सोने का पिंजर ... अमेरिका और मैं ...
>> Tuesday, November 1, 2011
सोने का पिंजर ... अमेरिका और मैं ...
पिछले कुछ दिनों पूर्व मुझे डा० अजीत गुप्ता जी द्वारा लिखी यह पुस्तक पढने को मिली ... पुस्तक को पढते हुए लग रहा था कि सारी घटनाएँ मेरे सामने ही उपस्थित होती जा रही हैं ..यह पुस्तक उन लोगों को दिग्भ्रमित होने से बचाने में सहायक हो सकती है जो अमेरिका के प्रति भ्रम पाले हुए हैं .निजी अनुभवों पर लिखी यह एक अनूठी कृति है .
" अपनी बात " में कथाकार लिखती हैं कि उन्हें आठवें विश्व हिंदी सम्मलेन में भाग लेने के लिए अमेरिका जाने का सुअवसर मिला .. उनको देखने से ज्यादा देश को समझने की चाह थी ...रचनाकार के मन में बहुत सारे प्रश्न थे कि ऐसा क्या है अमेरिका में जो बच्चे वहाँ जा कर वहीं के हो कर रह जाते हैं ..वहाँ का जीवन श्रेष्ठ मानते हैं ..माता पिता के प्रति अपने कर्तव्य को भूल जाते हैं .वो अपनी बात कहते हुए कहती हैं कि --" मैंने कई ऐसी बूढी आँखें भी देखीं हैं जो लगातार इंतज़ार करती हैं , बस इंतज़ार | मैंने ऐसा बुढ़ापा भी देखा है जो छ: माह अमेरिका और छ: माह भारत रहने पर मजबूर है . वो अपना दर्द किसी को बताते नहीं ..पर उनकी बातों से कुछ बातें बाहर निकल कर आती हैं ..अजीत जी का मानना है कि -- अमेरिका नि: संदेह सुन्दर और विकसित देश है .. वो हमारी प्रेरणा तो बन सकता है पर घर नहीं ..
पुस्तक का प्रारंभ संवादात्मक शैली से हुआ है .. कथाकार सीधे अमेरिका से संवाद कर रही हैं ..जब वो बच्चों के आग्रह पर अमेरिका जाने के लिए तैयार हुयीं तो उनको वीजा नहीं मिला .. उस दर्द को सशक्त शब्दों में उकेरा है ...२००२ अप्रेल माह से जाने की चाह पूरी हुई जुलाई २००७ में जब उनको अवसर मिला विश्व हिंदी सम्मलेन में भाग लेने का तब ही वो अमेरिका जा पायीं ..ज़मीन से जुड़े कथानकों से यह पुस्तक और रोचक हो गयी है .. महानगर और गाँव की पृष्ठभूमि को ले कर लिखी घटना सोचने पर बाध्य करती है ..
अमेरिका जिन बूढ़े माँ बाप को वीजा नहीं देता उसे भी सही बताते लेखिका हुए कहती हैं -- " मेरे देश की लाखों बूढी आँखों को तुमसे शिकायत नहीं है , बस वे तो अपने भाग्य को ही दोष देते हैं . वे नहीं जान पाते कि गरीब को धनवान ने सपने दिखाए हैं , और उन सपनों में खो गए हैं उनके लाडले पुत्र . मैं समझ नहीं पाती थी कि तुम क्यों नहीं आने देते हो बूढ़े माँ बापों को तुम्हारे देश में ? लेकिन तुम्हारी धरती पर पैर रखने के बाद जाना कि तुम सही थे .क्या करेंगे वे वहाँ जा कर ? एक ऐसे पिंजरे में कैद हो जायेंगे जिसके दरवाज़े खोलने के बाद भी उनके लिए उड़ने के लिए आकाश नहीं है ...तुम ठीक करते हो उन्हें अपनी धरती पर न आने देने में ही समझदारी है . कम से कम वे यहाँ जी तो रहे हैं वहाँ तो जीते जी मर ही जायेंगे ...
इस पुस्तक में बहुत बारीकी से कई मुद्दों को उठाया है ..जैसे सामाजिक सुरक्षा के नाम पर टैक्स वसूल करना ..बूढ़े माता पिता की सुरक्षा करना वहाँ की सरकार का काम है .. भारतीयों से भी यह वसूल किया जाता है पर उनके माता पिता को वहाँ बसने की इजाज़त नहीं है ... वरना सरकार का कितना नुकसान हो जायेगा ...यहाँ माता पिता क़र्ज़ में डूबे हुए अपनी ज़िंदगी बिताते हैं ..
अमेरिका पहुँच कर होटल में कमरा लेने और भोजन के लिए क्या क्या पापड़ बेलने पड़े वो सब विस्मित करता है ..
पूरी पुस्तक में भारत और अमेरिका को रोचक अंदाज़ में लिखा है ..अमेरिका की अच्छाइयां हैं तो भारत भी बहुत चीजों में आगे है ..
अपने अमेरिका प्रवास के अनुभवों को बाँटते हुए यही कहने का प्रयास किया है कि हम भारतीय जिस हीन भावना का शिकार हो जाते हैं ऐसा कुछ नहीं है अमेरिका में ... वो तो व्यापारी है ..जब तक उसे लाभ मिलेगा वो दूसरे देश के वासियों का इस्तेमाल करेगा ..
