संवेदनाओं की घास
>> Saturday, August 6, 2011
मन की घनेरी
घास पर
मेरी सोच के
कदमों से ,
पगडंडियाँ तो
बन जाती हैं
अनायास ही ,
क्यों कि
आँख बंद कर भी
सोच चलती रहती है
एक ही रास्ते पर
निरन्तर
और चलने
लगते हैं सभी
उस पर
बिना किसी
प्रयास के
और फिर
खिंच जाती है
एक साफ़
लकीर मेरे
मन की ज़मीन पर
जिस पर
अब संवेदनाओं की
घास नहीं उगती ...
70 comments:
मन की ज़मीन पर
जिस पर
अब संवेदनाओं की
घास नहीं उगती ...
..chitra ko sakaar roop deti huyee ek sandeshparak rachna..
गज़ब के भाव संजोये हैं…………एक उम्र के बाद संवेदनाये भी दफ़न हो जाती हैं।
और चलने लगते हैं सभी उस पर बिना किसी प्रयास के और फिर खिंच जाती है एक साफ़ लकीर मेरे मन की ज़मीन पर जिस पर अब संवेदनाओं की घास नहीं उगती ...
आपने सही फ़रमाया पर संवेदनाओं के घास के बिना ज़िन्दगी की यात्रा केसे सफल हो सकती है? तमाम पत्थर और रोड़े घायल कर देंगे पावों को...बधाई और आभार
संवेदना के धरातल पर हम सब एक ही तो हैं ...
भाव पूर्ण रचना....बधाई
धन्यवाद :)
भावमय करते शब्दों के साथ बेहतरीन अभिव्यक्ति ।
संवेदनाविहीन मन की पथरीली पगडंडी पर चलना किसी सज़ा से कम नहीं होता ! दुआ है इस पगडंडी पर भी संवेदना की नरम मुलायम हरी हरी दूब जल्दी से उग आये और मन का हर कोना भाव और भावना से ओत प्रोत हो जाये ! सुन्दर रचना !
bhut sundar rachna...sanvedna hi to pravah hai bhavo ka:)
गज़ब का बिम्ब प्रस्तुत किया है। हम सबके साथ भी यही होता है।
संवेदनाये मर तो नहीं सकती, हाँ सुषुप्तावस्था में हो सकती है . भावना रूपी खाद मिलते ही वो फिर से जाग जाएगी .
बार बार की सम्वेदनाओं की धिसाई से वहां व्यवहार की पगडंडी तो बन जाती है पर फ़िर वहां सम्वेदनाओं की घास नहीं उगती!!
अद्भुत बिंब संयोजन!! बधाई!!
kya bat likhi hai.
man kee jameen par
jis par
ab samvedanaon kee
ghas nahin ugati.
bahut sundar .
कभी-कभी बरसात हो जाती है
तो हो जाता है कीचड़ --
शायद कभी कमल भी खिले ---
पकड़ ले एक जड़ ||
अधिक धूप में भुर-भुरी गर्द |
अनायास पैदा कर देती है दर्द ||
सुबह सुबह ओस से भीगी पाती --
गुजरी रात की कहानी सुनाती ||
और जब भी नंगे पैरो में लग जाए कचक |
बड़ी जोर से, दिल करने लगता है धक्-धक् ||
बधाई ||
सशक्त अभिव्यक्ति है दी...
जहां तक संवेदनाओं का प्रश्न है, अगर वे मृत नहीं हुई हैं तो पुष्पित/पल्लवित होने के लिए अपना धरातल स्वयम तलाश लेती हैं.... आवागमन से निश्चिन्त, आवागमन से दूर... पगडंडियों के बिलकुल बगल में उगे घांस की तरह... नहीं?
सादर...
सुंदर भावाभिव्यक्ति
आभार
bahut behtareen
bahut sahi aur khub likha hai aapne.....
मन की ज़मीन पर
जिस पर
अब संवेदनाओं की
घास नहीं उगती ...बहुत सुन्दर भाव सजाये हैं...बधाई और आभार
kitne sundar vichar
hain aapke apni kalpano
se aapne jo raasta banaya
wo path sidha mer hirday
main gaya matlab aapke
sare shabd vichar dil main utar gaye...
