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सच बताना गांधारी !

>> Thursday, June 10, 2010





हे गांधारी !

तुम्हारे विषय में बड़ी जिज्ञासा है 

उत्तर  पाने की तुमसे आशा है 

जानना चाहती हूँ  तुमसे कुछ तथ्य 

क्या बता पाओगी पूर्ण सत्य ?

पूछ ही लेती हूँ तुमसे आज 

लोगों को बड़ा है तुम पर नाज़ ...

कहते हैं सब कि गांधारी पतिव्रता थी 

पति के पदचिह्नों  पर चला करती थी 

किया था तुमने पति  का अनुसरण 

प्रतिज्ञा कर दृष्टिहीनता को किया वरण

पर  सच बताना  गांधारी 

क्या यह तुम्हारा  सहज ,

सरल, निर्दोष  प्रेम था ?

दया  थी पति  के प्रति 

या फिर  मन का क्षेम  था ? 

यदि प्रेम  की   अनुभूतियों  ने 

तुमसे  ऐसा  कराया 

तो क्षमा  करना गांधारी 

मेरा मन इस कृत्य के लिए 

तुमसे सहमत नहीं हो पाया .

पति की इस लाचारी को 

अपने नेत्रों से आधार प्रदान करतीं 

बच्चों की  अच्छी परिवरिश  से 

सच ही उनका कल्याण  करतीं 

अपनी दूरदर्शिता से तुम 

राज्य   का उत्थान करतीं 

जब लडखडाते  धृतराष्ट्र  तो 

तुम  उनका संबल  बनतीं .

पर तुमने तो हो कर विमुख 

अपने कर्तव्यों  को त्याग दिया 

हे  गांधारी ! 

कहो ज़रा ये तुमने क्या किया ? 

पर  सच तो यह है  कि--

नारी  मन कौन  समझ पाया है 

उसके हृदय के भूकंपों को 

कब कौन जान पाया  है ?

मन के  भावों को  अन्दर  रख 

रोज  सागर  मंथन करती है 

मंथन से निकले हलाहल को 

स्वयं रोज पिया करती है 

शायद  तुमने भी तो उस दिन 

चुपचाप  विषपान किया था  

आक्रोशित  मन के उद्वेलन  को 

तुमने चुपचाप सहा था 

आजीवन दृष्टि विहीन रहने में 

मुझको  तेरा आक्रोश  दिखा है 

सच कहना  गांधारी ---

ऐसा  कर क्या तुमने 

सबसे प्रतिकार लिया है ? 

धोखा   खा कर शायद यह 

प्रतिक्रिया हुई ज़रूरी 

समझ सकी हूँ बस इतना ही 

कि  यह थी तेरी  मजबूरी 

मौन  रहीं तो  बस  सबने 

तुमको था देवी जाना 

असल क्या था मन में तुम्हारे 

यह  नहीं किसी ने  पहचाना ......





                                   http://chitthacharcha.blogspot.com/2010/06/blog-post_19.html

80 comments:

shikha varshney 6/10/2010 6:21 PM  

दी! आज तो आपने मेरे सारे सवाल अपनी कविता में उतार दिए ..यही कुछ सवाल ( राम+सीता , राधा +कृष्ण समेत)मेरे भी मन में कौंधते रहते हैं और मैं अपनी नानी से यही सारे सवाल कर उन्हें बहुत तंग करती थी और वो डांट दिया करती थीं चुप! भगवान के लिए ऐसा नहीं कहते :)
बहुत बहुत बहुत अच्छी प्रस्तुति.

पी.सी.गोदियाल "परचेत" 6/10/2010 6:22 PM  

"यदि प्रेम की अनुभूतियों ने
तुमसे ऐसा कराया
तो क्षमा करना गांधारी
मेरा मन इस कृत्य के लिए
तुमसे सहमत नहीं हो पाया .
समझ सकी हूँ बस इतना ही
कि यह थी तेरी मजबूरी
मौन रहीं तो बस सबने
तुमको था देवी जाना
असल क्या था मन में तुम्हारे
यह नहीं किसी ने पहचाना ......

सोचने को विवश करते सवाल , उस पहलू का एक दूसरा सत्य,सुन्दर रचना

संगीता पुरी 6/10/2010 6:32 PM  

मौन रहीं तो बस सबने

तुमको था देवी जाना

असल क्या था मन में तुम्हारे

यह नहीं किसी ने पहचाना ......

