वो चिंदिया ..वो खटोला
>> Friday, September 3, 2010
उम्र के कदम
जब होते हैं
अवसान की ओर
तो न जाने क्यों
स्मृतियाँ पहुँच जाती हैं
बचपन की गलियों में ..
माँ - पापा का प्यार
ताकीदें , डांट
मनाना ,फुसलाना
सभी तो याद आता है .
अब नहीं हैं वो
हिदायतें देने के लिए
तो
सारी दी हुई हिदायतें
याद आती हैं ....
भाई के साथ खेलना
पढ़ना , लड़ना- झगडना
और डांट के डर से
झूठ बोल
एक दूसरे को बचाना
दिल के कोने में
पैबस्त है अभी भी ..
याद आती है
माँ के हाथ की
वो रोटी जो
हमेशा बना देतीं थी
थोड़ा स आटा बचने पर .
और कहतीं थीं कि
यह चिंदिया कौन खायेगा ?
बस लग जाती थी
भाई बहन में होड़.
न जाने उस चिंदिया में
अलग सा स्वाद
क्यों आता था ..
गर्मी के दिनों में
रात को जब
सबके लिए आँगन में
बिछती थीं चारपाईयां
तो मेरे लिए
बिछता था खटोला ..
मैं तब छोटी थी न सबसे .
भाई के चिढाने पर
जिद कर मैं सो जाती थी
माँ की चारपाई पर .
लेकिन आज मुझे
वो खटोला
बहुत याद आता है ...
आज ना चारपाई है
ना ही खटोला
न चिंदिया है न आँगन
छोटे - छोटे घरों में
अलग - अलग कमरे में
जैसे बंध गए हैं
सबके मन ........
69 comments:
तन्हाइयों में जब यादों का किवाड़ सरक जाता है,
थोडा थोडा, थोडा, करके बहुत कुछ याद आता है ...
सुन्दर अभिव्यक्ति ...
सच कितना सुहाना वक्त होता था वो……………भावो को बहुत सुन्दरता से बाँधा है……………शानदार अभिव्यक्ति।
खुल गया है आज फ़िर यादों का आगार
खाट-खटोले गुदड़ी का घर में था अंबार
घर में था अंबार सर्दी-गर्मी में है सुहाती
टाबर सोता खटोले पे माँ है लुगड़ी उढाती
कह"शिल्पकार"कविराय नयी बहुरिया आई
गद्दे तकिए पलंग और जयपुरी रजाई लाई
बहुत बढिया संगीता जी,
बस युं ही कुंडली जैसा छंद बन गया।
अच्छी पोस्ट के लिए आभार
आह वो चिन्दिया वो खटोला ....शीर्षक में ही जैसे यादें और प्यार घुला हुआ मिला ..पूरी कविता दिल की तह तक जाती है और बहुत सी यादों से भिगो जाती है ..
आपकी लेखनी को सलाम दी !
वो चिंदिया,
वो खटोला
और वो माँ की चारपाई.........
घर में सबसे छोटा होना
---------इन सब मधुर स्मृतियों के साथ जीना और जीते रहना यही तो नियति है मानव की...........
बहुत बहुत उम्दा कविता की आपने........बधाई !
रिश्तों में बंधे रहना, रिश्तों को संजोना या फिर अपने हिसाब से रिश्तों को बुनना-गुनना इन्हीं बिन्दुओं पर यह कविता रची गई है। यह मन के अहसास को अभिव्यक्त करती है। इसमें जीवन का स्वाद, प्रेम, ममता के साथ उदासी और मौन के बीच मानवता की पैरवी करती मन के आवेग की कहानी है। संवेदना के कई तस्तरों का संस्पर्श करती यह कविता जीवन के साथ चलते चलते मन की छटपटाहट को पूरे आवेश के साथ व्यक्त करती है।
उम्र की ढलान पर मन न जाने क्यों बचपने की ओर लौट पड़ता है .... इसीलिए कहा गया है बच्चे बूढ़े एक समान ....
bahut bahut yaad ..........jane kahan mann chala gaya
bahut pyari rachna hai mumma.....infact in cheeezon se door hote hi ye cheezen yaad aane lagti hain ...:)
आज ना चारपाई है
ना ही खटोला
न चिंदिया है न आँगन
छोटे - छोटे घरों में
अलग - अलग कमरे में
जैसे बंध गए हैं
सबके मन ........
...अगर कुछ बाकी है तो बस यादें!....अति सुंदर!
बातें तो हमेशा याद रहती है मग़र अकेले में कुछ ज्यादा ही याद आती है सुंदर रचना बधाई
आपने यादों के झरोखे खोल दिए ...