मन की घनेरी
घास पर
मेरी सोच के
कदमों से ,
पगडंडियाँ तो
बन जाती हैं
अनायास ही ,
क्यों कि
आँख बंद कर भी
सोच चलती रहती है
एक ही रास्ते पर ... bahut hi gahan chitran
चित्र को आधार रख कर बहुत खूब काल्पनिक शब्द चित्र खींचा है आपने, बधाई|
सुन्दर अभिव्यक्ति!
जिस पर
अब संवेदनाओं की
घास नहीं उगती ..
ham sab ke rahte aisa to nahi hona chahiye...buri baat hai.:)
samvedna viheen ho jaoge to kavi-karm kaise karoge?????
ha.ha.ha.
aap jhooth bol rahi hain...ye kavita is baat ka praman hai ki aap me abhi samvednaaye hain ...tabhi to is kavita ka srijan hua.
r u agree????
मन की ज़मीन पर
जिस पर
अब संवेदनाओं की
घास नहीं उगती ...
samvdanaon ka jana man ko pida hi deta hai kyonki ek nirmal man bina samvedana ke shant nahin ho sakata ..../ bahut shnehil srijan sarahnya ji .
संवेदनाओं की घास का उगना बंद नहीं होगा ,मन की ज़मीन पर मौका पाते ही उग आएगी-लकीर के दोनों ओर और घनी हो कर .संवेदना बनी रहे,कविता चलती रहे !
...कुछ भी हो, बहुत कठिन है मन का संवेदनाविहीन हो पाना...
bahut sunder bhav sameti hai aapki rachna......
संगीता दी!
गुलज़ार साहब ने भी इस व्यथा को बयान किया है एक पगडंडी की दर्द की जुबां में.. सच है अगर लोगों ने मन की उस ज़मीन की कोख को रौंदा न होता, तो शायद संवेदनाओं के अंकुर अवश्य फूटते!!
एक अत्यंत संवेदनशील कविता!
मन का गजब का चित्रण है, यही सब जाने कितनी बार होता है और जिंदगी निकल जाती है।
बेहतरीन प्रस्तुति
सुंदर संवेदनशील अभिव्यक्ति...... बेहतरीन
wah kya likh jatee hai aap sahajta se ........
sunder abhivyakti .
मौसम आते जाते हैं ...तेज़ धूप से नर्म घास सी संवेदनाएं भी मर जातीं हैं किन्तु वर्षा के भीगे एहसास से फिर प्रस्फुटित हो जाती हैं ...जीवन क्रम यही है ...कुछ भी शाश्वत नहीं है......!!
बहुत सुंदर प्रस्तुति ....मन पर ठहर गयी ..एक सोच दे गयी ....
आभार.
मन की ज़मीन पर
जिस पर
अब संवेदनाओं की
घास नहीं उगती ...
सुंदर भावाभिव्यक्ति.
बेहतरीन!
सादर
मन की ज़मीन पर
जिस पर
अब संवेदनाओं की
घास नहीं उगती ...
पर ये फिर उगेंगी क्योंकि संवेदनायें मरती नहीं ।
मन की ज़मीन और संवेदनाओं की घास...वाह,
नए बिम्बों से सजी एक उत्तम कविता।
ओह! मम्मा...ये लग रहा है कि कि आपने लिखी है....बहुत पसंद आई....बहुत बहुत बधाई मम्मा......बस हाँ छोटी लगी...मतलब मत तृप्त हो पाता उससे पहले ही समाप्त हो गयी..:(
कल 08/08/2011 को आपकी एक पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
सशक्त भावाभिव्यक्ति
बधाई
आँख बंद कर भी
सोच चलती रहती है
एक ही रास्ते पर.....wah.kya baat hai.
बेहतरीन भावाभिवय्क्ति....
बिना संवेदनाओं की घास के ये कविता बनती...क्या...वैसे अपने रास्ते खुद बनने की प्रवृत्ति सराहनीय है...
sangeeta di
bhaut hi behatareen tareeke se yatharth ko prastut kiya hai aapne
bahut hi badhiya lagi
sadar naman vbdhai swikaren
poonam
आम रास्ते की पगडंडियों पर कभी घास नहीं उगा करती !
sundar rachna...
खिंच जाती है
एक साफ़
लकीर मेरे
मन की ज़मीन पर
जिस पर
अब संवेदनाओं की
घास नहीं उगती ...
