मेघों ने अंबर ढक डाला
>> Tuesday, September 28, 2010
मेघों ने अम्बर ढक डाला
फूटा नभ से जल का छाला
रिसते रिसते मची तबाही
नदियाँ बहुत उफन कर आयीं
गुलशन तहस-नहस कर डाला
मेघों ने अम्बर ढक डाला
जब काटे थे पेड़ अंधाधुंध
बुद्धि हुई थी तब जैसे कुंद
तब तो स्वार्थ स्वयं का साधा
लाभ कमाया ज्यादा-ज्यादा
कुदरत ने अब फल दे डाला
मेघों ने अम्बर ढक डाला
अतिवृष्टि से घबराये सब
आखिर बुद्धू कहलाए अब
हरी-भरी उर्वरा छाँट दी
कंकरीट से धरा पाट दी
धरती को बंजर कर डाला
मेघों ने अम्बर ढक डाला .
इस रचना को सुधारने में डा० रूपचन्द्र शास्त्री जी का सहयोग मिला ..
शुक्रिया
72 comments:
सुंदर गीत बधाई
Bahut hee sundar rachana....ab bhi kahan ruka hai ye vinash? Concrete ke jungle pe jungle khade hue ja rahe hain!
बहुत सुंदर भाव सुंदर गीत बधाई
वाह दी !आज तो कविता के साथ आपने उसका सचित्र वर्णन भी कर डाला .
सार्थक सटीक बढ़िया रचना.
प्रकृति के साथ खिलवाड़ का खामियाजा तो भुगतना ही है मानवता को . लेकिन अपने लेखनी से इसे सजीव बना दिया है .
Nice poem wid beautiful pics...
दीदी,
बहुत ही सार्थक चित्र संयोजन,और समसमायिक काव्य। पर्यावरण दर्द की टीस सी उठी। और विचार मेघों ने मन अम्बर ढक डाला।
क्या बात है ? गीत तो सुन्दर रचा ही है और साथ में चित्रों को जो संजोया है उससे उसकी सार्थकता और बढ़ गयी. बहुत सुन्दर प्रस्तुति !
शब्दों से सजा बड़ा ही सुन्दर गीत।
सुंदर प्रवाहमय रचना।
प्यारा सा ज्ञान विज्ञान गीत
चित्रों के साथ जो गीत के रूप में सच्चाई बयां की तो बहुत प्रभावशाली और सुंदर रचना बन गयी.
बधाई.
जब काटे थे पेड़ अंधाधुंध
बुद्धि हुई थी तब जैसे कुंद
यथार्थ बयाँ करती, सुन्दर रचना
सुंदर गीत.... आपकी यह रचना कुछ अलग सी पर बड़ी प्यारी लगी.......
बहुत ही प्यारी रचना और प्रत्येक छंद के साथ सजीव सार्थक चित्रों ने इसे अद्वितीय बना दिया है ! प्रकृति के साथ जब जब छेड़छाड़ड़ की जायेगी उसका दुष्परिणाम भुगतना ही होगा ! सुन्दर रचना के लिये बधाई !
जब काटे थे पेड़ अंधाधुंध
बुद्धि हुई थी तब जैसे कुंद
सुन्दर प्रस्तुति !... बधाई !
बहुत खोजने के बाद एकाध निर्दोष छंदबद्ध रचना पढ़ने को मिलती है। यह गीत छंद संयोजन, शब्द संचयन, भाव प्रकटन तथा काव्यात्मक सौंदर्य की दृष्टि से अति उत्तम है ।...बधाई।
ab kya karein , hamari bhi to majboori hai....
बढ़िया गीत
पर्यावरण की रक्षा का संदेश देती सुंदर रचना के लिए बधाई।
sngitaa bhn aapke ambr ki taaqt rchnaa men daale gye fotu se bhut bdh gyi he or isse aapke alfaazon ko rchnaa men zindgi mili he jivnt rchna he mubark ho. akhtar khan akela kota rajsthaan .
बहुत सुंदर गीत
bahut sunder geet ........prukruti aise hee apanee narajee dikhatee hai.........
Aabhar...........
धरती का दुःख और पीड़ा जैसा आपने बयान किया है वह नमन योग्य है!!
बेहतरीन रचना!
बहुत अच्छी लगी आज की कविता...
aapki aaj ki kavita mai alag hi jaan hai
bahut achhi rachna
सृजन सलिला संगीता स्वरुप जी
सादर प्रणाम !