_____________________
एक ब्लॉग में अच्छी पोस्ट का मतलब क्या होना चाहिए ?
यादों के किन किन गलियारों में घुमा लाईं आप..बहुत ही प्यारी सी कविता
उम्र तो ढलेगी ही , चिंदिया भी बन रही होगी , खटोले शायद अब ना दिखे , लेकिन आपकी पंक्तिया केवल ढलती उम्र को नहीं नव यौवन को भी बचपन की याद के खुशनुमा गलियारों में ले जाती है . हम तो घूम आये . बेहतरीन अभिव्यक्ति.
वो बचपन की बातें
वो लड़ना झगडना..
वो चिन्दिया, वो खटोला..
कितनी हैं बाते..
मीठी यादो सी बसी हैं
दिल के कमरे में बसे हैं ज्यु के त्यु..
फर्क है तो बस इतना की
हम उन्हें कमरे से बाहर आने नहीं देते..
बहुत अच्छी रचना...मन को छू गयी भीतर तक.
मन के कोने में पड़ा बचपन अचानक याद आया!
गुम हुआ युग क्यों पटल पर आ समाया!!
--
बहुत सुन्दर रचना लिखी है आपने!
--
मेरे मन पर भी बचपन की स्मृतियाँ
उभर कर आने लगी हैं!
didi....
mujhe bhi yaad hai wo chindiya aur khatola...... aapke baad uspe main soti thi na :) aur mere saath chindiya ke liye ladne wala koi nahin hota tha.. ekadhikaar th mera us chindiya par :)
वो रोटी जो
हमेशा बना देतीं थी
थोड़ा स आटा बचने पर .
और कहतीं थीं कि
यह चिंदिया कौन खायेगा ?
बस लग जाती थी
भाई बहन में होड़.
न जाने उस चिंदिया में
अलग सा स्वाद
क्यों आता था ..
ye panktiyan mujhe mere BACHPAN MEN le gai.
bahut hi sunder Kavita hai.
padhkar bahut khushi hui.
कितनी ही पुरानी यादें मन को झकझोर गयीं
अतीत के गलियारों में ले जाती हुई सुन्दर कविता .ये अनुभव हम सब के मन में बसे हैं जो आपने जगा दिए !वाह !
बचपन ही नहीं, संयुक्त परिवारों की लुप्त होती व्यवस्था को भी बहुत प्रभावशाली शब्दों में प्रस्तुत किया है आपने... बधाई.
bahut sunder kavita...........
आज ना चारपाई है
ना ही खटोला
न चिंदिया है न आँगन
छोटे - छोटे घरों में
अलग - अलग कमरे में
जैसे बंध गए हैं
सबके मन ........
बचपन की सुहानी स्मृतियों की गलियों में घुमाते हुए ...आज के परिवेश से तुलनात्मक बहुत ही भड़िया द्रश्य दिखाया आपने इस कविता के मध्यम से .....पहली पंक्ति से अंत तक आपके भावों में बहते रहे ....आभार
आज ना चारपाई है
ना ही खटोला
न चिंदिया है न आँगन
छोटे - छोटे घरों में
अलग - अलग कमरे में
जैसे बंध गए हैं
सबके मन
-सच कहा आपने. सुन्दर अभिव्यक्ति!
स्मृतियों को टटोलती ,खटोले में झूलती सुन्दर अभिव्यक्ति !
अतीत के गलियारों में ले जाती हुई सुन्दर कविता,
बेहतरीन अभिव्यक्ति........
पूरे बचपन में घूम आयीं।
आपकी रचना मन को अंदर तक भिगो गयी ! हम सबके अनुभव, स्मर्तियाँ और उनको जीने के अनुभव एक जैसे कैसे हो जाते हैं यह सोच कर हैरान हो जाती हूँ ! टिप्पणियों को पढ़ कर लगता है जैसे एक युग विशेष में सबके घर परिवार में एक सी परिपाटी, एक से तौर तरीके यहाँ तक कि एक जैसी माँएं और एक जैसे भाई बहन हुआ करते हैं ! बहुत अच्छी लगी आपकी यह रचना और मुझे भी बचपन की ढेर सारी सुखद स्मृतियों के संसार में झाँक लेने के लिए बाध्य कर गयी ! आपका बहुत बहुत आभार !
संगीता दी,
हर आदमी के अंदर, उमर का कोनो पड़ाव पर, एगो बच्चा हमेसा छिपा रहता है... आप उसि बच्चा का मन का बात बयान की हैं अऊर पता नहींकेतना लोग को अपने अंदर का ऊ बच्चा से भेंट हो गया होगा... हमको तो हो गया मुलाकात!! धन्यवाद आपका, हमको हमसे मिला देने के लिए!!
