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जीवित - मृत

>> Saturday, May 1, 2021

 

श्रद्धांजलि देते देते 
लगने लगा है 
कि 
खुद हम भी 
किसी चिता का 
अंश बन गए हैं ।
गर इस एहसास से 
निकलना है बाहर 
तो कर्म से 
च्युत हुए बिना 
जियो हर पल 
और निर्वहन 
करते हुए 
अपनी जिम्मेदारियों का 
सोचो कि 
तुम ज़िंदा हो । 

तुम ज़िंदा हो 
क्यों कि 
होता है 
व्यथित मन 
किसी के चले जाने से 
जिसे तुम जानते भी नहीं 
तब भी 
हो जाते हो विचलित । 
तुम ज़िंदा हो 
क्यों कि 
तुम चाहते हो 
कि कर सको मदद 
किसी की भी जिसे 
इस कठिन समय में 
हो ज़रूरत ,
तुम ज़िंदा हो 
क्यों कि 
नहीं देखते 
किसी का धर्म -जाति , 
नहीं करते भेद भाव 
बस 
तड़प उठते हो 
किसी के भी 
बीमार हो जाने से ।

ऐसे वक्त में 
अपने स्वार्थ को 
साधते हुए 
कर रहे 
मोल - भाव 
श्वासों का , 
और सोच रहे कि 
बचा रहे हैं प्राण ,
कर ली कुछ 
कालाबाज़ारी तो क्या हुआ 
मुहैय्या तो करा  दीं  
प्राण वायु और दवाइयाँ ,
मानवीय स्तर पर 
वो , मृत हैं ।

मृत हैं वो जो 
केवल निकालते 
अपनी भड़ास 
उठाते रहते उँगली 
हर क्षण दूसरों पर ,
सिस्टम को कोसते हुए 
भूल जाते हैं 
हम ही तो हैं 
हिस्सा सिस्टम का ।
असल में 
हम सब की 
पास की नज़र 
कमज़ोर है 
जो अपने ही गिरेबाँ को 
देख नहीं पाती ।














24 comments:

जितेन्द्र माथुर 5/01/2021 10:11 AM  

आपने ठीक कहा संगीता जी।

Onkar 5/01/2021 12:34 PM  

ठीक कहा

Kamini Sinha 5/01/2021 12:52 PM  

असल में
हम सब की
पास की नज़र
कमज़ोर है
जो अपने ही गिरेबाँ को
देख नहीं पाती ।

सत्य वचन दी,खुद अपने लिए अपने परिवार के लिए भी अपनी जिम्मेदारी तक नहीं निभा पाते और देखते रहते है दूसरों की गलतियों को।
खुद को और परिवार को बचाकर बस अपना फ़र्ज़ निभा लो तो यकीनन तुम जिन्दा हो।

खुद पर विचार करना सीखा रही है आपकी सृजन ,सादर नमन आपको

MANOJ KAYAL 5/01/2021 2:29 PM  

बहुत सुंदर सृजन

उषा किरण 5/01/2021 2:41 PM  

श्रद्धांजलि देते देते
लगने लगा है
कि
खुद हम भी
किसी चिता का
अंश बन गए हैं ।
सच यही मन:स्थिति बनी हुई है आज रोज ही मर- मर कर जीते हैं 😕

Anupama Tripathi 5/01/2021 4:07 PM  

गहन विचार ,सोचने को मजबूर कर रहे ,बहुत खूब !!

Anita 5/01/2021 4:41 PM  

शत प्रतिशत सही कह रही हैं आप संगीता जी, आज इंसानियत ही सबसे बड़ी जरूरत है, कोरोना ने सबको हाशिये पर लेकर खड़ा कर दिया है. कब किसको किसकी जरूरत पड़ जाये कोई नहीं कह सकता, और मदद के नाम पर हम सद्भावनाएँ ही तो भेज सकते हैं,अपनों से भी तो मिल भी नहीं सकते

Amrita Tanmay 5/01/2021 8:29 PM  

हृदय को भेदती हुई और अत्यांतिक तल पर विचलित करती हुई अभिव्यक्ति ।

पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 5/01/2021 8:52 PM  

तुम ज़िंदा हो
क्यों कि
होता है
व्यथित मन
किसी के चले जाने से
जिसे तुम जानते भी नहीं
तब भी
हो जाते हो विचलित ।
एक संवेदनशील मन की मनःस्थिति का दर्पण है आपकी यह रचना। इस परिवेश में, एक धनात्मक नजरिया अपनाना ही इससे बाहर निकलने का रास्ता हो सकता है, न कि, एक दूसरे पर बेवजह आरोप लगाना।
श्रेयस्कर हो कि हमें समय रहते आपकी ये बातें समझ में आ जाए।

सदा 5/01/2021 9:56 PM  

श्रद्धांजलि देते देते
लगने लगा है
कि
खुद हम भी
किसी चिता का
अंश बन गए हैं ।
व्यथित मन की पीड़ा ...

