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ठूंठ

>> Thursday, January 14, 2010



सैर करते हुए



एक उद्यान में


मिल गया था एक ठूंठ


लगा जैसे वो


मेरी भावनाओं को


समझ रहा है


अपनी कहानी सुना


मुझसे कुछ कह रहा है ..






कभी मुझ पर भी


बहार आती थी


मुझ पर भी


नव - पल्लव खिलते थे


मेरे फूलों की मादकता से


मधुकर मदहोश रहा करते थे


रंग - बिरंगी तितलियाँ


चारों ओर मंडराया करतीं थीं


मंद समीर की लहरें


मुझको सहलाया करतीं थीं


दिनकर अपने तेज से


मुझमें चमक लाता था


रजनीकर अपनी छाया से


शीतलता दे जाता था


कितने ही पंछी मुझ पर


नीड़ बनाया करते थे


मेरी घनी छाया में


क्लांत पथिक भी


सुस्ताया करते थे .






पर अब रह गया


मैं एक ठूंठ मात्र


किसी काम नहीं आता हूँ


कोई नहीं इर्द - गिर्द


स्वयं को असहाय सा पाता हूँ..


पर....


आज तेरा दर्द देख


अपना दर्द पी रहा हूँ


मैं भी तो बस तेरी सी ही


ज़िन्दगी जी रहा हूँ.



20 comments:

shikha varshney 1/14/2010 3:41 PM  

दी एकदम जानदार शानदार टाइप पोस्ट है एक एक लाइन दिल कि तह तक जाती है और कुछ छोड़ जाती है वहां....तालियाँ इस पोस्ट के लिए..

अजय कुमार 1/14/2010 4:09 PM  

जिंदगी का चित्रण , सुंदर तरीके से

Anonymous,  1/14/2010 4:26 PM  

आज तेरा दर्द देख
अपना दर्द पी रहा हूँ
तो बस तेरी सी ही
जिंदगी जी रहा हूँ.
बेहद ख़ूबसूरत और मन में समाते भाव.

rashmi ravija 1/14/2010 4:34 PM  

ठूंठ के दिल के दर्द को आपने खूब समझा...और उसे शब्दों का जामा पहना हम तक भी पहुंचा दिया..दर्द भरी दास्तान है..पर सच है,बिलकुल..

Arshad Ali 1/14/2010 4:38 PM  

Sangita Di

aapki rachna bahut achchhi lagi.
jiwan ke kai mod par aisa mahsus sabhi ko hota hay
magar patjhad ke baad bahar bhi aati hay

bhawnaaon ke chitran me aapka jawab nahi.


My blog-
www.zoomcomputers.blogspot.com (Arshad ke man se..)

अनामिका की सदायें ...... 1/14/2010 4:52 PM  

bahut khoobsurat rachna man ke anterdwand ko ukerti hui rachna.

रंजू भाटिया 1/14/2010 4:59 PM  

दर्द के एहसास को महसूस करवाती आपकी यह रचना बहुत पसंद आई ..शुक्रिया

अजित गुप्ता का कोना 1/14/2010 5:15 PM  

मानव कभी भी ठूंठ नहीं बन सकता, उसके दो हाथ आत्‍मीयता लिए होते हैं। कितना ही बुढ़ापा आ जाए, चाहे अपने दूर हो जाएं, फिर भी हम ठूंठ नहीं बन पाते क्‍योंकि हमारे पास लोगों को समेटने के लिए हाथ है। अपना बनाने के लिए जुबान है। और भी न जाने क्‍या-क्‍या हमारे पास है। आपकी कविता अच्‍छी है लेकिन जीवन में निराशा नहीं, हम हर पल आशा हैं।

vandana gupta 1/14/2010 5:22 PM  

bahut hi gahan abhivyakti.

Apanatva 1/14/2010 9:12 PM  

:(.............:(

dil ko choo jane walee rachana !

रश्मि प्रभा... 1/16/2010 8:21 PM  

एक गूढ़ संवेदनशील मन वृक्ष की व्यथा से जुड़ जाता है और वृक्ष मन से ........
निःशब्द प्रतिक्रया

दिगम्बर नासवा 1/17/2010 2:23 PM  

घर के बुजुर्ग भी कुछ ऐसा ही महसूस करते हैं ............ उनके दर्द को उकेरती अच्छी रचना ..........

sandhyagupta 1/17/2010 2:37 PM  

Man ko chu gayi rachna.shubkamnayen.

देवेन्द्र पाण्डेय 1/17/2010 5:48 PM  

अच्छी कविता के लिए बधाई स्वीकार करें...

वन्दना अवस्थी दुबे 1/17/2010 7:53 PM  

ठूंठ की त्रासदी कितनी शिद्दत से उकेरी है आपने.

Yashwant R. B. Mathur 6/30/2013 11:13 AM  

आपने लिखा....हमने पढ़ा
और लोग भी पढ़ें;
इसलिए कल 01/07/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
आप भी देख लीजिएगा एक नज़र ....
धन्यवाद!

Asha Lata Saxena 7/01/2013 7:09 AM  

ठूंठ की जिन्दगी और त्रासदी वही जानता है |सुन्दर भाव |
आशा

कालीपद "प्रसाद" 7/01/2013 10:53 AM  

जिंदगी का कढ़ुआ सच सजीव हो उठा है आपकी कविता में
latest post झुमझुम कर तू बरस जा बादल।।(बाल कविता )

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