सलिल
दी नमस्ते
आप ने तो हर चीज को आँखों के सामने घुमा दिया फिर .....
माँ के हाथ की
वो रोटी जो
हमेशा बना देतीं थी
थोड़ा स आटा बचने पर .
और कहतीं थीं कि
यह चिंदिया कौन खायेगा.....
और दी वो चिंदिया मैं ही खाता था सच्ची में
ये दौलत भी ले लो ये शोहरत भी ले लो.......
मन उम्र के बोझे से गिर जाता भरभरा कर
बचपन तुम्हारी यादों का संबल नहीं होता अगर
सुन्दर ....
मानवीय संवेदना की आंध में सिंधी हुई ये कविता हमें मानवीय रिश्ते की गर्माहट प्रदान करती है ।
हिन्दी, भाषा के रूप में एक सामाजिक संस्था है, संस्कृति के रूप में सामाजिक प्रतीक और साहित्य के रूप में एक जातीय परंपरा है।
स्वच्छंदतावाद और काव्य प्रयोजन , राजभाषा हिन्दी पर, पधारें
सभी पाठकों का आभार ...
@@ ललित जी ,
आपकी कुंडली छंद में लिखी रचना लाजवाब रही ...
शुक्रिया
@@ मुदिता ,
जब यह सब लिख रही थी तो यह सब भी याद आ रहा था कि बाद में वो खटोला तुम्हारा हो गया था और चिंदिया पर तो फिर तुम्हारा ही हक था ...:):)
प्यार और शुभकामनाओं के साथ
दीदी
आज ना चारपाई है
ना ही खटोला
न चिंदिया है न आँगन
छोटे - छोटे घरों में
अलग - अलग कमरे में
जैसे बंध गए हैं
सबके मन ........
आपकी रचना पढकर मन अतीत की गहराईयों में पहुंच गया, बहुत शुभकामनाएं.
रामराम.
bahut sundar .
sach! sangeetaji आपने कहाँ pahuncha दिया
बहुत अच्छी लगी आपकी अभिव्यक्ति, जिसमे हम सबने अपने आपको पाया |
शब्दों का कैसा फर्क है हमारे यहाँ उसे" खाटली "कहते है |
आजकल मॉल में बच्चो के लिए ऐसे ही खटोलो को नया रूप देकर तैयार कर बेचा जा रहा है \
आदरणीया.....
बचपन की यादें तो हमेशा ही साथ रहती हैं......उम्र बढ़ने के साथ ये यादें और भी ताज़ा होती जाती हैं....अपने ठीक ही कहा है.....
मैं तब छोटी थी न सबसे .
भाई के चिढाने पर
जिद कर मैं सो जाती थी
माँ की चारपाई पर .
लेकिन आज मुझे
वो खटोला
बहुत याद आता है ...
"स्मृतियों के पुष्प सुनहरे,
जीवन पथ पर ऐसे ठहरे,
तन मन सुरभित करते जाएँ,
खुशियों की खुश्बू बिखराएँ."
मधुर पोस्ट के लिए बधाई और आभार.
आज ना चारपाई है
ना ही खटोला
न चिंदिया है न आँगन
छोटे - छोटे घरों में
अलग - अलग कमरे में
जैसे बंध गए हैं
सबके मन ........
---------------सच कहा है आपने अब तो ये सभी चीजें----ये अनुभूतियां आज के बच्चों में कहां से आयेंगी--बचपन की याद दिलाती खूबसूरत रचना।
.
.
.
आदरणीय संगीता स्वरूप जी,
एक बार फिर बचपन में ले गईं आप...आँखें नम हो आई...
आभार!
...
न जाने उस चिंदिया में
अलग सा स्वाद
क्यों आता था ..
आह्म कितने बेह्तरीन ढंग से बेसुमार यादें पिरो डाली आपने !
शिक्षा का दीप जलाएं-ज्ञान प्रकाश फ़ैलाएं
शिक्षक दिवस की बधाई
रचना अपने आप में परवारिक मधुरता लिए हुए है . सराहनीय रचना के लिए. बधाई ! !
क्या संगीता दी कहाँ पहुंचा दिया आपने. मन भरी और ऑंखें नाम कर दीं
लेकिन आज मुझे
वो खटोला
बहुत याद आता है ...
