एक उत्सव ये भी ..
>> Monday, December 5, 2011
जन्म का
ज्यों होता है उत्सव
मृत्यु का भी
तो होना चाहिए
मृत्यु को भी एक
उत्सव की तरह ही
मनाना चाहिए
आगत का
करते हैं स्वागत
उल्लास से
तो विगत की भी
करो विदाई
हास से
जा रहा पथिक
एक नयी राह पर
तो
प्रसन्नता से
दो हौसला उसको .
खुशियाँ मनाओ कि
जीवन के कष्ट
अब पूरे हुए
जो थे अवरुद्ध मार्ग
अब वो प्रशस्त हुए
जिस दिन
आता है कोई जीव
इस धरती पर
उसी दिन
उसका अंत भी
आता है साथ में,
लेकिन
इस सत्य को हम
भूल जाते हैं
अपने प्रमाद में .
मौत जब निश्चित है तो
उसके आगमन पर
करना चाहिए
स्वागत आल्हाद से
इस त्योहार को भी
मनाना चाहिए उत्साह से .
68 comments:
कहते तो सही हैं पर यह तभी संभव है जब मृत्यु चौथेपन में आये.अकाल मौत बड़ी त्रासदी दे जाती है !
वाह ! जीवन यदि उत्सव है तो मृत्यु भी कुछ कम नहीं... रात और दिन की तरह, सुबह और शाम की तरह दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं...बहुत सुंदर कविता !
एक अलग सोच से लिखी गई कविता हमें विचारने के लुछ संकेत अवश्य देती है।
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च ।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ।।
इस दर्शन को अभिव्यक्त करती आपकी लेखनी को नमन!
nai disha ki kavita...... behad prabhawshali......
सही कहा मौत का भी स्वागत होना चाहिये ………बेहद खूबसूरत भावों को संजोया है साथ ही सुन्दर संदेश भी दिया है जीवन कैसे जीयें और मौत को कैसे हँसकर गले लगाया जाये।
लेकिन
इस सत्य को हम
भूल जाते हैं
अपने प्रमाद में .
सार्थक व सटीक शब्द रचना ...आभार ।
गहन जीवन दर्शन को उद्घाटित करती सारगर्भित रचना संगीता जी ! सब कुछ जानते समझते हुए भी यह मन काबू में कहाँ रह पाता है ! किसीको विदा करना सदैव कष्ट देता है और यदि विदाई अंतिम हो तब तो स्वयं को सम्हालना और भी मुश्किल हो जाता है !
इसमें एक महत्वपूर्ण संदेश है। बस,एक कमी है कि जीवन को कष्टमय समझा गया इसलिए,मौत का उत्सव मनाया जाए। नहीं,जीवन कष्टमय नहीं है। यदि है,तो हमारी वजह से ही जीवन की वजह से नहीं। जिसका जीवन कष्टमय होगा,वह स्वयं अथवा उसके लिए आखिरी क्षणों में उत्सव मनाना संभव हो ही नहीं सकता। जीवन प्रसन्नतापूर्वक बीते,जो बिल्कुल संभव है,तभी विदा भी हंसते-हंसते लिया जा सकता है।
mushkil hai ... ek saath ka chhutna jashn nahin ho paata n
एक अलग ही सोच एक अनूठा विचार सोचने को मजबूर करती और अपने मन को और मजबूत करने कि प्रेरणा देती हुई पोस्ट
इंसान के जाने के बाद एक अजीब सा खालीपन उभरता है ...जिसे वक्त धीरे धीरे भरता है ...!देखा जाये तो समाज मृत्यु को उत्सव की तरह ही मनाता है ...मृत्यु के बाद होने वाले रस्म बड़े अजीब होते हैं .....तेरहीं पर तो लगभग शादी जैसा ही माहौल हो जाता है ...फिर तो ज़िन्दगी अपनी रफ़्तार पकड़ ही लेती है ....!!
मेरा भी यही विचार है -
'जीवन-मृत्यु दो छोर हैं
समभाव से ग्रहण हो !
सृजन को जीवन का उल्लास
और विसर्जन को उत्सव बनाना ही
है -जीवन का मूल राग !'
सार्थक चिंतन करती रचना दी...
सादर...
जीवन का अंतिम शब्द मृत्यु ही है
मौत जब निश्चित है तो
उसके आगमन पर
करना चाहिए
स्वागत आल्हाद से
इस त्योहार को भी
मनाना चाहिए उत्साह से .
बहुत सही बात कही आंटी।
सादर
कल 06/12/2011को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
सबको उस पथ जाना ही है।
आपने सही कहा उत्सव मनाना चाहिए पर जो खालीपन आ जाता है वो कभी नहीं भरता ..
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल मंगलवार के चर्चा मंच पर भी की गई है! अधिक से अधिक पाठक आपके ब्लॉग पर पहुँचेंगे तो
चर्चा मंच का भी प्रयास सफल होगा।
बहुत सही कहा.. सार्थक चिंतन..प्रेरक संदेश,,..
