स्याह चादर
>> Thursday, March 29, 2012
कहते हैं वक़्त
किसी का इंतज़ार
नहीं करता
चलता रहता है
अनवरत ,
और
हमारी ज़िंदगी भी
चलती रहती है
पल - पल ,
बीतते वक़्त के साथ
बीत जाते हैं
हम भी ,
पर न जाने क्यों
कभी - कभी
ठिठक के
खड़ी हो जाती है
ज़िंदगी ,
और हम
अटक जाते हैं
कि
ऐसा क्यों हुआ ?
ऐसा होना चाहिए था
आगे बढ्ने के बजाए
पीछे भागता है मन
और हम
आने वाली खुशियों को
अनदेखा कर
ओढ़ लेते हैं
उदासी और
डाल देते हैं
एक स्याह चादर
अपनी ज़िंदगी पर ।
71 comments:
सही बात लिखी है ...!आज जियें और आने वाले कल की सोचें ,बीती ताहि बिसर दें ....जीवन उज्जवल ही है ...!!
पता नहीं कब तक बीते वक़्त के पीछे भागते रहेंगे हम..
हमेशा कुछ दिल ka सा कह देती हैं आप.
आगे बढ्ने के बजाए
पीछे भागता है मन
और हम
आने वाली खुशियों को
अनदेखा कर
ओढ़ लेते हैं
उदासी और
डाल देते हैं
एक स्याह चादर
अपनी ज़िंदगी पर ।
ज़िन्दगी का सच बयाँ कर दिया ……काश ये बात हम समझ पाते तो ज़िन्दगी के कितने किस्से सुलझ जाते…………बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति
आगे बढ्ने के बजाए
पीछे भागता है मन
सच, अक्सर होता है ऐसा...!
अच्छी लगी नज़्म...वर्तमान में जीना बेहतर होता है लेकिन मनुष्य का अतीत पीछा कहां छोड़ता है. फुर्सत के समय गुज़रे वक़्त के खट्टे-मीठे लम्हे ज़ेहन में आते ही हैं. उनसे सबक भी लेना चाहिए लेकिन यदि वे वर्तमान को निराशाओं में डुबोने लगें तो उनसे उबरने का प्रयास करना चाहिए.
sach keh rahi hai aap....
जीवन में रियर व्यू दर्पण में झांकना हमेशा आगे बढ़ने की गति में अवरोध पैदा करता है .
बाढ़े रोग-कलेश, आज को जीते जाओ |
जीते रविकर रेस, भूत-भावी विसराओ ||
बहुत बहुत आभार ।।
बहुत अच्छा मार्गदर्शन ।।
आगे बढ़ने के बजाय
पीछे भागता है मन...
अतीत भविष्य से अधिक सुनहला लागे तो...
सुन्दर रचना दी...
सादर.
जीवन के सफर में अक्सर हम ऐसे मुकाम पर पहुँच जाते हैं जहाँ डेड एंड आ जाता है और हम ठिठक कर पीछे लौटने के लिए विवश हो जाते हैं ! यह गतिरोध हमारे मन को अवसाद और उदासी से भर जाता है और हम व्यथित हो जाते हैं ! एक बहुत संवेदनशील एवं सुन्दर रचना ! बधाई स्वीकार करें !
बहुत ही बढ़िया आंटी
सादर
आगे बढ्ने के बजाए
पीछे भागता है मन
दुविधाओं का यथेष्ट चित्रण!!
सटीक अभिव्यक्ति!!
आगे बढ्ने के बजाए
पीछे भागता है मन
सार्थकता लिए हुए सटीक पंक्तियां ...
आने वाली खुशियों को
अनदेखा कर
ओढ़ लेते हैं
उदासी bilkul sahi bat kahi aapne sangeeta jee...sundar prastuti...thanks nd aabhar.
यह सही है...बीती बातों को लेकर व्यथित होता है मन,जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए.
सबकुछ सोचा सा होने लगे तो वह भी गवारा नहीं होगा हमें - स्याह चादर ओढने के बहाने मिल ही जायेंगे
जिन्दगी और समय चक्र भले ही समझौता करके चलते हों मगर मन हमेशा विद्रोही स्वभाव साथ लिए चलता है !
gadi me bhi reverse gair lagao to peeche hi jayegi to ye to zindgi hai aur agar ab gair peechhe ka laga hi hai to peechhe ke avsad ko chhod kar khushiyon k pal chun lo aur speed se aage badh jao usi me sarve bhavantu sukhina ka mool mantr hai...
एकदम सही कहा है आपने..
पूरानी बातों को भूलकर
आनेवाली खुशियों के साथ चलने में ही
ख़ुशी और समझदारी है...
बेहतरीन रचना....
जी हाँ अतीत कभी पीछा नहीं छोड़ता और आगे बढ्ने के बजाए पीछे भागता है मन... गहन अभिव्यक्ति... आभार
बहुत बेहतरीन रचना....
