पायदान सीढ़ी का
>> Saturday, September 18, 2010
मैं ,
एक सन्यासी
आसक्ति और विरक्ति
से दूर
मात्र एक दृष्टा
साधक की प्रतीक्षा में
आता है नया साधक
हर बार
अपना पांव रख
बढ़ जाता है
अपनी मंजिल की ओर
और बन जाता है
एक पुख्ता सर्जक
कदम दर कदम
आगे बढ़ते हुए
बुलंदियों को छूता हुआ ..
मैं सिर उठा कर वहाँ तक
देख नहीं सकता
क्यों कि नहीं है
मेरी औकात
इतना ऊँचा देखने की
और वो सर्जक भी
नहीं देख पाता
झुक कर नीचे
शायद उसे
खौफ होता हो
नीचे गिर जाने का
सफलता की सीढ़ी को
फलांघता हुआ वह
भूल जाता है कि
मैं उस सीढ़ी का
पहला पायदान हूँ ....
74 comments:
"मैं सर उठा कर वहाँ तक देख नहीं सकता" संगीता जी सीढी के लिए पुर्लिंग सम्बोधन। वैसे कविता और उसके भाव दोनों ही श्रेष्ठ है।
वह पायदान जिसका सब उपयोग तो करते हैं पर कोई याद नहीं रखता है।
प्रवीण जी से सहमत ... . आभार
सोपान का प्रतिदान, आपकी परिकल्पना हमे सोचने को विवश करती है की , सीढ़ी से नीचे देखने पर गिरने के भय से उबरने की जरुरत है.
sundar!
the importance of the first step....
and its utility is soon forgotten!
nice poem!!!
सफलता की सीढ़ी को फलांघता हुआ वह
भूल जाता है कि मैं उस सीढ़ी का
पहला पायदान हूँ ....
सच कहा आपने...अगर इंसान सीढ़ियों को याद रखे, तो खुद भी दूसरे ज़रूरतमंदों के लिए सीढ़ी तो बन ही सकता है.
एक गहन जीवन दर्शन को दर्शाती सशक्त रचना ! सीढ़ी की हर पायदान का अपना महत्त्व है ! यदि एक पायदान भी अपनी जगह से हट जाए तो संतुलन खोये बिना स्थिर गति से कोई ऊपर नहीं चढ़ सकता ! लेकिन यह मानव स्वभाव है सफलता प्राप्त करने के बाद वह भूल जाता है कि उसने कहाँ से शुरूवात की थी ! बहुत सार्थक प्रस्तुती ! बधाई एवं आभार !
सरस..........
बहुत उम्दा पोस्ट !
विचारपरक कविता !
बहुत सुन्दर रचना!
--
संगीता जी यही तो विडम्बना है कि हम पहली पायदान को विस्मृत कर देते हैं!
बहुत गहरी, अच्छी और सच्ची बात इस कविता में
कही गई है.
उम्दा भाव वाली विचारपरक कविता .
आपने अपनी कविताओं में अपने समय को लेकर हमेशा जरूरी सवाल खड़े किए हैं। विगत कुछेक दशकों में हमारा समय जितना बदला है उसका चिंता आपकी इस कविता में बहुत ही प्रमुख रूप में दिखाई देती है।
सुन्दर प्रस्तुति!
हमेशा की तरह संगीता जी ने कम शब्दों में बहुत कुछ कह दिया है।
अजित जी सीढ़ी का पायदान तो पुर्लिंग ही है।
संगीता दी,
नींव के पत्थर अऊर पहली पायदान का महत्व आज समझ में आया...
सलिल
वाह संगीता जी क्या बात ले कर आई हैं आप. सच ही है बहुत गहरी बात!!!!!!. हमें ऊपर बढ़ने में या हमारे बुरे समय में जो हमें उबारते हैं अच्छा समय आते ही हम उन्हें भूल ही जाते हैं
भूल जाता है कि
मैं उस सीढ़ी का
पहला पायदान हूँ ....
यही तो रोना है...हमेशा ऊंचाई पर पहुँच कर लोग भूल जाते हैं..की शुरुआत कहाँ से की थी....गहरे भाव लिए सुन्दर कविता.
क्या सिर्फ ये शब्द काफी होगा ??? बेहतरीन!
सफलता की सीढ़ी को
फलांघता हुआ वह
भूल जाता है कि
मैं उस सीढ़ी का
पहला पायदान हूँ ..
अंतिम पंक्तियाँ तो दिल को छू गयीं.... बहुत अच्छी लगी यह रचना...
सचमुच मंजिल पर पहुंचकर हर कोई सीढ़ी को भूल जाता है.....
आज दौर में बड़ी प्रासंगिक लगी यह कविता.....
सफलता की सीढ़ी को
फलांघता हुआ वह
भूल जाता है कि
मैं उस सीढ़ी का
पहला पायदान हूँ ...
