छायादार वृक्ष
>> Tuesday, November 23, 2010
ज़िंदगी की राह में
असमानंतर रेखाओं पर दौड़ती ज़िंदगी...........
>> Friday, November 12, 2010
अक्सर
रेल कि पटरियों को
देखते हुए
सोचती हूँ
रेल
कितनी सुगमता से
भागती है इन
समानांतर रेखाओं पर
और पहुँच जाती है
अपने गंतव्य पर
यादें.......बचपन की
>> Sunday, November 7, 2010
आज भाई- दूज के दिन एक पुरानी रचना आप सबके साथ बाँट रही हूँ ...वक्त के साथ जैसे सब छूटता चला जाता है ....
अक्सर अकेली स्याह रातों में
अपने आप से मिला करती हूँ
और अंधेरे सायों में
अपने आप से बात किया करती हूँ।
याद आते हैं वो
बचपन के दिन
जब भाई के साथ
गिल्ली - डंडा भी खेला था
भाई को चिढाना ,
उसे गुस्सा दिलाना
और फिर लड़ते - लड़ते
गुथ्थम - गुथ्था हो जाना
माँ का आ कर छुडाना
और डांट कर
अलग - अलग बैठाना
माँ के हटते ही
फिर हमारा एक हो जाना
एक दूसरे के बिना
जैसे वक्त नही कटता था
कितनी ही बातें
बस यूँ ही याद आती हैं ।
कैसे बीत जाता है वक्त
और रिश्ते भी बदल जाते हैं
माँ का अंचल भी
छूट जाता है
और हम ,
बड़े भी हो जाते हैं
पर कहीं मन में हमेशा
एक बच्चा बैठा रहता है
समय - समय पर वो
आवाज़ दिया करता है
उम्र बड़ी होती जाती है
पर मन पीछे धकेलता रहता है।
काश बीता वक्त एक बार
फिर ज़िन्दगी में आ जाए
माँ - पापा के साथ फिर से
हर रिश्ते में गरमाहट भर जाए.
सुगबुगाती आहट
>> Tuesday, November 2, 2010