गजब की सोंच हैं आपकी .. और लेखन के बारे में क्‍या कहना !!

दिलीप 6/10/2010 6:39 PM  

soch ne badi oonchi chhalaang lagayi aur ye adbhut rachna utaar laayi...waah bahut khoob abhivyakti...

kunwarji's 6/10/2010 6:51 PM  

अद्भुत प्रवाह के साथ प्रभावी मंथन...सोचने को विवश करती आपकी ये रचना....

कुंवर जी,

रवीन्द्र प्रभात 6/10/2010 7:27 PM  

बहुत अच्छी कविता ,अद्भुत सोंच.

vandana gupta 6/10/2010 7:36 PM  

बहुत ही गहरा मंथन किया है तभी सागर से ये विषभरा अमृत निकला है………………बेहद प्रशंसनीय, उम्दा रचना।

Taru 6/10/2010 7:41 PM  

''मुझको तेरा आक्रोश दिखा है
सच कहना गांधारी ---
ऐसा कर क्या तुमने
सबसे प्रतिकार लिया है ?
धोखा खा कर शायद यह
प्रतिक्रिया हुई ज़रूरी
समझ सकी हूँ बस इतना ही
कि यह थी तेरी मजबूरी ''

wowwwwww.....sahi likha Mumma.....woh hota hai na gusse mein khud ko takleef pahunchana..kyunki khud se jude logon ko us takleef se takleef to hogi hi...........like this......:)

mujje bhi achha laga is nazariye se Gandhari ki pattiyon ko dekhna.......aisa kabhi socha nahin tha...sach mein...:):)

bahut achhi kavita hui hai...concepts aur craft donon hi sadhe hue hain.....
badhaaaaaaaaaaaaaaaaaaayi :D

अरुणेश मिश्र 6/10/2010 7:41 PM  

युगचेता के दायित्व को रचनाकार ने वाणी दी है ।

rashmi ravija 6/10/2010 7:45 PM  

गांधारी के मन में चल रहें भावों को शब्द देने की अच्छी कोशिश की है...और उनके इस कृत्य को कविता के माध्यम से समग्रता में देखने की चेष्टा की है और कई सवाल जो मन को मथते रहते थे...आपने बखूबी उन्हें उठाया है..
बहुत ही प्रभावशाली रचना

रश्मि प्रभा... 6/10/2010 7:49 PM  

यह गांधारी का विरोध ही था
लोगों को जवाब देते रहने की प्रक्रिया से पलायन ....और संसार का अलौकिक दृश्य देखकर भी क्या करती, पतिव्रता की तरह हर वक़्त धृष्टराष्ट्र को आँखों देखा हाल सुनना पड़ता...waah

चला बिहारी ब्लॉगर बनने 6/10/2010 7:53 PM  

संगीता जी, आपका कबिता अनूठा होता है..ई भी अनूठा है... नाटक अंधा युग के बाद, कबिता में आपका प्रयोग निराला है... लेकिन एक बात खटक रहा है, ई गलती है कि खाली हमको लग रहा है….काहे कि कमेंट में कोई नहीं बोला है, त हम बोल देते हैं...कबिता में कहीं कहीं पर धृतराष्ट्र का सम्वाद में अपने लिए स्त्री सम्बोधन हो गया है… जैसेः
हे गांधारी !
तुम्हारे विषय में बड़ी जिज्ञासा है
उत्तर पाने की तुमसे आशा है
जानना चाहती हूँ तुमसे कुछ तथ्य
क्या बता पाओगी पूर्ण सत्य ?
पूछ ही लेती हूँ तुमसे आज
अंत में यही त्रुटि (अगर त्रुटि है तब) देखाई दे रहा है...छमा चाहेंगे...बताइएगा जरूर!!

राजकुमार सोनी 6/10/2010 8:12 PM  

अरे बाप से कविता का एकदम नया एंगल।
गांधारी ने वाकई यदि ठीक-ठाक परवरिश की होती तो शायद महाभारत की कथा कुछ और होती।
नया विचार। बधाई।

संगीता स्वरुप ( गीत ) 6/10/2010 8:27 PM  

सभी सुधि पाठकों को मेरा आभार...

बिहारी भई...
तुम्हारे विषय में बड़ी जिज्ञासा है

उत्तर पाने की तुमसे आशा है

जानना चाहती हूँ तुमसे कुछ तथ्य

क्या बता पाओगी पूर्ण सत्य ?

