तुम यहीं कहीं हो
>> Thursday, September 29, 2011
जब मंद पवन के झोंके से
तरु की डाली हिलती है
पंछी के कलरव से
कानों में मिश्री घुलती है
तब लगता है कि तुम
यहीं - कहीं हो
जब नदिया की कल - कल से
मन स्पंदित होता है
जब सागर की लहरों से
तन तरंगित होता है
तब लगता है कि तुम
यहीं - कहीं हो
रेती का कण - कण भी जब
सोने सा दमकता है
मरू भूमि में भी जब
शाद्वल * सा दिखता है
तब लगता है कि तुम
यहीं - कहीं हो
बंद पलकों पर भी जब
अश्रु- बिंदु चमकते हैं
मन के बादल घुमड़ - घुमड़
जब इन्द्रधनुष सा रचते हैं
तब लगता है कि तुम
यहीं कहीं हो ...यहीं कहीं हो .
* शाद्वल --- नखलिस्तान