हर उत्सव अपने समय पर ही होता है...अ समय मनाओ तो दुःख ही देता है.
हम तो नहीं आयेंगे आपके ऐसे उत्सव पर ..हुह..
नहीं अच्छी लगी ये कविता :(
हाँ जन्म और मृत्यु दोनों ही तो उत्सव के क्षण है लेकिन मृत्यु अगर आयु पूर्ण होने पर प्राप्त होती है तभी वो उत्सव का स्वरूप बन जाती है लेकिन असमय और आकस्मिक मृत्यु जो उस जाने वाले के पीछे बिलखता और निराश्रित परिवार छोड़ कर जाता है वो उत्सव नहीं बन पाती है.
मौत को देखने का अनोखा अंदाज़ है आपका ... उत्सव की तरह जाना हो तो ससकता है पर कमबख्त यादें ऐसा करने नहीं देती ...
यही तो अंतर होता है पाने और खोने में !!!!
संगीता दी,
हो सकता है कई लोगों के लिए यह मात्र कविता होगी.. मगर मेरे लिए यह एक अनुभव रहा है.. वीडियो है मेरे पास... अग्नि को समर्पित किया जा रहा पार्थिव शरीर और उसके चारों तरफ हज़ारों की संख्या में लोग नाचते, उत्सव मनाते और गिटार बजाते हुए.. इतनी सुन्दर मृत्यु.. बस तभी मैंने स्वयं के लिए यह मांग लिया.. और एक पोस्ट लिखी!! लिंक नहीं देटा, उसूल है!! बहुत सुन्दर कविता!!
bahut sundar kavy srijan ,,,,, shukriya ji
पाने और खोने यही अंतर है,खुबशुरत रचना...
बढ़िया पोस्ट,......
संवेदनशील कृति
मृत्यु का जो उत्सव मनाये
फिर जन्म की आशा में
जीत गया वो मृत्यु को भी
जीवन की अभिलाषा में
हमने कई बार मनाया वह भी तन्हा ही। मेरे ही एक शे'र पर गौर फ़रमायें मोहतरमा!
तेरे जमाल के सबब अपने हुए रक़ीब।
तन्हा ही जश्ने मौत मनाये कभी-कभी।।
-ग़ाफ़िल
हमने कई बार मनाया वह भी तन्हा ही। मेरे ही एक शेर पर गौर फ़रमायें मोहतरमा!
तेरे जमाल के सबब अपने हुए रक़ीब।
तन्हा ही जश्ने मौत मनाये कभी-कभी।।
-ग़ाफ़िल
लेकिन
इस सत्य को हम
भूल जाते हैं
अपने प्रमाद में....
जीवन के सच को समझाती सी लगी कविता ..... प्रभावित करते शब्द संगीताजी
कहना आसान और अच्छा लगता है मगर शायद बहुत मुश्किल है !
शुभकामनायें आपको !
आगत का
करते हैं स्वागत
उल्लास से
तो विगत की भी
करो विदाई
हास से
मोह से छूटना आसान नहीं ...मन है तो मोह है मोह है तभी तो कविता है
जन्मोत्सव एवं मृत्यु का उत्सव व्यक्ति स्वयं नहीं मना पाता, इसके लिए परिजनों पर ही आश्रित होना पड़ता है। इसलिए मृत्यु पूर्व उत्सव स्वयं ही मनाया जाए तो उत्तम है।
नवानि देहानि जीर्णानी विहाय।
मृत्यु का भी उत्सव होना चाहिए।
आचार्यों ने तो भी कहा है कि
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोपराणि
sach maut bhi kisi utsav se kam nahi.. lekin bahut mushkil hai bichhudna ka gam..
saarthak saswatrachna prastuti ke liye aabhar!
रचना बहुत अच्छी है संगीता जी, अलबत्ता व्यवहारिकता में ऐसा हो नहीं पाता.
सच बात तो यही होनी चहिये मगर अपने अजीजों को छोड़ते हुए मन रोता जो है ये जानते हुए की जो आया है उसे जाना भी है. काश ये दिलों की मजबूती आ जाये. एक नयी सोच की अर्थपूर्ण कविता बधाई आदरणीय संगीता जी
बहुत सुन्दर भाव
alag soch darshati, saty kahti rachna.
जीवन और मृत्यु दो पहलू है,मौत निश्चित है,..
अगर जन्म में हम खुशी मनाते है तो मौत होने पर खुशी मनाना चाहिए,...
सुंदर प्रस्तुति,,,,
मेरे नए पोस्ट में आपका इंतजार है,....
"विगत की भी करो विदाई
हास से"
जीवन की विगत बातों के लिए यह दृष्टिकोण बहुत व्यावहारिक है. बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति.
aapki rachnayen sadaa leek se hat kar hoti hain..kuch naya sochne ko mazboor kar deti hain...bahut sundar aur anupam bhaavpoorn kriti ke liye bahut bahut badhai didi..
सहज सरल शब्दों में सत्य को कितने सार्थक ढंग से आपने कहा....