पूछ ही लेती हूँ तुमसे आज

लोगों को बड़ा है तुम पर नाज़ ..


ये संवाद धृतराष्ट्र का नहीं है....ये मेरे मन की जिज्ञासा है....

nilesh mathur 6/10/2010 8:44 PM  

बहुत ही सुन्दर रचना है, और विषय भी बेहतरीन है, शायद गांधारी से इस तरह के प्रश्न किसी ने नहीं किये honge!

kshama 6/10/2010 9:05 PM  

Sach...man kaa thaah kaun le sakta hai? Apne man ka nahi lagta,to doosare ke man ka kaise lage?

चला बिहारी ब्लॉगर बनने 6/10/2010 9:28 PM  

बहुत दिनों से आपका कबिता पढ रहे हैं… इसलिए त्रुटि है बोलने में डर लग रहा था... तभी हम बोले कि हमको लग रहा है... असल में हमको लगा कि ई धृतराष्ट्र का सम्बाद है... लएकिन आपके बताने के बाद पूरा कबिता साफ हो गया... हमारा गलती छमा कीजिएगा अऊर मन में मत रखिएगा...स्नेह बनाए रखिएगा...

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 6/10/2010 9:33 PM  

गांधारी को इंगित करके मन की बात कहना
कोई आपसे सीखे!
--
बहुत बढ़िया रहा यह विश्लेषण!

L.R.Gandhi 6/10/2010 10:24 PM  

धृत राष्ट्र आज भी पुत्र मोह में अंधे हैं....और गांधारी ने अनादी काल से नारीसुलभ विवशता के बंधन पाल रखे हैं॥
इतनी पतिव्रता पत्नी भी वासना के अंधे पति से 'युयुत्सु' आगमन पर विवश है॥

Udan Tashtari 6/10/2010 10:41 PM  

अद्भुत रचना!!


असल क्या था मन में तुम्हारे
यह नहीं किसी ने पहचाना ......

यूं भी नारी मन की थाह अब तक कौन ले पाया है, जाने क्या था!!

बहुत शानदर!

अनामिका की सदायें ...... 6/10/2010 10:59 PM  

कुछ कहती भी गांधारी
क्या कोई मानता उसकी बात?
पुरुष प्रधान समाज में क्या होता
गांधारी के आक्रोश का समाधान ?
भावा-वेश में चाहे उसने
किया था खुद को
बच्चो के कर्तव्य से भी विमुख.
मगर देख देख अंधे पति को
क्या न होता
उसका जीवन और अधिक
कुंठाओं से वीभत्स्व
इसलिए चुप रह कर ही
उसने मज़बूरी को अपनाया
देवी रूप रख
खुद के वजूद को उठाया.

अनामिका की सदायें ...... 6/10/2010 11:17 PM  

आपकी रचना कल ११/६/१० के चर्चा मंच के लिए चुन ली गयी है.

http://charchamanch.blogspot.कॉम

आभार.

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) 6/10/2010 11:22 PM  

बहुत बहुत बहुत अच्छी प्रस्तुति.

Apanatva 6/10/2010 11:41 PM  

jitnee tareef kee jae utnee kum hai........

Urmi 6/11/2010 12:48 AM  

अद्भुत सुन्दर रचना! कमाल कर दिया है आपने! इतना ही कहूँगी की आपकी लेखनी को सलाम!

वाणी गीत 6/11/2010 4:19 AM  

गांधारी को आँख पर पट्टी बांधे देखना कहीं भी उसके पतिव्रत धर्म से जुड़ा हुआ नहीं लगता .... अपनी जिम्मेदारी से भागते हुए आँख पर पट्टी बांधना उसका प्रतिकार था , विरोध था ...
या फिर देख कर भी आँखें बन रखने के इलज़ाम से बचने का एक बहाना ...
यह सच है कि यदि गांधारी ने अपनी आँखें जान कर अँधेरी ना की होती तो उसके बच्चों का भविष्य और चरित्र और कुछ ही होता ...
इतिहास गवाह है जब माता- पिता जानबूझ कर बच्चों की हरकतों को आँख मूंद कर नजरंदाज़ करते हैं , एक महाभारत की पृष्ठभूमि रचते हैं ...
आपकी कविता ने सोचने पर विवश किया ....
आपकी हर कविता की तरह यह भी बहुत अच्छी लगी ....

Unknown 6/11/2010 9:10 AM  

ये है कविता !

ये है कविता का शिल्प !