इस पुस्तक को पढ़ कर अमेरिका के प्रति मन में पाले भ्रम काफी हद तक कम हो सकते हैं ..रोचक शैली में लिखी यह पुस्तक मुझे बहुत पसंद आई ..
पुस्तक का नाम -- सोने का पिंजर .. अमेरिका और मैं
लेखिका -- डा० ( श्रीमती ) अजीत गुप्ता
प्रकाशक --- साहित्य चन्द्रिका प्रकाशन , जयपुर
प्रथम संस्करण - २००९
मूल्य -- 150 / Rs.
ISBN - 978- 81 -7932-009-9
33 comments:
सोने का पिंजर ...... रोचक आलेख अच्छा लगा , बात जीवन शैली की हो , प्रतिस्पर्धा की हो , जीवन मूल्यों की हो ,
तो निशित ही मानवीय मूल्यों से आरम्भ हो व्यावहारिकता पर आजाती है ,......और हम कितना इसे कितना सार्थक बना पते हैं ,सोच पर निर्भर करता है , व्यवसाय और अध्यात्म एक साथ ...भारत में ही संभव है नैतिकता का बोझ भारतीय भी आज कितना उठा रहा है यह छिपा नहीं है ........./ सार्थक अनुशीलन ... शुक्रया जी /
बढ़िया लगी इस पुस्तक की समीक्षा
Gyan Darpan
RajputsParinay
BEHATAREEN SAMEEKSHAA!
बहुत सुन्दर पुस्तक की समीक्षा| धन्यवाद|
उत्सुकता जगाती है आपकी समीक्षा दी...
मंगाने का प्रबंध करता हूँ यह पुस्तक...
सादर आभार...
इस जानकारी के लिए आभार आपका !
अजित गुप्ता जी को बधाई !
PUSTAK PADHNE KEE CHAAH BADHJ GAEE
BADHIYA SAMEEKSHA
पुस्तक समीक्षा सच में मूल्यवान है . और सच भी यही है
एक सर्वथा अलग जीवनशैली है प्रवासियों की, निश्चय ही रोचकता से भरी होगी यह पुस्तक।
समीक्षा देखकर ही लगने लगा कि पुस्तक में जीवन के यथार्थ का चित्रण है. संस्कृति के मामले में तो भारत अतुलनीय है.
अब पुस्तक पर भी नजर दौड़ानी होगी badhaai gupta jii ko!
आपने बहुत ही अच्छा लिखा है ...।
बहुत रोचक अंदाज में लिखी पुस्तक समीक्षा.. बधाई!
samikcha bahut lubhawni hai.....dekhti hoon kahan milegi.... padhne ki ichcha ho rahi hai.
इस जानकारी के लिए आभार आपका !
अजित गुप्ता जी को बधाई !..बहुत रोचक अंदाज में लिखी पुस्तक समीक्षा.. बधाई!
आप तो इस काम में भी माहिर निकलीं.:)
पुस्तक तो नहीं पढ़ी पर आपकी समीक्षा से पुस्तक का पूरा कलेवर समझ में आ रहा है.
आपने बहुत ही रोचक ढंग से पुस्तक की समीक्षा है सुंदर प्रस्तुति....
badhiya sameeksha.
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
छठपूजा की शुभकामनाएँ!
हर अच्छी पुस्तक पात्र समीक्षक भी ढूंढती है। न्याय किया आपने।
phustak ki samiksha ne phustak padne ko lalaiyat kar diya hei
डा. अजित के अपने विचार सही हो सकते हैं...पर एक बात तो साफ़ है...कि वो लोग अपने देश और नागरिक के लिए वफादार हैं...तभी वो ऐसे नियम बनाते हैं जो उनके लिए फायदेमंद हों...ये बात सीखने वाली है...हम तो अपनों के साथ ही व्यापार कर रहे हैं...
पुस्तक समीक्षा देने के लिए आभार. एक दृष्टिकोण सामने आया. ब्लॉग विज़िट के लिए धन्यवाद. ग़लती सुधार ली गई है :)
अमेरिका के बारे में मेरा अनुभव भी कुछ ऐसा ही है ... रोचक समीक्षा की ही आपने ...
बुत अच्छी समीक्षा !
आभार इतनी भाव पूर्ण पुस्तक की समीक्षा ....
इस पुस्तक को पढ़ने की इच्छा हो रही है।
रोचक समीक्षा किया है आपने जो उत्सुकता जगाती है.बहुत बढ़िया ..
अच्छी समीक्षा !
अपनी ही पुस्तक पर क्या टिप्पणी करूं? आप सभी के विचार भी पढे। इस पुस्तक को हिन्दयुग्म पर धारावाहिक रूप से प्रकाशित किया गया था। संगीताजी ने संक्षिप्त में जितना लिखा जा सकता था उतना लिखा है लेकिन यदि इस पुस्तक को पूरी पढेंगे तब आप अमेरिका के संदर्भ में हमारी मानसिकता को समझ सकेंगे। संगीता जी सहित आप सभी का आभार।
अच्छी समीक्षा हुई है. अपनी पत्रिका 'सद्भावना दर्पण' के अगले अंक में ले रहा हूँ. अपने घर का पता ईमेल कर दें तो 'सद्भावना दर्पण' डाक से भेज दूंगा.girishpankaj1@gmail.com
सटीक विवेचन, आ. अजित दीदी को भी मेरी ओर से बधाइयाँ दीजिएगा
संतुलित समीक्षा हुई है पुस्तक में।
और आपने भी सुन्दर विवेचन प्रस्तुत किया।
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