-कितना सच कहा...उम्दा रचना.
इस कडवी सछाये के दर्शन भी होते ही रहते हैं पायदानों को ...
मुड कर नहीं देखे तब तक तो कोई बात नहीं , ठोकर ना मार जाए कहीं ...
अच्छी कविता !
भूल जाता है कि
मैं उस सीढ़ी का
पहला पायदान हूँ ...
गहरे भाव लिए सुन्दर कविता.
बहुत अच्छी लगी
मानव जीवन की एक आम त्रासदी को अच्छा उभारा है आपने !
सफलता की सीढ़ी को
फलांघता हुआ वह
भूल जाता है कि
मैं उस सीढ़ी का
पहला पायदान हूँ
बहुत सुन्दर !
shayd bahut kam hote hain , jo pehla kadam yad rakhte hain
kamal ki kavita
मैं उस सीढ़ी का
पहला पायदान हूँ ....
sach me...
बहुत सुन्दर ...
आपने भुला अहा पसायदान याद दिला दिया !
आपकी कविता पढ़कर रामवृक्ष बेनीपुरी जी की रचना नीव का पत्थर याद आ गई
बहुत ही शानदार
बिलकुल सत्य-
भावपूर्ण रचना .
और वो सर्जक भी
नहीं देख पाता
झुक कर नीचे
शायद उसे
खौफ होता हो
नीचे गिर जाने का
गहरा चिन्तन सुन्दर सार्थक रचना। बधाई आपको।
क्या बात कही है आपने....क्या चिंतन है....कितना सही......वाह !!!!
bahut achi rachana ....very philosophical......great !
सुन्दर.. पहला सही पायदान तो हूँ..
achhi rachna....
seedhi ko bhi shaamil kar liya aapne to.....
bahut behtareen...
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मेरे ब्लॉग पर इस मौसम में भी पतझड़ ..
जरूर आएँ...
kisi mane hue jauhri kee tarah aapne shabdon ko tarasha hai , her soch surya ka tej bana hai
सफलता की सीढ़ी का हर पायदान महत्वपूर्ण होता है...और हमेशा ही व्यक्ति अपना पहला पायदान ही भूल जाता है...फिर उस तरफ देखता भी नहीं है..जबकि जरूरत उसे याद रखने की है..
बहुत सुंदर रचना
सच है उस पायदान को कुछ ही लोग याद रख पाते हैं ... बाकी सब इस्तेमाल कर आगे बॅड जाते हैं ....
यही तो विडंबना है हर कोई इसे ही भूल जाता है और कभी ख्वाब मे भी याद नही करता…………बेहद प्रशंसनीय रचना।
सीढ़ी के पहले पायदान को सभी नहीं भूलते, वही भूलते हैं जो अहंकारी होते हैं, उन्हीं को सचेत करती भावपूर्ण रचना।
बेहतर रचना...
यदि मैं आसक्ति और विरक्ति से दूर हूं...
तो क्या फ़र्क पड़ता है...
मैं कौनसा पायदान हूं...
और कौन सफ़लता की सीढि़यां लांघ रहा है...
फलांघता हुआ वह
भूल जाता है कि
मैं उस सीढ़ी का
पहला पायदान हूँ ..
यही इंसानी फितरत है ...
मना की किसी ना किसी को सीढ़ी का पहला पायदान बनाना ही पड़ता है...लेकिन इंसान को ऊँचाइयों को पा लेने के गर्व में अपने धरातल को नहीं भूलना चाहिए.
इस पीड़ा-मई भाव को बहुत सुंदर शब्दों में पिरोया है आपने जो सीधा दिल पर असर छोड़ता है.
बधाई इस सुंदर रचना के लिए.
...मैं उस सीढ़ी का
पहला पायदान हूँ ....
..बहुत खूब। पहले पायदान को लोग भूल जाते हैं लेकिन यह भी सच है कि निःस्वार्थ सेवा में रत सन्यासी इसका गम भी नहीं करता।
फलांघता हुआ वह
भूल जाता है कि
मैं उस सीढ़ी का
पहला पायदान हूँ ..
अच्छी पंक्तिया ........
इसे भी पढ़कर कुछ कहे :-
आपने भी कभी तो जीवन में बनाये होंगे नियम ??
आपकी टिपण्णी और उत्साह वर्धन के लिए बहुत बहुत शुक्रिया!
बहुत ख़ूबसूरत और लाजवाब रचना लिखा है आपने! बधाई!
बेहतरीन...बहुत सुन्दर तरीके से पहले पायदान की महत्ता बताई है जिसे लोग अक्सर बिसरा देते है| बहुत सुन्दर प्रतीक के साथ जीवन सत्य कह दिया आपने|ब्रह्माण्ड
होता तो यही है ..पर क्यों होता है..२ दिन मेरा नेट खराब हुआ तो लगता है बहुत कुछ हो गया :)
अच्छी रचना मैडम
kya thought hai dadi...wow, kahan se laate ho. mera to dimaag sunnn ho jaata hai sab padhti hoon to..