ये है नारीत्व का विराट दर्शन !

____बधाई !

ऐसी कवितायेँ ही मन में उतरती हैं ॥

वाह ! बढ़िया विषय पर - बढ़िया रचना ।

Avinash Chandra 6/11/2010 9:51 AM  

bilkul sateek...seedhe andar tak risne wali kavita..

laptop ka keypad kharab ho gaya hai...fir aaunga, bahut kuchh kahne :)

Dr.Ajmal Khan 6/11/2010 10:37 AM  

आज मैं पहली बार आप के ब्लोग पे आया , और आते ही इक अलग तरह के विचारो को काव्य के रूप मे बह्ते देखा , बहुत अच्छी लगी आप की रचना..........

रेखा श्रीवास्तव 6/11/2010 11:01 AM  

क्या बात है ? कितने सारे विषयों पर लिखा जा रहा है , एक अलग सोच और प्रश्नों ने तुम्हारी अभिव्यक्ति को जो नया आयाम दिया है में तो दंग रह गयी. किसी ने इतिहास से लेकर शायद आज तक गांधारी से ये प्रश्न नहीं पूछा होगा ( जहाँ तक मेरी जानकारी है) बहुत अच्छा किया ? गांधारी के रूप में आज भी कई गांधारी हैं वे पट्टी भले ही न बंधें हों , फिर भी अंध पतिभक्ति में उसके गलत सोच और कार्यों में अनुगमन कर रहीं हैं. पर ये एक मौन विरोध है.

Khare A 6/11/2010 2:28 PM  

aksharsh stya ko ujagar karti
aapki ye kirti, gazab likha di
ek anuttarit yakhs prashn,
jise hum prabhu ki lila kaehte
kya bakai aisa hi hota he?

M VERMA 6/11/2010 2:32 PM  

सार्थक प्रश्न उकेरती रचना. गान्धारी ने क्या अपने उत्तरदायित्वों के निर्वहन से पलायन किया था?
सुन्दर रचना ... सार्थक रचना ... भावपूर्ण रचना ... लीक से अलग रचना

Shekhar Kumawat 6/11/2010 3:29 PM  

आभार इस कविता को प्रस्तुत करने का..अच्छी पोस्ट!

मुदिता 6/11/2010 7:52 PM  

दीदी,
गज़ब की रचना हुई है..सोचों को प्रवाहमय शब्द दिए और अनेक सवालों के सवालनुमा जवाब... याद आ रहा है कि इस विषय पर पहले भी कभी संवाद हो चूका है.. सोचों को गति देती एक उत्कृष्ट रचना ..

संजय भास्‍कर 6/11/2010 11:40 PM  

…बेहद प्रशंसनीय, उम्दा रचना।

Unknown 6/12/2010 9:36 AM  

संगीता जी कई दिनों बाद ब्लॉग पर आना हुआ....कविता पढकर आना सार्थक हो गया...नारी विमर्श की सशक्त रचना है यह, स्व में कैद और स्व की परिधि को लांघ खुद से और समाज व व्यवस्था से सवाल करती नारी का आकर्षक चित्र है ये...देवी की पदवी देकर उसे खामोश करने की साजिश सदियों से जारी है...आज आवश्यकता उसकी हर ख्वाहिश को आवाज देने की है.....आज एक बार फिर आपने खुश कर दिया..आपकी प्रतिभा को सलाम..श्रेष्ठ सृजन यूं ही अनवरत जारी रखे..शुभकामनाएं।

ज्योत्स्ना पाण्डेय 6/12/2010 11:28 AM  

नारी मन का उद्वेलन प्रस्तुत कर आपने उसके देवी होने का मुलम्मा उतार फेंका है .....जो मजबूरी वश उसे ओढना पडता है..

सार्थक प्रस्तुति.
आभार!

Mumukshh Ki Rachanain 6/12/2010 11:30 AM  

लाजवाब रचना.................
सुन्दर प्रस्तुति पर हार्दिक आभार

चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर

स्वप्निल तिवारी 6/12/2010 1:58 PM  

hain to sare sawaal dimaag ke parde kholne wale...gandhari aaj hoti to shayad unhe sachmuch bahut afsos hota ki unhone kyun nahi aise kadam uthaye jisse pati aur rajya dono ka bhala hota... aur shayad apne putron ko bhi kuch sanskaar de pateen wo ...aur agar sanskar de paateen to shayd mahabharat jaisa mahayddha hua hi nahi hota....ab is kavita ko padhne ka karan bas yahi lag raha hai mujhe to ..ki gandhari ne apni aankhon par patti baandh li....