मन की यही तो व्यथा है कि हर बार पीछे मुडकर देखता है.. पीछे लौट जाने को ही मोह कहते हैं.. गीता की सम्पूर्ण ज्ञान बस इसी के परे देखने का अभ्यास है!!
बहुत सुन्दर रचना!!
पीछे देखेंगे तो आगे टकरा ना जायेंगे...
बहुत सुन्दर भाव उकेरे हैं दी...
सादर
अनु
वाह!
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ज्ञात से गहरा जुड़ाव ही पीछे घुमाए रहता है . सुन्दर सत्य..
ज़िन्दगी कई बार दोराहे पर खड़ा कर देती है....!
ये हमारी नियति है कि सब कुछ सुखद चलने पर भी हम कहीं न कहीं से ऐसा कुछ खोज लेते हें कि कदम रुक कर कुछ सोचने पर मजबूर हो जाते हें..
सुंदर रचना,बेहतरीन भाव प्रस्तुति,....
MY RECENT POST ...फुहार....: बस! काम इतना करें....
काव्य की भाव मई प्रस्तुति सम्मान योग्य ... शुक्रिया जी /
इसे ही कहते हैं आगा पीछा देखकर चलना। अच्छे भाव है कविता के। आभार
आने वाली खुशियों को
अनदेखा कर
ओढ़ लेते हैं
उदासी और
डाल देते हैं
एक स्याह चादर
अपनी ज़िंदगी पर ।
सही कहा है ......बढ़िया लगी रचना !
कभी हम उदासी की चादर ओढ़ते हैं और कभी खुशी की रोशनी में नहा जाते हैं।
Bilkul aati hain aisi feelings... sundar abhivyakti
Saadar
बहुत सुंदर और सटीक बात ...न जाने क्यूँ ऐसा ही करते हैं हम ......
वक्त को हम मुट्ठी में कर सकते हैं ...
बस प्रगतिशील बने रहना है
kalamdaan.blogspot.in
'आने वाली खुशियों को
अनदेखा कर
ओढ़ लेते हैं
उदासी...'
बीते का मोह छोड़ पाये तब न -मन भी बड़ी अजीब चीज़ है !
कविता में बहुत ही ज्ञान की बाते हैं।
जिस प्रकार रात्रि का अंधकार केवल सूर्य दूर कर सकता है, उसी प्रकार मनुष्य की विपत्ति को केवल ज्ञान दूर कर सकता है।
मनोज कुमार said...
कविता में बहुत ही ज्ञान की बाते हैं।
जिस प्रकार रात्रि का अंधकार केवल सूर्य दूर कर सकता है, उसी प्रकार मनुष्य की विपत्ति को केवल ज्ञान दूर कर सकता है।
हाँ ...ऐसा होता है बार बार ...शायद हम सब के साथ !
समय के आगे दौड़ लगाने का उत्साह है हम सबके अन्दर।
जीवन दर्शन ही ऐसा है
कल 31/03/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
सच है हम कितना ही चाहे पर अपने अतीत को भूला नही पाते.. सुन्दर अभिव्यक्ति..संगीता जी..
और हम
आने वाली खुशियों को
अनदेखा कर
ओढ़ लेते हैं
उदासी और
डाल देते हैं
एक स्याह चादर
अपनी ज़िंदगी पर ।
जबकी 'असल 'आगे की तरफ है ,
पीछे है सिर्फ व्यतीत ,
जो है ही नहीं ,
देख उसे और ठीक से देख -
जो है ,
तुझसे रु -बी -रु ,
बावस्ता .
बेहतरीन रचना .
अतीत की यादों ...में उदासी के साथ-साथ एक मुस्कान भी छिपी होता है !
ये ही सच है ...
शुभकामनाएँ!
मनुष्य का मन एक पेंडुलम की भांति है। वह या तो भूत में जिएगा या फिर भविष्य में जबकि जीवन प्रायः वर्तमान में ही होता है।
गुजरे हुए वक्त के पीछे भागना भी एक प्रकार की इंसानी फितरत ही है शायद, यथार्थ को कहती सार्थक प्रस्तुति...
अतीत की ओर देखने से सच में जिंदगी ठिठक जाती है... बस समय के प्रवाह के साथ बहते चलने का नाम जिंदगी है..सुंदर कविता।
मन तो बड़ा चंचल होता है और उसकी उड़ान भी हमारी पहुँच के बाहर---------बहुत सुन्दर प्रस्तुति
आगे बढ्ने के बजाए
पीछे भागता है मन
और हम
आने वाली खुशियों को
अनदेखा कर
ओढ़ लेते हैं
उदासी और
डाल देते हैं
एक स्याह चादर
अपनी ज़िंदगी पर ।
....जीवन का एक कटु सत्य...हम अपने भूत काल के बारे में सोचते रहते हैं और परिणामतः वर्तमान और भविष्य को भी बिगाड़ लेते हैं..बहुत सार्थक अभिव्यक्ति..आभार
http://aadhyatmikyatra.blogspot.in/
मन और कदम कहाँ एक दूसरे का साथ दे पाते हैं... ऐसे क्षण जीवन में अक्सर ही आते हैं जब कदम ठिठक कर बार बार पीछे लौटने की, भूला बिसरा याद करने की ज़िद करने लगते हैं.. सुंदर रचना... आपकी रचनाएँ सदैव ही जीवन के करीब होती हैं... इसी लिए अपनी सी लगती हैं...
