तलाश प्रेम की
>> Thursday, November 10, 2011
कस्तूरी मृग
कस्तूरी की चाह में
आधूत हो
फिरता है दर - बदर
होता है लहुलुहान
और तोड़ देता है दम
पर
नहीं खोज पाता
कस्तूरी को
जो बसती है
उसीकी नाभि में ,
उसी तरह तुम
प्रेम का वास
स्वयं के हृदय में
रखते हुए
व्याकुल मन लिए
फिरते हो मारे मारे
विक्षिप्त से हुए
प्रेम का राग
अलापते हुए
प्रेम को ही
करते हो लांछित
महज़ अपनी
तृप्ति के लिए
पर फिर भी ,
कहाँ हो पाते हो तृप्त
क्या खतम होती है
कभी प्रेम की तलाश ?
तुमने प्रेम पुष्प नहीं
बल्कि
चाहत के कुसुम सजाये हैं
जिनके रंग देख
तुम्हारे दृग
स्वयं ही भरमाये हैं
जिस दिन तुम
कस्तूरी को
खोज पाओगे
सहज ही तुम
प्रेम को
पा जाओगे ...
79 comments:
क्या खतम होती है
कभी प्रेम की तलाश ?.... नहीं होती, क्योंकि प्रेम तलाशा नहीं जाता .
माना प्रेम कस्तूरी की तरह है, पर हम तुम मृग नहीं
बहुत खूब कहा है दी ! लोग उसे तलाशते रहते हैं जो तलाशने से मिल ही नहीं सकता.इसलिए न मिलने पर हो जाते हैं हताश.
बहुत गहरी अभिव्यक्ति.
प्रेम की पराकाष्ठाओं की अनभिज्ञता ऐसी मृगतृष्णा में हमेशा उलझाये रहेगी .......
तुमने प्रेम पुष्प नहीं
बल्कि
चाहत के कुसुम सजाये हैं
जिनके रंग देख
तुम्हारे दृग
स्वयं ही भरमाये हैं
बहुत अच्छी लगीं यह पंक्तियाँ।
सादर
वही एक खोज है दी... जिसने खोजा उसने पाया और खोजने के लिए यहाँ वहाँ नहीं.. जब ज़रा गर्दन झुकाई, देख ली.. और उस प्रेम से सारा जीवन सुवासित हो गया!!
आपके रंग में रंगी कविता!! शानदार!!
स्वयं में क्या नहीं है.प्रेम है, परमात्मा है.पर मानव तन की आँखों से ढूँढता है मन की आँखों से नहीं.इसीलिये कस्तूरी मृग की तरह भटकता रहता है. बेहतरीन रचना.
बहुत सार्थक रचना है दी...
"बुल्ले शाह शह अन्दर मिलिया
दुनिया फिरे लुकाई हो....
सादर बधाई...
मृगतृष्णा के पीछे भागता मनुष्य . अतृप्ति मानव को मृग के भांति ही दौड़ाती है .
सच कहा आपने, अपने अन्दर ही झाँकना पड़ेगा।
'कस्तूरी कुंडल बसे ,मृग ढूँढे वन माँहि '
- यह तलाश ऐसी ही है .
Sach kaha hai .. Par is kastoori ko to mrig Bhi nahi paa saka to insaan prem ko kaise dhoondhega ..
जिस दिन तुम
कस्तूरी को
खोज पाओगे
सहज ही तुम
प्रेम को
पा जाओगे ...
Bilkul sahee kaha aapne!
सच कहा आपने,प्रेम तलाशा नहीं पाया जाता है..
यह तो प्रभु तक पहुंचा देता है, फिर मनुष्य क्या चीज़ है। दु:खों से भरी इस दुनिया में सच्चे प्रेम की एक बूंद भी मरूस्थल में सागर की तरह है।
pyar ek aisi chahat hai jiski chahat kabhi khatm nahi hogi...jab tak ye milta rahe talash vishram pati hai jaise hi pyar me saindh lag jati hai talash k sath sath manveey swabhav ke anuroop manav pareshan ho kar apne hi pyar ko laanchhit bhi kar jata hai.
bahut sunder vicharneey prastuti.