मैंने इस पोस्ट पर पहली टिप्पणी की थी। मुझे संगीताजी ने बताया कि अभी एक पोस्ट लगायी है, आप देखें। मैंने पोस्ट पढ़ी और लगायी गयी फोटो भी। शीर्षक नहीं देखा जिसमं लिखा था पायदान सीढी का। बस वही गल्ती हो गयी और अपना पूर्व कमेण्ट लिख दिया। संगीता जी क्षमा चाहती हूँ।
अजीत जी ,
आप मुझे शर्मिंदा कर रही हैं ...इसमें कोई क्षमा वाली बात नहीं है ...आपसे उसी वक्त स्पष्टीकरण हो गया था :):)
आप इस पोस्ट पर फिर आयीं इसके लिए आभार
@@ सभी पढने वालों का शुक्रिया ..
बहुत ही सुन्दर संगीता जी. आभार.
बहुत ही सुन्दर शब्द रचना ।
फलांघता हुआ वह
भूल जाता है कि
मैं उस सीढ़ी का
पहला पायदान हूँ ....
पहले पायदान को तो लोग अक्सर भूल जाते हैं पर बिना उसके ऊँचाई तो सम्भव ही नहीं है
सुन्दर भाव की रचना
सच के करीब ले जाती एक भावपूर्ण रचना...कुछ दिन बाद आना हुआ पर हमेशा की तरह बेहतरीन पोस्ट आज भी...बधाई संगीत जी
सफलता की सीढ़ी को
फलांघता हुआ वह
भूल जाता है कि
मैं उस सीढ़ी का
पहला पायदान हूँ ....
....bhapurn sundar vimb chitran
सफलता की सीढ़ी को
फलांघता हुआ वह
भूल जाता है कि
मैं उस सीढ़ी का
पहला पायदान हूँ ....
....bhapurn sundar vimb chitran
बहुत सुन्दर कविता..पायदान की महिमा अपरम्पार.
पहले पायदान का दर्द
गहन अभिव्यक्त हुआ दीदी।
aap apni maulikta ke saath pura nyay karti hai.. :)
aap apni maulikta ke saath pura nyay karti hai.. :)
बधाई!!!
आजकल आप ऐसे तमाम प्रतीकों को इंगित करके लिख रही हैं, जिनसे हम बड़ी नजदीकी से जुड़े हुए हैं पर उन पर ध्यान नहीं देते. पूर्व की भांति ही एक सशक्त रचना..बधाई.
संगीता जी,
वर्ड वेरिफिकेशन धोखे में लगा रह गया. आपने याद दिलाया तो अभी सबसे पहले उसी को हटाया है. आपका आभार, ग़ज़ल पढने के लिए.
बहुत अच्छी कविता।
सुन्दर भावों की बेहतरीन अभ्व्यक्ति----।
bahut gahre bhav liye sunder abhivykti.........
aabhar.
गहन चिंतन से उपजी अभिव्यक्ति!
सुन्दर भाव...
पहला पायदान उपयोगी तो है....पर कौन याद रखता है ..
आपको शुभकामनाएं...
wah. behad sunder.
bahut achhi kavita Mumma...bade din baad ye khayal aaya...paaydaan wala..hostel mein thi tab ye bahut sochte the...ab frds nahin rahe to ye cheez khatm ho gayi..:):)
Khair..
achhi nazm k liye badhayi Mumma.
सीढियों की यही नियति है |
कभी मैंने भी लिखी थी ये पंक्तिया
सीढिया कभी बढ़ती नही ,वो स्थिर रहती है |
उन्हें तक़लीफ होती है तो वे दर्द बाँट नही सकती |
दर्द बाँटने जाती है तो और दर्द मिलता है |
सीढियों का काम सिर्फ़ चढाना होता है|
मंजिल पर पहुचाने का कम वो बखूबी करती है |
वो तो देख भी नही पाती i की उनका राही कहा पहुंचा है
सिर्फ़ उतरने की पदचाप से राही का अंतर्मन पहचानती है|
उन्हें सुस्ताने को जगह देती है |
फिर से नये राही को पहचानती है और अटल रहती है |
,
sangeeta ji !! ye rachnaa mujhey behad pasand aayi aur ye haqiqat bhi hai ki jo haath sahara de kar uthatey hai aadmi jab aage bad jata hai to vo mud kar vapas nahi dekhta us sahara dene valey ko....hubahoo aisaa hee maine bachpan ki aik rachnaaa me likha thaa......aaj mujhey yaad aa gayi vo baatey.. Shubhkaamnaye..
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