बहुत बहुत सुन्दर....
जा रहा पथिक
एक नयी राह पर
तो
प्रसन्नता से
दो हौसला उसको .
खुशियाँ मनाओ कि
जीवन के कष्ट
अब पूरे हुए
जो थे अवरुद्ध मार्ग
अब वो प्रशस्त हुए
......
जी दीदी अब रुदन की परम्परा बंद होनी चाहिए विदाई तो हंस के ही बनती है
बहुत सुंदर दीदी राह दिखाती हुई रचना !!
ओशो का यही संदेश है। बहुत ही प्यारी रचना।
अनन्य सत्य !
आपकी किसी पोस्ट की चर्चा है नयी पुरानी हलचल पर कल शनिवार 10-12-11. को है । कृपया अवश्य पधारें और अपने अमूल्य विचार ज़रूर दें ..!!आभार.
sach kaha apne... lekin aisa hota nahi,hamara moh hame rokta hai ki jane walae ko ullas se bhejein...
fursat ke kuch pal mere blog ke saath bhi bitaiye...achha lagega..
sahi kaha aapne. maut ka bhi swagat hona chahiye
आये हैं सो जायेंगे राजा रंक फ़कीर ... जीते जी मृतक हुए लोंग कब समझेंगे !
जिस दिन आता है कोई जीव इस धरती पर उसी दिन उसका अंत भी आता है साथ में....सच कहा.. बस हम ही भूल जाते हैं कि आया है सो जायेगा... ... आपकी यह पंक्तियाँ पढ़ कर श्री हरिवंश राय बच्चन जी की मधुशाला की यह पंक्तियाँ याद आ गयीं... आने के ही साथ जगत में कहलाया जाने वाला
प्रकृति के अनेक उत्सवों में मृत्यु भी एक उत्सव है।
एक दार्शनिक तथ्य को उद्घाटित करती अच्छी कविता।
एक अलग सी कविता । मृत्यु का भी उत्सव तो होता ही है तेरही और फिर गंगा पूजन कि अब सब कुछ सामान्य हो गया । श्राध्द भी एक उत्सव है विगत की विदाई का । इसमें आंसू भी शामिल हैं यह बात अलग है पर आगत तो हमारे साथ है जब कि विगत चला जाता है ।
बहुत ही गहन चिंतन है.तन-पिंजरे के मोहपाश से आत्मा का मुक्त होना सचमुच ही किसी उत्सव से कम नहीं है.रस्में तो आखिर निभाई ही जाती हैं बस फर्क होता है आँसू और मुस्कान का.
मेरी एक कविता की पंक्तियाँ हैं-
तन से निकले प्राण-पखेरू
काठी है तैयार खड़ी
तीज-नहावन निपट गया फिर
नहीं सुनोगे चीत्कारें.
आप की पोस्ट आज की ब्लोगर्स मीट वीकली (२१)में शामिल की गई है /आप आइये और अपने विचारों से हमें अवगत करिए /आप हिंदी की सेवा इसी तरह करते रहें यही कामना है /आपका मंच पर स्वागत है /जरुर पधारें /लिंक है / http://hbfint.blogspot.com/2011/12/21-save-girl-child.html
उसके आगमन पर
करना चाहिए
स्वागत आल्हाद से
इस त्योहार को भी
मनाना चाहिए उत्साह से .
बिलकुल सही कहा है
मृत्यु भी उत्सव हो सकती है
जिसने जीवन को सम्पूर्णता में जी लिया है
उसके लिये !
सुंदर अभिव्यक्ति ....
ओशो की याद दिलाती कविता
आपकी प्रस्तुति अनुपम है,लाजबाब है.
शब्द नही हैं मेरे पास अपने भावों को
व्यक्त करने के लिए.
सुनीता जी के शब्द दोहरा रहा हूँ.
मै क्या कहूँ शब्द खो गये हैं हाँ वो महसूस कर सकती हैं मेरे मन के भाव।
मृत्यु में निश्चिता, जीवन अनिश्चित है।
क्यों न मनायें हम मृत्यु को उत्सव-सा।।
जीवन हो सार्थक निश्चित नहीं है ये।
मृत्यु में लेकिन दिखती है सार्थकता।।
कमाल की लेखनी, लाजवाब कविता
मैंने महसूस किया है कि ध्यान में एक निश्चित तल तक पहुंचने के बाद,मृत्यु का भय समाप्त हो जाता है। जीवन के आह्लादकारी बनने की शुरूआत यहीं से होती है।
अद्भुत सुन्दर ! बेहद प्रभावशाली एवं सार्थक रचना!
मेरे नये पोस्ट पर आपका स्वागत है-
http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com/
http://seawave-babli.blogspot.com/
वाह,नई सोंच.
सार्थक चिंतन...सुन्दर कविता|
बहुत सुन्दर और उत्क्रिस्ट कविता
कविता में दर्शन है लेकिन बहुत मुश्किल है ऐसा कर पाना एक मानव के लिए
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