सादर
और हम
आने वाली खुशियों को
अनदेखा कर
ओढ़ लेते हैं
उदासी और
डाल देते हैं
एक स्याह चादर
अपनी ज़िंदगी पर ।
सच कहा आपने
हम कुछ समझ कर भी समझना नहीं चाहते...जान कर भी जानना नहीं चाहते....दिल को छूती पंक्तियाँ...
वास्तव में हम सभी या तो अतीत में जीते हैं...या फिर भविष्य में .....वर्तमान की तरफ ध्यान ही नहीं जाता .....और तब जाता है जब वह भूत बन जाता है ....जीवन की इस विडम्बना को कितने सहज सरल तरीके से कह दिया ....बिना किसी आडम्बर के......बहुत सुन्दर !!!!!
kaash ye chaadar out of stock ho jaae..........
maansik shithiltaa akarmanytaa ko bhee aagosh me le letee hai.
हा किलकुल सत्य ..शायद ये सभी के साथ होता है ..कितना सटीक लिखा है
अतीत सुन्दर ही होता है ...जान बूझ कर उसी में भटकता रहता है मन ...बिलकुल सटीक लिखा आपने
आपने कविता में वर्तमान की खुशियों को समेटने की सुंदर बात कही है। लेकिन जैसा कि आपने बताया है कि पीछे मुड़कर देखना मानव मन का स्वभाव होता है। आपकी कविता पढ़ते हुए मुझे सालों पहले लिखी कुछ पंक्तियां याद हो आयीं....समय तो चलता है, लेकिन किसी का इंतजार नहीं करता। हम भी चल रहे हैं। तेजी से भाग रहे हैं। दौड़ और सोच रहे हैं कि इस दौड़ से बाहर आकर जीवन के हर पल को जीने का क्या रास्ता हो सकता है..............।
बहुत-बहुत शुक्रिया सुंदर कविता के लिए। आभार
आने वाली खुशियों को
अनदेखा कर
ओढ़ लेते हैं
उदासी और
डाल देते हैं
एक स्याह चादर
अपनी ज़िंदगी पर ।
bahut theek kaha hai aapne shayad sabhi ke dil ki baat hai yahi
rachana
सही कहा !
अभिनय करते-करते पूरा जीवन व्यतीत हो जाता है।
आने वाली खुशियों को
अनदेखा कर
ओढ़ लेते हैं
उदासी और
डाल देते हैं
एक स्याह चादर
अपनी ज़िंदगी पर।
सच कहा संगीता दी. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति.
ये सच है की अतीत की काली छाया कभी कभी आने वाली खुशी को देखने नहीं देती और पूर्ण जीवन को काला कर देती है ... पर इंसान के बस में शायद नहीं होता भुला पाना ...
बीतते वक़्त के साथ
बीत जाते हैं
हम भी ,
न न न ...
कालो न यातो वयमेव यातो ..
यह हम हैं जो व्यतीत होते हैं काल नहीं ....
पर न जाने क्यों
कभी - कभी
ठिठक के
खड़ी हो जाती है
ज़िंदगी ,
और हम
अटक जाते हैं
touching lines.
bahut hi sundar rachana bilku sach ....abhar ke saath hi badhai
हम सबकी जिंदगी का सच, बहुत अच्छी रचना, बधाई.
एकदम सही बात लिखी आपने, ऐसा ही कुछ चल रहा है आजकल आसपास...
मगर कभी-कभी ये वक़्त ही
वो स्याह चादर दाल देता है
हमारे ऊपर
और हम उसे पानी किस्मत मान
बैठ जाते हैं उदास...
सार्थक अभिव्यक्ति
संगीता जी अब तो दुसरे संकलन की भी सामग्री तैयार हो चुकी है ....
कब तक ....?
खुदा तेरी दुनियाँ में आया हूँ जब से ,
दिखाऊं तुझे क्या मैं ,क्या देखता हूँ ,
वक्त के हाथो मजबूर हूँ आज भी ,
नहीं तो कभी नहीं छोड़ता आज भी
दामन अपनी खुशियों का ||......अनु
यह मानव का सहज स्वभाव है जो रह रह कर पीछे ही भागना चाहता है, अतीत से बाहर निकल पाना असम्भव तो नहीं किंतु कठिन बहुत है.सुंदर रचना.
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