आपकी रचनाएं कितनी बार पढ़ी हैं , अक्सर संयोग ऐसा रहा कि बिना प्रतिक्रिया व्यक्त किये ही लौट जाना हुआ ।
अभी आपके ब्लॉग को फॉलो किया है , तस्वीर ही नहीं आ रही मेरी , जाने क्यों ?
ख़ैर …
रिसते रिसते मची तबाही
नदियां बहुत उफन कर आयीं
गुलशन तहस-नहस कर डाला
मेघों ने अम्बर ढक डाला
अतिवृष्टि का करुण दृश्य साकार हो उठा है पंक्ति पंक्ति में ।
आपकी लेखनी को नमन !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
मेघों ने अंबर ढक डाला
--
बहुत सुन्दर नवगीत है यह तो!
--
मेघ अभी तक गगन में, खेल रहे हैं खेल।
वर्षा के सन्ताप को, लोग रहे हैं झेल।।
Geet ke madhyam se achchhi seekh...
ajeeb fitrat hai insaan ki....jisne qudrat ko bhi barbaad kar hi diya. manzar ye hai ke megh na barsein to rote hain, barsein to bhi rote hain...........
bohot sundar geet hai dai...
:)
वाह संगीता जी ,पर्यावरण चेतना का भी सुन्दर निर्वाह है.
प्रकृति से खिलवा्ड को बहुत सुन्दरता से शब्दों मे ढाला है।
रिसते रिसते मची तबाही
नदियां बहुत उफन कर आयीं
गुलशन तहस-नहस कर डाला
मेघों ने अम्बर ढक डाला ।
बहुत ही सुन्दरता से मानसमन में मची इस पीड़ा को शब्दों के द्वारा रचना में व्यक्त किया है, साथ ही चित्रों ने सजीवता प्रकट की है, आपका लेखन यूं नित नई ऊंचाईयां छूता रहे, शुभकामनाओं के साथ ।
वाह संगीता जी,
बहुत सुन्दरता से शब्दों मे ढाला है
वाह संगीता जी,
बहुत सुन्दरता से शब्दों मे ढाला है
पढ़िए और मुस्कुराइए :-
जब रोहन पंहुचा संता के घर ...
बहुत सुंदर भाव सुंदर गीत बधाई
हरी-भरी उर्वरा छाँट दी
कंकरीट से धरा पाट दी
धरती को बंजर कर डाला
मेघों ने अम्बर ढक डाला .
बहुत सुन्दर, इस यथार्थ को सभी ने झुठला दिया और परिणाम सामने है !
बहुत बढ़िया ,बेहतरीन प्रस्तुती शुक्रिया
rimjhim fuhaaron kee tarah aap her jagah nami deti milti hain...
जब काटे थे पेड़ अंधाधुंध
बुद्धि हुई थी तब जैसे कुंद
तब तो स्वार्थ स्वयं का साधा
लाभ कमाया ज्यादा-ज्यादा
कुदरत ने अब फल दे डाला
सच है अब कुदरत के फल से डरते हैं सब ..... करते वक़्त नही सोचा .... सुंदर रचना है ....
कल्याणकारी सन्देश देती अतिसुन्दर आपकी यह रचना मन मोह गयी.....
गीत के रूप में बहुत अच्छा संदेश...अच्छे चित्रों के साथ
बहुत सुन्दर रचना ...
यूँ तो पेड़ काटने से होती अल्पवृष्टि,
पर कविता न देखते हम तर्क द्रष्टि,
पेड़ होने चाहिए भरपूर, हम सहमत है,
तभी रहेगी सलामत स्रष्टि.
अच्छा सन्देश, लिखते रहिये ...
हरी-भरी उर्वरा छाँट दी
कंकरीट से धरा पाट दी
धरती को बंजर कर डाला ...
behatreen rachna !
.
सभी पाठकों का आभार ...
मजाल साहब ,
आपने दुरुस्त फरमाया कि पेड़ काटने से अल्पवृष्टि होती है ...यह वैज्ञानिक भी है पर प्रकृति से छेड़ छाद करने का बदला वो स्वयं किसी भी रूप में लेती है ...अब वो अल्पवृष्टि हो या अतिवृष्टि ..
आभार
हरी-भरी उर्वरा छाँट दी
कंकरीट से धरा पाट दी
धरती को बंजर कर डाला
मेघों ने अम्बर ढक डाला...
पर्यावरण के लिए ज़रूरी संदेश देती रचना.
सुंदर भाव, बहुत सुंदर गीत, बहुत-बहुत बधाई...
Bahut sunder bhav aur usse se bhi sunder sandesh!
Saadar!
