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हिंदी दिवस का औचित्य

>> Sunday, January 10, 2010




आज हम स्वतंत्र भारत के नागरिक

स्वतंत्रता दिवस मना रहें हैं

ध्वज में चन्द पुष्प रख

ध्वज फहरा रहे हैं .

पर क्या हम सच में स्वतंत्र हैं

यदि यह जानते तो -

इस तरह ध्वज कभी ना फहराते .

इस तरह का अर्थ----

किसी मुख्य अतिथि का आना

डोरी खींचना , पुष्पों का गिरना

हमारी ताली बजाना

और राष्ट्रीय गीत गाना .

यही क्रियाएँ हैं हमारे देश में

ध्वज फहराने की .

पर क्या यही कर्तव्य है हमारा ?

आज हम स्वयं को

स्वतंत्र मानते हैं

पर कितने स्वतंत्र हैं

यह कभी जाना?

आज हम अँग्रेज़ों से आज़ाद

पर अँग्रेज़ी के गुलाम हैं


जो दो बोल अँग्रेज़ी बोलता है

उसी की समाज में शान है

हमारे भारत के स्वतंत्र नागरिक

प्रगतिशील हो गये हैं

राष्ट्रीय भाषा नही अपितु

अंतरराष्ट्रीय भाषा के ज्ञाता  बन गये हैं .

अँग्रेज़ी में गिट - पिट कर

स्वयं को उँचा मानते हैं

जो भारती के ज्ञाता  हैं

वो हीनता के गर्त में

गोते खाते हैं .

आज हम अँग्रेज़ों से स्वाधीन

पर अँग्रेज़ियत में जकड़े हुए हैं

भाषा के क्षेत्र में अभी तक

पराधीनता के कपड़े पहने हुए हैं.

इस स्वतंत्र भारत में

अपनी राष्ट्र भाषा का

कैसा गौरव बढ़ा रहे हैं ?

पूरे वर्ष में

हिन्दी की प्रगति के लिए

केवल एक सप्ताह मना रहे हैं.

जब तक एक सप्ताह को

बावन ( एक साल ) सप्ताह में नही बदल पाएँगे

तब तक हिन्दी दिवस का अर्थ

सही अर्थों में नही साँझ पाएँगे

जब भाषा में ही स्वतंत्र ना हो पाए

तो इस स्वतंत्रता का क्या अर्थ है

जब इस ध्वज का सम्मान ना कर पाए

तो ध्वज फहराने का क्या अर्थ है?

नही--अब वक़्त नही-

अब तो कुछ करना होगा

आज इस क्षण हमें

एक वचन लेना होगा .

क्यों कर अँग्रेज़ी आगे है

क्यों भारती पिछड़ रही है

क्यों भाषा का अपमान हुआ

क्यों हिन्दी सिसक रही है ?

कुछ तो कहना होगा

कुछ तो करना होगा

भाषा की स्वतंत्रता के लिए

एक वचन लेना ही होगा.

13 comments:

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) 1/10/2010 11:59 AM  

बहुत अच्छी लगी यह रचना....

आभार....

संगीता स्वरुप ( गीत ) 1/10/2010 12:05 PM  

शुक्रिया महफूज़ जी......
आज अदा जी का लेख पढ़ कर मुझे इस रचना को यहाँ पोस्ट करने की प्रेरणा मिली....

विजय तिवारी " किसलय " 1/10/2010 12:43 PM  

सच संगीता जी आप ने एक अहम् मुद्दे पर रचना पोस्ट कर सब से हिन्दी के लिए आह्वान किया है.
अंग्रेजी की शान में , हिन्दी का अपमान
क्यों हम सबकी आज भी नियति बनी श्रीमान.

- डॉ. विजय तिवारी "किसलय

अनामिका की सदायें ...... 1/10/2010 3:25 PM  

vachan to le lete hai sab
nibhata koi nahi
koshishe karo e deshwasiyo
jo kaamyaab ho paaye HINDI DIWAS.

Sangeeta ji aapki rachna bahut prernadayak hai..badhayi.

vandana gupta 1/10/2010 5:16 PM  

bilkul sahi kaha aapne aur shayad samjha bhi hindi ki garima ko ........ek bahut hi jhakjhorne wali rachna hai.........aise hi soye huyon ko jagati rahiye.

Apanatva 1/10/2010 6:54 PM  

झकझोर दिया आपकी इस रचना ने |
हिंदी से प्यार है ,इस पर मान भी है अपने हिन्दी साहित्य पर अभिमान भी है किन्तु और किसी भी भाषा के लिए भी अलगाव नही है | हर भाषा का अपना एक महत्व है | सभी को अपनी भाषा प्यारी होती है |
दक्षिण मे तेलुगु मलियाली ,कनड और तमिल बोली जाती है सभी भाषाए तो सीखी नहीं जा सकती ऐसे मे अंगरेजी बहुत काम आती है |ये मै अंगरेजी की पैरवी नहीं कर रही उसकी उपयोगिता बता रही हूँ |
आपकी रचना बहुत धुआदार रही | बधाई
देखिये टिप्पणी पूरी हिंदी मे लिखी है |

shikha varshney 1/10/2010 7:25 PM  

१६ आने सच्ची बात की है दी ! ये हिंदी दिवस मानाने से क्या होगा ? जबकि हिंदी को राष्ट्र भाषा का भी दर्ज़ा नहीं दिया गया है अब तक.बहुत दुःख की बात है.......सार्थक रचना

मनोज कुमार 1/10/2010 9:09 PM  

बहुत अच्छी रचना।
हमको यह भी है कहना
हम तो हिन्दी दिवस को
वार्षिक पर्व की तरह मनाते हैं
और साल भर के लिए
राजभाषा के क्रियान्वयन
की बात दुहराते हैं

संगीता स्वरुप ( गीत ) 1/10/2010 10:00 PM  

बहुत खूब मनोज जी,
काश सब ऐसा ही सोचें और करें....शुक्रिया

महावीर 1/11/2010 11:41 PM  

बहुत सुन्दर रचना है.
आपने बिलकुल ठीक कहा है:
क्यों कर अँग्रेज़ी आगे है
क्यों भारती पिछड़ रही है
क्यों भाषा का अपमान हुआ
क्यों हिन्दी सिसक रही है ?
कुछ तो कहना होगा
कुछ तो करना होगा
भाषा की स्वतंत्रता के लिए
एक वचन लेना ही होगा.
महावीर शर्मा

शोभना चौरे 1/12/2010 2:10 PM  

संगीताजी बहूत ही सुन्दर है यह कविता हम सब इस दर्द को झेल रहे है ,पर अब समय आ गया है कि हम इस दर्द को मिटने के सामूहिक प्रयास करे |अगर कोई सुझाव है तो हम उस दिशा में प्रयत्न तो कर ही सकते है |
धन्यवाद

रश्मि प्रभा... 1/13/2010 12:57 PM  

वाह बहुत सही......सच तो यही है की हम आज भी गुलाम हैं

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