बहुत ही कोमल भावनाओं में रची-बसी खूबसूरत रचना के लिए आपको हार्दिक बधाई।
नए प्रतीक...नए भाव....
बहुत सार्थक और अच्छी सोच ....सुन्दर कविता ...... सुंदर भावाभिव्यक्ति.
बधाई और आभार.
हमेशा की तरह बहुत खूबसूरत रचना.
बहुत ही अच्छी भावमयी रचना । बहुत बहुत बधाई।
बस एक प्रश्न उभरता है,क्या मन संवेदना शून्य भी हो सकता है?
अनायास अपनी यह कविता जेहन में उभर आती है-
भावनाओं से, जिन्दगी की गाड़ी चलती नहीं,
भावशून्य दौड़ती गाड़ी को क्या जिन्दगी कहूं?
दर्द से जिन्दगी, बहुत दुशवार हो जाती है,
दर्द न महसूस हो, तो क्या दिल उसे कहूं?
दौड़ता रहा तलाश में, उम्र भर इधर-उधर,
सो गया थकन ओढ़ के, मंजिल इसे कहूं?
अद्भुत सुन्दर रचना जिसके बारे में जितनी भी तारीफ़ की जाए कम है! इस भावपूर्ण और शानदार रचना के लिए आपको हार्दिक बधाइयाँ!
मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
http://seawave-babli.blogspot.com
वाह...वाह...
सुखद अनुभूति...
बेहतरीन...रचनाएं..
बधाई संगीता जी..
गीता संगीता ..कितना साम्य है ना...
यही तो है जीवन के हरियाली और रास्ता॥
बहुत गहरा सोच और अभिव्यक्ति |
आशा
shabdon se banaya gaya behtarin bhav chitra,,badhayee aaur sadar pranam ke sath
दीदी घास ज्यादा जरूरी है या रास्ता ?
पांव छू रहा हूँ!! :)
मन की घनेरी घास पर मेरी सोच के कदमों से , पगडंडियाँ तो बन जाती हैं
bahut hi gahanabhibyakti,dil ko choo gai .badhaai aapko.
और फिर
खिंच जाती है
एक साफ़
लकीर मेरे
मन की ज़मीन पर
जिस पर
अब संवेदनाओं की
घास नहीं उगती .......'
................गहन भावों की उत्कृष्ट अभिव्यक्ति
........... नदी की धार जैसी प्रवाहमान रचना
मानता हूँ घास दब जाती है पैरों की घिसन से , किन्तु वह मरती नहीं है /
बस उसी जैसे कभी संवेदनाएं ,भी ठिठक जाती हैं , पर मिटती नहीं हैं /
फिर भी घास का अपना अस्तित्व होता है |
बहुत सुन्दर सवेद्नाओ के लिए प्रयोग |
एक साफ़
लकीर मेरे
मन की ज़मीन पर
जिस पर
अब संवेदनाओं की
घास नहीं उगती ...
ekdam nai soch bhavon ki gahrai me hum to dub hi gaye bahut khoob
rachana
फिर फिर कहना पड़ेगा ... निहायत खूबसूरत
बहुत सारगर्भित और भावपूर्ण प्रस्तुति...
आदरणीया संगीता जी -सटीक चित्रण और छवि ..लेकिन ये संवेदनाएं उगाना भी जरुरी हैं आइये कोशिश करें भले ही फिर से ....
स्वतंत्रता दिवस पर हार्दिक शुभ कामनाएं
भ्रमर ५
मन की ज़मीन पर
जिस पर
अब संवेदनाओं की
घास नहीं उगती ..
anokhe bhav...dil men utar gaye..
bahut lambe arse baad aapko padha aaj ..kya karen kaam ki masrufiyat aajkal itni badh gayi hai ki kuch pata hi nahi chalta kab subah hui or kab shaam dhalii .
hamesha ki tarah bahut kashish hai aapki rachna mein .bandhaii swikaren
सच सच कितना सच...
भौतितकता की आई बाढ़...बह गई संवेदना की घास।
...यह कविता बहुत अच्छी लगी।
मन की ज़मीन पर अब संवेदनाओं की घास
नही उगती।बहुत अच्छा भाव।
सुन्दर रचना..!!!!
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