संवाद नदी - समंदर का
>> Thursday, October 28, 2010
सागर ,
मैं आती हूँ
शैल शिखर
पार कर ,
इठलाती -बलखाती हुई
उद्वविग्न सी
हर बाधा से
उलझती निकलती हुयी
तुम तक पहुँचने के लिए
तुम में विलय होने को
विह्वल रहती हूँ
मैं एक नदी हूँ
..
नदी ,
तुम चपल चंचल
उद्दाम वेग से
बहती हुई
शैल शिखर से
उतरती
तीव्रता से
मैदानी इलाके में
आती हुई
अपने वेग से
शिला को भी
रेत बनाती हुई
बढ़ती चली आती हो
मेरी ओर
मुझमें समाने के लिए
और मैं
शांत ,गंभीर
धैर्य धारण कर
कर लेता हूँ वरण
क्यों कि
मैं समंदर हूँ
समां लेता हूँ
सब अपने अन्दर ..
पर तुम
एक ही नदी तो नहीं
जो चाहती है
मुझमें समाना
न जाने
कहाँ कहाँ की नदियाँ
मिल कर बनाती हैं
मेरा वजूद
फिर सबकी लहरें मिल
लाती हैं मुझमें
कभी ज्वार तो
कभी भाटा
और तब
उद्दंड हो
भूल जाता हूँ मैं
अपनी मर्यादा
और कर बैठता हूँ
विध्वंस
न जाने कितने
तूफ़ान छिपे हैं
मेरे अन्दर
मैं हूँ समंदर
सब कुछ छिपा रखा है
मैंने अपने अन्दर ..