सार्थक सटीक बढ़िया रचना.अच्छा सन्देश.इसी विषय पर मेरी प्रस्तुति देखें:
कुदरत से न डरने वाले घूम, रहे हैं शेर से
देखो आफत बरस रही है, अम्बर की मुंडेर से.
जो कुछ भी जोड़ा सबने था खून पसीना पेर के
देखो कैसे गटक रहा जल अन्दर बाहर घेर के.
सब कुछ बदल गया पलभर में,नभ की एक टेर से
बस्तियां हैं निकल रहीं, देखो मलबों के ढ़ेर से.
जाने कितने पार हो गए, इस जीवन के फेर से
देखो दिया जवाब इन्द्र ने सेर का सवा सेर से.
पूंछ रही है हम से प्रकृति, इक इक घाव उकेर के
देखो! जान गए न तुम अब,क्यों आया सावन देर से.
फूटा नभ से जल का छाला। छाला शब्द कुछ जम नहीं रहा है। छाला विदग्धता का लक्षण है और जल से जलना? खैर आपने कुछ सोच कर ही लिखा होगा।
ओह सन्देश परक !
सन्देश पूर्ण रचना .....बधाई !!
Wah ati vrshti aur manushya keeswarthi prawrutti dono ka rishta khoob samzaya hai. kawita aur chitr dono hee sunder.
कंकरीट से धरा पाट दी
धरती को बंजर कर डाला
मेघों ने अम्बर ढक डाला .
....प्रकृति से खिलवाड़ पर सुन्दर गीत...बधाई.
मानव की लोभ-प्रवृति पर सही समय पर सही कटाक्ष..!!!
दीदी,
बहुत सुन्दर प्रवाहमय गीत...सच्चाई को बयां करता हुआ.....बधाई
bahut hi badhiya geet mumma ....lay bhi baadh ke paani jitni hee tez hai haan bhayavah nahi hai ..madhur hai ...maza aaya
सार्थक प्रस्तुति ..
आभार
उम्दा रचना...
अब आपको भी बुलाना पडेगा क्या अपने ब्लाग पर...! वैसे ही मुझ निर्धन के यहाँ इक्का-दुक्का लोग आते है आप कुछ समर्थन कर देती है तो मनोबल बढ जाता है...
आभार सहित
डा.अजीत
गीत कितना भी सुन्दर हो..संगीता जी ने हकीक़त की कडुवाहट से रूबरू करवा और शिक्षा भी दे डाली कि महज अपने निजी लोभ के लिए जो हम प्रकृति से जो छेड़छाड़ कर रहे है उसका नतीजा विनाश है | हमने पहाड़ो में इस अतिवृष्टि से हुवे नाश को देखा है तो संगीता जी कि कविता का दर्द समझ आता है..बहुत खूब लिखा है संगीता जी |
bahot achchi lagi.
सत्य कों बहुत ही सहजता से छंदबद्ध किया है आपने...चित्रों का संयोजन भी प्रभावी लगा....
शुभकामनाएं....
aapki lekhni bilkul sahi bata rahi prakriti se chhedchhad jabse shuru hui .....santulan to khrab hoga hi prakriti ka khamiyaja bhi hame hi bharna hai ...........bahut achhi rachna didi ....
"प्रकृति के प्रतिशोध' को अत्यंत खूबसूरती से चित्रों संग कह गईं आप..........
हार्दिक बधाई.
चन्द्र मोहन गुप्त
जब काटे थे पेड़ अंधाधुंध
बुद्धि हुई थी तब जैसे कुंद
तब तो स्वार्थ स्वयं का साधा
लाभ कमाया ज्यादा-ज्यादा
कुदरत ने अब फल दे डाला
मेघों ने अम्बर ढक डाला
abhi bhi sudharne ka naam nahii le rahe hai .
sundar kavita
aadhunik yug kevinash ke karno ki chhandmay prastuti ,achhi lagi .
apne geeton dvara aise hi logon ko chetate rahen aapka aabhar
संगीता माँ,
एक बहुत सधे हुए गीत से आपने पर्यावरण के चीर-हरण की ओर ध्यान आकर्षित किया है!
आभार!
आशीष
घर गया था तो एक हफ्ते दिखा ही नहीं... आज लौटा हूँ, तो इसे पढ़ा..:)
गीला गीला सा...मीठा सा मन हुआ..
तब तो स्वार्थ स्वयं का साधा
लाभ कमाया ज्यादा-ज्यादा
कुदरत ने अब फल दे डाला
सार्थक प्रस्तुति ..
आभार
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