मिश्र.
संबंधों की व्याख्या करती एक सुंदर रचना..बधाई संगीता जी!!!
गहरे भावों की बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति.पर न जाने क्यों विच्छेद के बाद वो हमें और भी कुरेदते हैं
सम्बन्धों पर बहुत अच्छी रचना ।
यही तो मानव जेएवन का यथार्थ है… मन को छूने और मस्तिष्क को ख्वगालने वाली रच्ना…
ek sashakt rachana........
bahot achcha likhin hain aap.
"बना दिए जाते हैं
जो सम्बन्ध
उनको पड़ता है
निबाहना"
और इस
निबाहने की
प्रक्रिया में
कहाँ हो पाती है
संबंधों में संधि ?"
एकदम सच्ची बात.. जो सम्बन्ध निबाहने पड़े उनमे संधि हो ही नहीं सकती... बहुत ही भावपूर्ण रचना
क्या कहूँ ??????
bahut hi khubsurat bhav............
dont know I should drop my comment here or not but absolutely your expression has given me new attitude towards relationship.
thanks.
regards,
Priya
भावनाएं मर जाती हैं
प्रेम पनपता ही नहीं
फिर भी लोग
कहते है कि
सम्बन्ध - विच्छेद
हुआ ही नहीं ..
बहुत ही अच्छी कविता।
सादर
और इसी तरह
ढोते चले जाते हैं
भार ज़िन्दगी का
शायद संधि होती है तब
जब विच्छेद होता है
आत्मा और शरीर का .....
सूक्ष्म एवं गहरी दृष्टि
सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति के साथ बेहतरीन रचना! बहुत बढ़िया लगा!
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