copyright. Powered by Blogger.

यवनिका गिरने को है ..

>> Tuesday, November 30, 2010


तेरे आकाश में 
कहीं छिपा है 
मेरे आकाश का 
एक नन्हा सा  टुकड़ा 
अपने ख़्वाबों 
और ख्यालों को 
पतंग बना 
उड़ा दिया है 
अपने आसमान में 
और पकड़ रखी है 
डोर बड़ी मजबूती से 
पर फिर भी 
दे देती हूँ ढील कभी
तो लहरा  कर  
कट जाती है कोई पतंग 
और मैं रह जाती हूँ 
मात्र डोर थामे 
निर्निमेष देखती हूँ 
उस पतंग को 
धरती पर आते हुए 
तुम्हारे विस्तृत अम्बर में 
नहीं है शतांश भी 
मेरी पतंगों के लिए 
मैं तुम्हारे आसमान में 
अपना आसमां ढूँढती हूँ 
अब तो डोर भी थामे 
थकने लगी हूँ 
बस 
यवनिका गिरने  को है ..





छायादार वृक्ष

>> Tuesday, November 23, 2010




ज़िंदगी की राह में 

ऐसा तो नहीं कि
एकांत है -
इच्छाओं की गाड़ियां
स्वार्थ का धुआँ उड़ाती
निकलती जाती हैं सरपट 

आस-पास के लोंग 
एक भीड़ के मानिंद 
भीड़ का कोई चेहरा नहीं होता 
भीड़ कोई रिश्ता नहीं देती 
भीड़ में कोई अपना नहीं लगता 
और एकांत न होते हुए भी 
अकेलापन पसर जाता है 
ज़िंदगी की राह में ..

किनारे पर खड़े 
छायादार वृक्ष भी 
अपनी उपस्थिति तो 
दर्ज़ कराते हैं 
पर साबित होते हैं बस 
मील के पत्थर की तरह .

मैं भी तो बस 
किनारे पर खड़ा 
एक छायादार वृक्ष ही हूँ ......



असमानंतर रेखाओं पर दौड़ती ज़िंदगी...........

>> Friday, November 12, 2010


अक्सर 
रेल कि पटरियों को 
देखते हुए 
सोचती हूँ 
रेल 
कितनी सुगमता से
भागती है इन 
समानांतर  रेखाओं पर 
और पहुँच जाती  है 
अपने गंतव्य पर 


लेकिन ज़िंदगी की
गाड़ी के लिए 
न तो समानांतर 
पटरियां हैं 
और न ही 
निश्चित व्यास लिए 
पहिये ही ..

वक्त ज़रूरत पर 
गाड़ी स्वयं ही 
संतुलित करती है 
अपने पहियों को 
और दौड जाती है 
बिना पटरियों के भी .

ज़िंदगी भी तो 
अपना गंतव्य 
पा ही जाती है .....


.
 

यादें.......बचपन की

>> Sunday, November 7, 2010


आज भाई- दूज के दिन एक पुरानी रचना आप सबके साथ बाँट रही हूँ ...वक्त के साथ जैसे सब छूटता चला जाता है ....




अक्सर अकेली स्याह रातों में
अपने आप से मिला करती हूँ
और अंधेरे सायों में
अपने आप से बात किया करती हूँ।

याद आते हैं वो 
बचपन के दिन
जब भाई के साथ
गिल्ली - डंडा भी खेला था
भाई को चिढाना ,
उसे गुस्सा दिलाना
और फिर लड़ते - लड़ते
गुथ्थम - गुथ्था हो जाना 
माँ का आ कर छुडाना
और डांट कर
अलग - अलग बैठाना
माँ के हटते ही 
फिर हमारा एक हो जाना 
एक दूसरे के बिना 
जैसे वक्त नही कटता था
कितनी ही बातें 
बस यूँ ही याद आती हैं ।

कैसे बीत जाता है वक्त 
और रिश्ते भी बदल जाते हैं 
माँ का अंचल भी 
छूट जाता है 
और हम ,
बड़े भी हो जाते हैं 
पर कहीं मन में हमेशा 
एक बच्चा बैठा रहता है 
समय - समय पर वो 
आवाज़ दिया करता है 
उम्र बड़ी होती जाती है 
पर मन पीछे धकेलता रहता है।

काश बीता वक्त एक बार 
फिर ज़िन्दगी में आ जाए 
माँ - पापा के साथ फिर से 
हर रिश्ते में गरमाहट भर जाए.



सुगबुगाती आहट

>> Tuesday, November 2, 2010




याद है ? 
जब तुम लौटते थे 
दफ्तर से घर 
तुम्हारे आने से 
पहले ही 
तुम्हारी आहट 
पहुँच जाती थी 
मुझ तक ,
और मैं 
उल्लसित हुयी 
मिलती थी 
घर की देहरी पर , 
तुम्हारी सुगंध से 
जैसे गमक उठता था 
सारा घर ,
और मुझे देख 
तुम रह जाते थे 
हतप्रभ से ,
पूछ बैठते थे कि-
तुम्हें कैसे पता चला ? 

आज जब 
देखती हूँ बच्चों को ,
आपाधापी भरी ज़िंदगी में 
कब , कौन आया 
पता ही नहीं चलता 
खोये रहते हैं 
सब अपने में .

पर आज भी 
पहचानते हैं 
हर आहट हम 
एक दूसरे की, 
रात को सोते हुए 
किसने कितनी बार 
करवट  ली ,
कितनी बार किसकी 
नींद खुली ,
बेचैन हो कर 
कब कौन 
कितना टहला 
सबका हिसाब  रहता है 
कहते कुछ भी नहीं 
एक दूसरे से हम 
बस मौन ही मुखरित होता है 

हमारी वाणी

www.hamarivani.com

About This Blog

आगंतुक


ip address

  © Blogger template Snowy Winter by Ourblogtemplates.com 2009

Back to TOP