आज ना चारपाई है
ना ही खटोला
न चिंदिया है न आँगन
छोटे - छोटे घरों में
bahut badhiya di, aapne bakai bachpan me lauta diya
अलग - अलग कमरे में
बहुत सुन्दर ....अपने बचपन के दिन याद आ गए ....मेरे ख्याल से हम सभी के बचपन के दिन ऐसे ही बीते होंगे
आज के महानगरीय वातावरण से दूर यादों की गली ले जाती सुंदर रचना है ....
like this
ांअपने तो पूरे बचपन की तस्वीर खोल कर रख दी है अपना बचपन भी याद आ गया। बहुत अच्छी लगी रचना बधाई।
बहुत सुन्दर और शानदार प्रस्तुती!
शिक्षक दिवस की हार्दिक बधाइयाँ एवं शुभकामनायें!
बहुत सुन्दर संगीता जी ऎसा लगता है जैसे मेरी भावनाओं को आपने शब्दों का चोला पहना दिया है। अक्सर तनहाई में यही सब होता है,जो याद बन कर दिल में उमड़-घुमड़ आता-जाता है। बहुत सुन्दर कविता। धन्यवाद।
आज ना चारपाई है
ना ही खटोला
न चिंदिया है न आँगन
छोटे - छोटे घरों में
अलग - अलग कमरे में
जैसे बंध गए हैं
सबके मन .....।
बहुत ही सुन्दर चित्रण, आपके साथ-साथ सभी पढ़ने वालो को बचपन की कोई भूली बिसरी याद साथ हो ली .....निरंतर एवं सुन्दर सृजन के लिये शुभकामनायें ।
arrr!!!
ye to rah hi gaya tha paadhna :)
aur itna kasa hua khatola kahan mila aapko??
bahut pyari rachna.. :)
सुन्दर अभिव्यक्ति ...बहुत अच्छी लगी रचना धन्यवाद।
बहुत अच्छी रचना।
तन्हाइयों में जब यादों का किवाड़ सरक जाता है,
थोडा थोडा, थोडा, करके बहुत कुछ याद आता है bahut hi sunar abhivyakti
sangeeta ji....beautiful :)..
रचना बहुत कुछ याद दिलाती है ।
बरगद जैसी छाया
सिर पर
पीपल सा आशीष ।
अब कहाँ ?
प्रशंसनीय . भावपूर्ण .
khyal ek aisa madhym hai jiske share hum sab hr ehsas ko ji skte hai , mhsoos kr skte hai bs aankhe band kre our jo kuchh bhi chhoot gya hai usko dil se yad kre . didi mai to aisa hi krti hu isse jyada bs me jo nhi .
aapki bhavnaye dil ko chhu gai .
आप अपनी पोस्ट्स पर ’लाईक’ का बटन लगा दीजिये.. इतने कमेन्ट्स के बाद कुछ कहा नहीं जाता.. कभी इंसान कुछ कह भी तो नहीं पाता।
भावस्पर्शी कविता!
बहुत ही भावनात्मक अभिव्यक्ति !!
आपकी कविता पढ़ कर पहुच गया जाने कहाँ कहाँ बहन,भाई और दोस्त सभी तो लोट आये वक्त कि बंदिशे तोड़ कर जवान हो गयी यादों कि महफ़िल.आपने कविता में केद कर लिया यादों का सफर वरना ,हर आदमी मुसाफिर है ,रोज बिछड़े खोये याद के रास्तों से गुजरता है.बहुत अच्छी लगी आपकी कविता-सीधा सच्चा लेखा बचपनकी यादों का दिल को छु गया
सच........
क्या तारीफ़ करूँ.......स्पीचलेस !!!
प्रशंसनीय . भावपूर्ण
सुन्दर सृजन के लिये शुभकामनायें
उम्र के कदम
जब होते हैं
अवसान की ओर
तो न जाने क्यों
स्मृतियाँ पहुँच जाती हैं
बचपन की गलियों में ..
जब पीछे छूट जाता है तो बहुत याद आता है... बचपन कुछ ऐसा ही होता है... और चिंदिया और खटोला तो शायद हर किसी के बचपन का अटूट हिस्सा है. ऐसा लगता है जैसे आपने हर दिल की बात कह दी इस रचना के माध्यम से.. सच बहुत गहरे तक छू गयी मन एक एक पंक्ति
this one could easily make me cry.....isliye maine jaldi jaldi padh li
beautiful..just like u dadi
mmuuaahhh
आभार ...
एक चारपाई आपके ब्लॉग से हमने ली है
धन्यवाद ..
आओं देखें आज क्यों और कैसे ?विज्ञान मे क्या हलचल है
आओं देखें आज विज्ञान गतिविधियाँ मे क्या हलचल है
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