जिस दिन तुम
कस्तूरी को
खोज पाओगे
सहज ही तुम
प्रेम को
पा जाओगे......kitni saralta hai,kitni sahajta hai.....wah.
प्रेम की अनुभूति में भटकाव की गुंजाइश होती है, इस कविता ने उसे ही केंद्र में रखा है. प्रमाणिक अनुभूति है. यह शायद सब के जीवन में होता है. मृग को आखिर स्वयं में लौटना ही होता है. सुंदर कविता.
जिस दिन तुम
कस्तूरी को
खोज पाओगे
सहज ही तुम
प्रेम को
पा जाओगे ...
सहजता से गहरी बात कहती कविता!
जिस दिन तुम
कस्तूरी को
खोज पाओगे
सहज ही तुम
प्रेम को
पा जाओगे
प्रेम दान ईश्वरीय है,खुद में प्रेम को ढूँढना है ... ...किन्तु प्रेम की तलाश भटकाती है ....
बहुत सुंदर रचना ....
जिस दिन तुम
कस्तूरी को
खोज पाओगे
सहज ही तुम
प्रेम को
पा जाओगे ...
कितना सही कहा है आपने ! अपने मन में छिपे प्यार के अकूत खजाने को जिस दिन इंसान ढूँढ लेगा, पहचान जायेगा उसके जीवन का सारा संताप स्वयमेव खत्म हो जायेगा ! बहुत खूबसूरत एवं गहन रचना !
जिस दिन खुद से प्रेम करना सीख जायेगा मनुष्य...बाहर हर जगह प्रेम दिखने लगेगा...ऐसे घट-घट राम हैं, दुनिया देखत नाहीं...
कहाँ हो पाते हो तृप्त
क्या खतम होती है
कभी प्रेम की तलाश ?excellent.
बहुत सुंदर रचना संगीताजी..... निशब्द करता प्रश्न लिए
तुम कस्तूरी को खोज पाओगे
सहज ही तुम प्रेम पा जाओगे
सुंदर पन्तिया अच्छी लगी
शानदार पोस्ट ..
बहुत गहरी,परिपक्व और सूफियाना रचना. हू बहू इन्हीं भावों पर मेरे छंद याद आ गए-
कस्तूरी की सुवास ,जागी मनवा में प्यास
मृग भागता उदास,खत्म होती न तलाश है.
इसी उहापोह में , बँध माया- मोह में
गिरे अंध-खोह में , मृग अंतत: हताश है.
हम तुम भी हैं मृग , प्रेम-कस्तूरी को दृग
ढूँढते हैं हो अडिग ,तन -नयन निराश है
झाँक लेते स्व हृदय ,प्रेम मिलना था तय
फिर कैसा संशय , फिर कैसी ये तलाश है.
जो खुद में नहीं , उसे बाहर ढूँढा तो मिलता कहाँ ...
सादगी से कहा गहन सत्य!
umda prastui ...abhar
प्रेम के प्रति आपकी बेहतरीन सोंच इस सुन्दर-सी कविता में प्रतिबिंबित हो रही है.
वाह.
कस्तूरी मृग
कस्तूरी की चाह में
आधूत हो----
बहुत सुंदर रूप से सत्य को उजागर किया है.
वाह ...बहुत खूब कहा है आपने ।
khoobasoorat , prem ko baahar talaashane kee jaroorat nahee hai.
यथार्थ चित्रण है
जिस दिन तुम कस्तूरी को खोज पाओगे सहज ही तुम प्रेम को पा जाओगे ...
बहुत गहन भाव और प्रेम की तलाश को संजोये एक सुंदर सी कविता...
वाह ! कितनी सरलता से कितने गूढ़ भावों को लिखा है आपने ।
बधाई !
जिस दिन तुम
कस्तूरी को
खोज पाओगे
सहज ही तुम
प्रेम को
पा जाओगे ...
waah...didi....aapki kalam hamesha kuch seekhne ko prerit karti rahi hai..
बनी रहे अंगूर लता यह, जिससे बनती है हाला !