योगेन्द्र मौदगिल 6/12/2010 9:41 PM  

Achhi kavita.... Bhavotprerak.... Wah g Wah..

हरकीरत ' हीर' 6/12/2010 11:00 PM  

संगीता जी सवाल तो सही उठाये हैं आपने .....
और भी कई सवाल हैं ....
पट्टी बाँध लेना क्या सही मायनों में पतिधरम का पालन है ....?
ये पतिव्रत धरम पालन कभी तो खुलता ही होगा ....

आपकी लेखनी काफी सशक्त होती जा रही है ....

आने में जरा देर हुई ...वजह मैं नहीं कंप्यूटर था ....!!

निर्मला कपिला 6/13/2010 10:03 AM  

रचना और उसके भाव ,प्रश्न दिल को छू गये\
नारी मन कौन समझ पाया है

उसके हृदय के भूकंपों को

कब कौन जान पाया है ?

मन के भावों को अन्दर रख

रोज सागर मंथन करती है

मंथन से निकले हलाहल को

स्वयं रोज पिया करती है
इन पँक्तियों ने ही बहुत कुछ कह दिया है। शायद गान्धारी की कुछ लाचारी रही हो जो उसने अपनी आँखें मूँद ली। या वो पति से अन्दर ही अन्दर त्रस्त हो जो उसकी शक्ल भी नही देखना चाहती हो और प्रतिकार स्वरूप ऐसा किया हो-- मूक प्रतिशोध भी हो सकता है मगर जो भी किया वो कायरता थी। कालजयी रचना है बधाई

रूपम 6/13/2010 10:33 AM  

अच्छे विचार ,अच्छी लेखनी के साथ
हमारा सारा समाज शुरू से ही पुरुष -प्रधान रहा है
सभी पुरुषों ने मिलकर , स्त्री को त्याग और वलिदान की मूर्ति बना कर ख़ूब शोषित किया है .
गांधारी भी उन्ही में से एक रही होंगी,
किसी ने सत्य ही कहा है ,"होती नहीं है बनायीं जाती है औरत"
हमारे अब तक पिछड़े होने का कारन सिर्फ यही है की स्त्री ने भी आगे बढकर कभी कमान संभालने का फैसला नहीं किया है
ये सिर्फ कहा जाता है की औरत आदमी के साथ कदम मिला कर चल रही है पर ये सत्य नहीं.

दिगम्बर नासवा 6/13/2010 12:37 PM  

शशक्त रचना ... इतिहास का सच देखने की कोशिश .... अन्छुवे पहलू को नयी दृष्टि से देखने का प्रयास ...

hem pandey 6/13/2010 2:08 PM  

आपने गांधारी के कृत्य को एक नए दृष्टिकोण से देखा है. साधुवाद. सच ही कहा है -

मौन रहीं तो बस सबने

तुमको था देवी जाना

असल क्या था मन में तुम्हारे

यह नहीं किसी ने पहचाना ......

Asha Lata Saxena 6/13/2010 3:57 PM  

बहुत सुंदर लिखतीं हैं आप |गांधारी के माध्यम से बहुत भाव पूर्ण अभिब्यक्ति है | मेरी बधाई स्वीकार करें
आशा

एक बेहद साधारण पाठक 6/13/2010 6:01 PM  

एकदम नया और सोचने पर मजबूर करता द्रष्टिकोण
अंत तक पाठक को बांधे रखने वाली रचना
जितनी तारीफ़ की जाए कम

रचना दीक्षित 6/14/2010 1:26 PM  

अद्भुत, बेहतरीन, लाजवाब, विचारणीय पोस्ट सब कुछ जाना पहचाना है फिर भी इतना नयापन,इतने सारे सवाल!!!!!!!!

kumar zahid 6/14/2010 3:54 PM  

समझ सकी हूँ बस इतना ही


कि यह थी तेरी मजबूरी


मौन रहीं तो बस सबने


तुमको था देवी जाना


असल क्या था मन में तुम्हारे


यह नहीं किसी ने पहचाना ......




निश्चित रूप से सवालिया हालात खड़ा करती रही है गांधारी की खामोशी

vikram7 6/14/2010 9:29 PM  

बहुत अच्छी रचना

डॉ. जेन्नी शबनम 6/14/2010 10:49 PM  

sangeeta ji,
sahaj prashn ke dwara gudh uttar...