Prashant Swarup,  5/01/2021 10:12 PM  

True, Eagle Eyed/ Styled Opportunists( Giddh) have been encashing such opportunities since time immemorial.
Unke liye to ye paisa kamaane ke jabardast mauke hi hain..Insaniyat or Insan ko jhonkiye bhaad mein!

shikha varshney 5/02/2021 12:24 AM  

पास की नजर क्या, नजर है नहीं खुद को देखने वाली तो। झकझोरती हुई कविता।

चला बिहारी ब्लॉगर बनने 5/02/2021 11:54 AM  

एक ऐसा दौर जिसे भले ही हम काला अध्याय मानकर याद करें, कई अर्थों में हमारे मानस पटल पर एक निशान छोड़ जाएगा, भले ही वह निशान घाव के ही क्यों न हों!
दीदी, आपकी यह कविता, आज के दौर की घिनौनी तस्वीर प्रस्तुत करती है!

yashoda Agrawal 5/02/2021 6:19 PM  

तुम ज़िंदा हो
क्यों कि
नहीं देखते
किसी का धर्म -जाति ,
नहीं करते भेद भाव
बस
तड़प उठते हो
किसी के भी
बीमार हो जाने से ।

जिज्ञासा सिंह 5/02/2021 7:57 PM  


मृत हैं वो जो
केवल निकालते
अपनी भड़ास
उठाते रहते उँगली
हर क्षण दूसरों पर ,
सिस्टम को कोसते हुए
भूल जाते हैं
हम ही तो हैं
हिस्सा सिस्टम का ।
असल में
हम सब की
पास की नज़र
कमज़ोर है
जो अपने ही गिरेबाँ को
देख नहीं पाती ।
..बिलकुल सटीक कथन है आपका दीदी, हर किसी को अपने हिस्से का कार्य करना चाहिए ।आखिर हमें सिस्टम हैं ।।

रेणु 5/02/2021 10:44 PM  

श्रद्धांजलि देते देते
लगने लगा है
कि
खुद हम भी
किसी चिता का
अंश बन गए हैं ।////
जी प्रिय दीदी, हर तरफ रुदन और चिताओं का सुलगना आम इंसान की रातों की नींद और दिन का चैन लिए जा रहा है। सहमे लोग विचलित हैं तो कालाबाजारी करने वाले अपने हाथ धन से रंगने पर तुले हैं। इन कथित जीवित मृतों का क्या किया जाए!
प्रिय श्वेता की रचना के बाद कोरोना काल पर आपकी ये रचना मन को उद्वेलित कर गयी। सच मे अपने दायित्वों में लिप्त रह ही हम इस पीड़ा से निजात पा सकते है। संवेदनाओं से भरी रचना के लिए साधुवाद और हार्दिक शुभकामनाएं🙏 🙏❤❤🌹🌹

Preeti Mishra 5/03/2021 12:57 PM  

इस समय तो कोरोना की वजह से हर तरफ तबाही की तस्वीर उभर रही है

Ananta Sinha 5/03/2021 8:46 PM  
This comment has been removed by the author.
Ananta Sinha 5/03/2021 8:54 PM  

आदरणीया मैम, बहुत ही सुंदर और सशक्त रचना जो न केवल हमें प्रेरणा देती है पर नमाज के उन चंद संवेदनहीन भ्रष्ट लोगों पर कठोर प्रहार करती है जो इस दूभर परिस्थिति में भी दूसरों का खून चूसकर अपने लिए भोग विलास इकट्ठा कर रहे हैं।
मन को झकझोरती हुई इस सुंदर और सशक्त रचना के लिए बहुत बहुत आभार व आपको प्रणाम।

Sudha Devrani 5/04/2021 6:35 AM  

असल में
हम सब की
पास की नज़र
कमज़ोर है
जो अपने ही गिरेबाँ को
देख नहीं पाती ।
एकदम सटीक...
ऐसे समय में भी जो लाशों से कफन बेचकर कमाई करने के लिए श्वासों की भी कालाबाजारी में लिप्त हैं सच कहा आपने वे सचमुच मृत हैं कोरोना उनके शरीर को ही नही जमीर को भी खा चुका है....।
समसामयिक भयावह माहौल का सटीक विश्लेषण करती बेहद उत्कृष्ट रचना।

प्रतिभा सक्सेना 5/04/2021 8:35 AM  

जो कुछ घट रहा है उसे देखने के लिए तटस्ठ दृष्टि की आवश्यकता है ,क्यों कि उसी प्रवाह में रह कर ,या समीप से दखने पर पास का भाग बड़ा और दूर का अपेक्षकृत छोटा या कम लगता है -सहज,संतुलित रूप दृष्टिगत नहीं होता .

दिगम्बर नासवा 5/04/2021 1:11 PM  

सच कहा है .. काम करने वाले जुटे हुए हैं ... बिना शिकायत, बिना लाग लपेट के ...
ये समय खुद और साथ साथ सभी की मदद कररने का है ... निज स्वार्थ से ऊपर उठने का है ...

Jyoti Dehliwal 5/04/2021 2:04 PM  

संगिता दी,काल ही पता चला कि वर्षा दी नहीं रही। मैं उन्हें व्यक्तीगत रूप से तो नही पहचानती थी लेकिन एक ब्लॉगर के रूप में अच्छी पहचान थी। सच मे फिलहाल यही हाल है कि श्रद्धांजलि देते देते थकान महसूस होने लगी है। लगता है कि कब ये सिलसिला टूटे। बहुत सुंदर रचना।

Bharti Das 5/09/2021 7:30 PM  

बहुत सुंदर मर्मस्पर्शी रचना

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