बनी रहे यह माटी, जिससे बनता है मदिरा प्याला !
बने रहे ये पीने वाले, बनी रहे यह मधुशाला !
प्रेम की तलाश है इसीलिए तो मनुष्य के जीवन में
कुछ तो सुगंध है ! सुंदर रचना !
आदरणीया संगीता जी बहुत ही कोमल --प्यारी गूढ़ तत्व को बताती रचना ..
भ्रमर 5
तुमने प्रेम पुष्प नहीं
बल्कि चाहत के कुसुम सजाये हैं
जिनके रंग देख
तुम्हारे दृग
स्वयं ही भरमाये हैं
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार के चर्चा मंच पर भी की जा रही है! सूचनार्थ!
आपकी किसी पोस्ट की चर्चा है कल शनिवार (12-11-2011)को नयी-पुरानी हलचल पर .....कृपया अवश्य पधारें और समय निकल कर अपने अमूल्य विचारों से हमें अवगत कराएँ.धन्यवाद|
कस्तूरी को
खोज पाओगे
सहज ही तुम
प्रेम को
पा जाओगे ...
...सच प्रेम अपने अंतर्मन के चक्षु हैं, जिन्हें मन की आँखों से देख लिया तो प्रेम को सहज ही समझ लिया..
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति..आभार
सुंदर प्रस्तुति पर कस्तुरी की चुनौती, कितनी कठिन है डगर।
नमस्कार आंटी...बहुत ही मनमोहक और प्रेममयी रचना.....जवाब नहीं...लाजवाब।
बहुत खूब!!
बेहतरीन अभिव्यक्ति!!
हम कस्तूरी को मुट्ठी में बंद करना जानते हैं पर कस्तूरी होना नहीं..
...कश्तूरी की तलाश तो हो।
सुंदर भाव।
आपकी अनुपम प्रस्तुति के लिए आभार.
अनुपमा जी को भी आभार कि आपकी
इस सुन्दर पोस्ट का लिंक अपनी हलचल
में दिया.
तुमने प्रेम पुष्प नहीं
बल्कि
चाहत के कुसुम सजाये हैं
चाहत शायद प्रेम के रूप में परिणित हो जाए
सुन्दर भाव
बहुत सुन्दर पंक्तियाँ
तुमने प्रेम पुष्प नहीं
बल्कि
चाहत के कुसुम सजाये हैं
जिनके रंग देख
तुम्हारे दृग
स्वयं ही भरमाये हैं
....बहुत सच कहा है ...इंसान तो जो आँखों को दिखाई देता है उसी के पीछे भागता है और सारा जीवन मृग मरीचिका के पीछे भागते व्यर्थ कर देता है... एक पल बैठ कर अपने अन्दर झाँक कर उसे देखने की कोशिश कहाँ करता है?...बहुत गहन सारगर्भित प्रस्तुति...आभार
आपकी यह कविता प्रेम की उद्दात भावनाओं को प्रकट करती है। मगर प्रेम में छल भी यही है। बेहतरीन प्रस्तुति।
प्रेम हमारे भीतर ही है। बाहर उसकी तलाश बेकार। प्रेम में कोई चाहत भी नहीं। वह तो पूर्ण समर्पण का नाम है।
प्रेम का वास तो हृदय में ही है।
भावमयी कविता।
very heart touching poem..
very beautiful
बहुत सुन्दर रचना तमाम भावनाओं को समेटे हुए..
बहुत सुंदर
क्या कहने
जिस दिन तुम
कस्तूरी को
खोज पाओगे
सहज ही तुम
प्रेम को
पा जाओगे ... ……यही तो जीवन का सत्य है जिसने इसे पा लिया उसने स्वंय को पा लिया।
अनबूढे-बूढे ,तरै जे बूढे सब अंग । प्रेम अनन्त आकाश है । इसके छोर तलाशना ही भटकाव है शायद । ...अच्छी कविता संगीता दीदी ।
सुंदर भावनाओं की अर्थपूर्ण अभिव्यक्ति...
हर एक पंक्तियाँ अद्भुत सुन्दर है और दिल को छू गई! प्रेम की परिभाषा को आपने बेहद खूबसूरती से प्रस्तुत किया है! संगीता जी आपकी लेखनी को सलाम!