सच कहना गांधारी ---
ऐसा कर क्या तुमने
सबसे प्रतिकार लिया है ?
धोखा खा कर शायद यह
प्रतिक्रिया हुई ज़रूरी
समझ सकी हूँ बस इतना ही
कि यह थी तेरी मजबूरी
aapne jo sawal aur apni soch se vyakhya dee hai, sach kahu to aise sawal sabhi ke mann mein aate hain. gandhari ne aankho par patti baandh kisase nyaay kiya, na khud se, na samaj se, na santaan se. par patiwrata ki upaadhi paai. ye us yug ki baat thee, aaj bhi aisi gaandhari hai jo pratishodh mein gandhari banti hai, kyunki samaj ne nirupaay kar diya hai. ek nayee disha mein sochne ko prerit karti, bahut sundar prastuti, bahut badhai aapko.

ज्योति सिंह 6/15/2010 12:45 AM  

"यदि प्रेम की अनुभूतियों ने
तुमसे ऐसा कराया
तो क्षमा करना गांधारी
मेरा मन इस कृत्य के लिए
तुमसे सहमत नहीं हो पाया .
समझ सकी हूँ बस इतना ही
कि यह थी तेरी मजबूरी
मौन रहीं तो बस सबने
तुमको था देवी जाना
असल क्या था मन में तुम्हारे
यह नहीं किसी ने पहचाना ......bahut zabardast rachna rahi .

girish pankaj 6/15/2010 10:01 AM  

sochane par vivash karane bali kavitaa...

शोभना चौरे 6/15/2010 11:08 PM  

अरे मैंने इतनी देर से क्यों पढ़ी यह सुन्दर और
सशक्त कविता |गांधारी के माध्यम से नारी के आक्रोश
बहुत ही विनम्रता से प्रस्तुत किया है आपने

Anupama Tripathi 6/16/2010 2:37 AM  

बहुत सुन्दर --आपने मेरे मन के भाव कैसे जाने ?
कुछ है जो जोड़ रहा है आपसे मुझे ---
वाही एक मन की डोर .....!!
जिसका अनुभव मैं हमेशा करती हूँ
इतने सटीक सुंदर पोस्ट के लिए बधाई !!!!

अजित गुप्ता का कोना 6/16/2010 6:29 AM  

बहुत देर बाद आना हुआ आपके ब्‍लाग पर, अच्‍छी कविता के लिए बधाई। कहना तो बहुत कुछ चाह रही हूँ लेकिन पहले ही बहुत कुछ कह दिया गया है। पति की हीनभावना से बचने के लिए पत्नियां ऐसा ही करती हैं। कभी पढाई, कभी नौकरी और कभी अपनी आँखें भी।

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार 6/16/2010 8:20 AM  

आदरणीया संगीताजी
नमस्कार !
आपकी कई रचनाएं देखी - पढ़ी हैं , सोचता था विस्तार से बात करूंगा … लेकिन अगली बार । संक्षेप में …
विचारोत्तेजक कविता है , सहज प्रश्न और जिज्ञासाएं समाहित है …
और प्रत्युत्तर तथा समाधान भी , जो आपके हृदय से निकला ।
एक छंद साधिका की आपकी छवि अधिक पैठ जमाए है मेरे मन में ।
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं

Satish Saxena 6/16/2010 5:28 PM  

अपने मन का सजीव चित्रण किया है, बहुत खूब ! कुछ अलग सा ...

ZEAL 6/16/2010 9:55 PM  

समझ सकी हूँ बस इतना ही
कि यह थी तेरी मजबूरी ''...

From Satyug to Kailyug ignorant women lot are following the 'patni dharam' in this moronic fashion.

It is not any dharam. It is sheer ESCAPISM. Running away from the duties assigned to her . She could have guided her husband , that the decision of Mahabharata is wrong. She could have delivered her best to her sons by not choosing for being blind.

Anyways , she was a queen and had the luxury to be blindfolded. Nowadays women cannot do this ADAMBAR.

Unfortunately a bigger lot of women are still blind. Unaware of their rights and duties. They are just frog of well and following the herd mentality.

I really feel pity for the Gandharis of modern ERA.
In past there were only one Gandhari and one Dhritrashtra but unfortunately the number has exceeded to million now. They are giving birth to TRillion Duryodhana and Dushasana. All ready to eat away every bit of women-flesh.