मेरे नए पोस्ट पर स्वागत है ...
बड़ी मादक गंध है कस्तूरी की ..इस कविता ने सहसा याद दिला दी ...कुछ भी बाहर नहीं, सब अपने भीतर ही है!
बहुत ही सुन्दर कविता |
जय हो सुनीता जी की हलचल की.
जय हो संगीता माई की.(माफ कीजियेगा
ऐसे ही तो बुलाया है सुनीता जी ने आपको).
कस्तूरी मृग में बसे,मृग ढूंढें बन माहीं.
वाह दी !
तुमने प्रेम के पुष्प नहीं
चाहत के कुसुम सजाये हैं
सच दी चाहत तो अंततः दुःख ही देती है
प्रणाम !
बहुत सुन्दर संगीता जी...मन खुश हो गया पढ़ कर.
बहुत भावपूर्ण प्यारी रचना के लिए बधाई आपने बिम्ब बहुत अच्छा चुना |
बधाई |
आशा
तुमने प्रेम पुष्प नहीं
बल्कि
चाहत के कुसुम सजाये हैं
जिनके रंग देख
तुम्हारे दृग
स्वयं ही भरमाये हैं
जिस दिन तुम
कस्तूरी को
खोज पाओगे
सहज ही तुम
प्रेम को
पा जाओगे ...
बहुत सुन्दर प्रस्तुति आलंकारिक और गेयता से संसिक्त सांगीतिक अंदाज़ लिए अनुप्रयासिक छटा लिए .
प्यार की तलाश अधूरी ही रह जाती है
पर इस अधूरेपन में भी एक मज़ा है
जिस दिन कस्तूरी को खोज पाओगे, सहज ही प्रेम को पा जाओगे.... संगीता जी एकदम सही कहा आपने ..यही तो समझ का फेर है,अक्सर पूरा का पूरा जीवन बीत जाता है और हम बस यही नहीं समझ पाते .. बहुत ही सुन्दर रचना... बधाई सादर
मंजु
तुमने प्रेम पुष्प नहीं
बल्कि
चाहत के कुसुम सजाये हैं
जिनके रंग देख
तुम्हारे दृग
स्वयं ही भरमाये हैं
जिस दिन तुम
कस्तूरी को
खोज पाओगे
सहज ही तुम
प्रेम को
पा जाओगे ...
क्या बात कही....सम्पूर्ण सार को इन संक्षिप्त शब्दों में आपने रख दिया है...
अतिसुन्दर रचना....
जिस दिन तुम
कस्तूरी को
खोज पाओगे
सहज ही तुम
प्रेम को
पा जाओगे ...
YAHI SATYA HAI.............
तुमने प्रेम पुष्प नहीं
बल्कि
चाहत के कुसुम सजाये हैं
जिनके रंग देख
तुम्हारे दृग
स्वयं ही भरमाये हैं
जिस दिन तुम
कस्तूरी को
खोज पाओगे
सहज ही तुम
प्रेम को
पा जाओगे ...
बहुत सुन्दर
बहुत सुंदर रचना,
गहरी अभिव्यक्ति......
प्रेम पर बहुत सही लिखा है |कस्तूरी मृग का उदाहरण बहुत अच्छा लगा |बेहतरीन प्रस्तुति |
आशा
बहुत खूब....खुद से पहचान करवाती रचना .......मन के भटकाव का अंत कब होगा ये कोई नहीं जानता
अंतर्मन में ही सब कुछ है !
बहिर्मुखी प्रेम बहुधा शरीर के इर्द-गिर्द ही मंडराता रहता है। जो भीतर है,वह तो ध्यान से ही जगता है।
प्रेम का एक अनंत प्रवाह है: जो भिन्न-भिन्न रूपों में समय-समय पर प्रगट होता है!
प्रेम की तलाश कोई भटकन नहीं बल्कि स्वयं की ही तलाश है!
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति!! साधुवाद!!
सारिका मुकेश
नि:शब्द कर दिया आपकी इस कविता ने
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