Mothers like Gandhari are responsible for Cheer-Haran of modern Draupadis.

Sangeeta ji,....I congratulate you for this wonderful creation and deep insight.

This poem should be included in our Hindi Syllabus.

Regards,

KK Yadav 6/18/2010 11:16 AM  

अब तो गांधारी की भूमिका पर पुनर्विचार करना ही पड़ेगा...

देवेन्द्र पाण्डेय 6/19/2010 8:37 AM  

देर से पढ़ पाने का दुःख है
कविता बहुत अच्छी है ..

..असल क्या था मन में तुम्हारे
यह नहीं किसी ने पहचाना ....
..आपने इस विषय में एक नई दृष्टि दी है. सोचने पर विवश किया है.
अनूठी सोच ही इस कविता की बड़ी विशेषता है.
..बधाई.

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) 6/19/2010 2:37 PM  

मैम!! बहुत ही सुन्दर कविता.. गान्धारी के रोल का बाईसेक्शन करती हुयी..

रावेंद्रकुमार रवि 6/21/2010 5:44 PM  

गांधारी को प्रतीक मानकर रची गई एक अपूर्व रचना!
--
इसके लिए किया गया शोधपरक चिंतन-मनन स्तुत्य है!
--
आज की गांधारियों को इस विशेष रचना से
विशेष सबक लेने की आवश्यकता है!

Anonymous,  6/22/2010 12:30 AM  

मैं गीत पढ़ने और सुनने का बहुत ही शौक़ीन हूँ..
आप का यह गीत बहुत ही पसंद आया..
मैंने बहुत कोशिश की पर कभी इतना अच्छा गीत नहीं लिख पाया..
आप को बहुत-बहुत शुभकामनाएं...

Dr. Tripat Mehta 6/22/2010 3:40 PM  

wah wah! kya baat hai!

log on http://doctornaresh.blogspot.com/

i just hope u will like it!

Anonymous,  6/23/2010 3:31 PM  

क्या बात है! वाह!!

Dr.J.P.Tiwari 6/27/2010 9:38 AM  

नेट मैं तभी देख पाता हूँ जब घर आता हूँ, जहाँ रहता हूँ मात्र २-३ साइबर कैफे है और वहाँ छात्रो की भीड़ लगी रहती है. आपकी रचना आज पढ़ा एक बार नहीं कई बार पढ़ा...... गांधारी एक हमारे समाज की ऐसी नारी पात्र है जो सियासत में दखल देकर राजकीय निर्णय को बदल सकती थी. पर उबने ऐसा किया नहीं. यह उसकी विवशता थी या बदला लेने की कोई भावना? इसे कोई नहीं जनता. परन्तु आपने उन प्रत्येक प्रश्नों को ऐसे पूछा है और ऐसे जवाब प्रस्तुत किया है जो केवल कोई बहुत बड़ा चिन्तक ही कर सकता है. प्रश्न सामाजिक और मनोवैज्ञानिक महत्व के है. आपने अपने श्रम और समय का जो सदुपयोग किया है वह साहित्य और समाज दोनों के लिए धरोहर की वस्तु है. .... मेरी ढेर सारी बधाइयाँ स्वीकार करें. आपके अगले पोस्ट की बेसब्री से प्रतीक्षा रहेगी.

Aruna Kapoor 7/02/2010 2:35 PM  

'सच बताना गांधारी...' आपने इस कविता द्वारा गांधारी के मन की थाह लेने की कोशिश की है!... क्या यह नारी ता उम्र अंधत्व ओढने के लिए विवश या मजबूर थी... या फिर अंधे पति के दुःख में सहभागी बनी हुई निष्ठावान पतिव्रता थी?...इस प्रश्न का उत्तर एक सा मिलना मुश्किल है!...एक भाव पूर्ण रचना से साक्षात्कार हुआ है, धन्यवाद!

निर्झर'नीर 7/04/2010 1:34 PM  

नारी मन कौन समझ पाया है ?

...................

shayad koi nahi .

Unknown 7/08/2010 5:23 PM  

Aapki rachna padhne se pehle kuch dino purv hi isi vishay mai papa se kuch charcha hui,apko padhkar kuch yu laga jaisi mere mann ki baato aur parashnoo ko aapne apne shabdon mai dhalkar mere prashnon ko pooch lia hai, per abhi ye adhure hai, kuch aur bhi prashn hai mere mann mai,

Apki jaisi prabal abhivyakti to nahi de paungi per koshish rahegi ki prashno ko sahi roop aur swaroop de pau...

AApke aashish ki aakanshi!!!

प्रतिभा सक्सेना 7/20/2010 4:09 AM  

मुझे भी यही लगता है कि यह गांधारी का विद्रोह था उसका विवश आक्रोश, कि -नहीं देखूँगी किसी का मुख,न पति का न संतानों का. और कुछ देखने को बचा ही क्या है मेरे लिए !यंत्र-मात्र हूँ अब मैं -सबसे विरक्त ,उदासीन !

ताऊ रामपुरिया 12/19/2010 9:23 AM  

लगता है महारानी गांधारी आपको कहीं एकांत मे मिल गई जो आपने ये सवाल उनसे पूछ लिये. अगर महाराज धृतराष्ट्र वहां होते तो क्या आप ये सवाल उनसे पूछ पाती?

आपका ये सवाल मुझे भी बहुत व्यथित करता रहा है और सवाल का जवाब भी आपकी रचना में ही छिपा है कि लोक लाज के मारे महारानी कुछ बोल नही पाई और जैसे जबरन जय जय कार लगवा कर सती बनाने का जुनून पैदा किया जाता रहा था उसी तरह महारानी को भी कई पदवियों से नवाज कर आंखो पर पट्टी बंधवा दी गई होगी.

वो तो द्वापर था जबकि आज के युग मे भी कुछ समय पहले तक सती प्रथा और पति अनुसरण पूरे शबाब पर था और कुछ नालायक किस्म के प्राणी आज भी उसी मनोदशा के पाये जाते हैं.

आपकी रचना को आज ही देख पाया हुं. इस वर्ष की सर्वश्रेष्ठ रचनाएं जो मैने पढी हैं उनमे इसे शीर्ष स्थान देता हुं. बहुत शुभकामनाएं.

रामराम.

उषा किरण 5/27/2019 8:40 PM  

ये तो मेरे ही मन का प्रश्न है 😊🙏बहुत खूब लिखी है आपने👌👌

Kamini Sinha 4/18/2022 9:26 PM  

सादर नमस्कार ,

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (19-4-22) को क्यों लिखती हूँ ?' (चर्चा अंक 4405) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा

रेणु 4/19/2022 10:50 PM  

बहुत सुन्दर और भावपूर्ण प्रस्तुति प्रिय दीदी! गांधारी इतिहास का वो चर्चित पात्र है।जितना महत्वपूर्ण है उतना

रेणु 4/19/2022 10:56 PM  

बहुत सुन्दर और भावपूर्ण प्रस्तुति प्रिय दीदी! गांधारी इतिहास का वो चर्चित पात्र है।जितना महत्वपूर्ण है उतना ही विवादास्पद भी।आज के संदर्भ में गांधारी का चरित्र बिल्कुल भी प्रासंगिक नहीं।अपने मातृत्व के प्रमुख कर्तव्यों से विमुख होकर खुद नेत्रहीन पति सरीखा ही बन जाना मन की कुंठा ही तो है।एक अविस्मरनीय रचना जिसमें मेरी भावनाएँ भी समाहित हैं।जो मैं लिख पाने में सक्षम नहीं वो लिख दिया आपने।हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई स्वीकार करें 🙏🙏🌺🌺🌷🌷

Sudha Devrani 4/20/2022 10:42 PM  

पतिव्रता या प्रतिकारा ...सच गाँधारी के क।त्य को पतिव्रता और चुप्पी को देवी स्वरुपा मैं भी नहीं मान पायी आज तक ....मेरे मन के अनकहे भाव ऋचे हैं आपने.. ...आक्रोश और क्रोध की पराकाष्ठा जब व्यक्त न कर पाना भी मजबूरी हो....करे भी क्या ऐसे में नारी ? हाँ प्रेम तो ये बिल्कुल भी नहीं क्योंकि प्रेम में सहारा बनती जिम्मेदारियां उठाती...
सराहना से परे निशब्द करती लाजवाब कृति।

संगीता स्वरुप ( गीत ) 4/24/2022 3:13 PM  

प्रिय रेणु , प्रिय सुधाजी
आपकी प्रतिक्रिया ने बहुत संबल दिया है । आप दोनों की ही भावनाएं और विचार इस रचना में आपको मिले यह जान कर लग रहा कि लेखन सफल हुआ ।
आभार

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