असमानंतर रेखाओं पर दौड़ती ज़िंदगी...........
>> Friday, November 12, 2010
अक्सर
रेल कि पटरियों को
देखते हुए
सोचती हूँ
रेल
कितनी सुगमता से
भागती है इन
समानांतर रेखाओं पर
और पहुँच जाती है
अपने गंतव्य पर
लेकिन ज़िंदगी की
गाड़ी के लिए
न तो समानांतर
पटरियां हैं
और न ही
निश्चित व्यास लिए
पहिये ही ..
वक्त ज़रूरत पर
गाड़ी स्वयं ही
संतुलित करती है
अपने पहियों को
और दौड जाती है
बिना पटरियों के भी .
ज़िंदगी भी तो
अपना गंतव्य
पा ही जाती है .....
.
59 comments:
बिल्कुल सही कह रही हैं आप्…………बिना मंज़िल जाने भी इंसान चलता ही रहता है और पहुँच हीजाता है अपने गंतव्य पर्…………सुन्दर रचना।
सही कहा है आपने, जीवन की गाड़ी तो कभी कभी बिना पटरियों के भी दौड़ती है क्योंकि चलना ही जीवन है। लचीला होकर सभी तरह के समझौते करते हुए।
सुंदर कविता है जीवन का सार्थक संदेश देती हूई
हमारे हिसाब से तो अंतिम गंतव्य सबका एक ही है, पर चूंकि जीवन किसी रेलमंत्रालय के अधीन न हो के स्वतंत्र रूप से संचालित होता है, इसलिए वो ज्यादा विश्वसनीय है.....
आप शायरी करें तो और भी बेहतर, हमारे हिसाब से तो ऐसे विचार शेर में और ज्यादा जचेंगे ...
सोचते रहिये और लिखते रहिये ...
जीवन रूपी रेलगाड़ी पटरी से ना उतरे, इसके लिए ना जाने कितने पापड़ बेलने पड़ते है मनुष्य को . लेकिन सबसे ज्यादा जरुरत है मन की गति पर नियंत्रण. सुन्दर दर्शन से सजी कविता .
बिल्कुल सही कह रही हैं आप्
किसकी बात करें-आपकी प्रस्तुति की या आपकी रचनाओं की। सब ही तो आनन्ददायक हैं।
रेलगाड़ी के अंतिम मंजिल और मानव की अंतिम मंजिल में कुछ ही साम्य है ,रेलगाड़ी लौटती है अपनी उसी काया में !
और दौड जाती है
बिना पटरियों के भी .
ज़िंदगी भी तो
अपना गंतव्य
पा ही जाती है .....
Sach! Sirf rail gaadee kaa gantavy pata hota hai,zindagee ka nahee!
आपने सही कहा!
--
जिन्दगी तो सरल-विरल पटरिया तलाशकर शवयं ही अपने गन्तव्य को पा जाती है!
--
बहुत ही सशक्त अभिव्यक्ति प्रस्तुत की है आपने!
ज्रीवन के विवधि आयाम है, बस उन आयामों पर जो चलना सीख लेता है वह सुखी और जो नहीं सीख पाता वह दुखी।
सभी अपनी अपनी जिंदगी के गंतव्य ऊपर से निश्चित करवा कर लाये हैं सो जिंदगी की गाडी गंतव्य पर तो पहुँच ही जायेगी लेकिन उसके रास्ते को आसान या दूभर इंसान अपने कर्मो से करता है.
विचारणीय रचना.
derailment se bach kar aa rahee hoo..........:)
badiya rachana...
"...ज़िंदगी भी तो
अपना गंतव्य
पा ही जाती है ....."
कभी लडखडाते हुए और कभी सरपट दौड़ते हुए.हमारे आस पास ऐसे तमाम उदाहरण हैं जब हम ये महसूस करते हैं और शायद कभी कभी ये भाव खुद के प्रति भी मन में आते हैं.
बहुत ही सरल शब्दों में अपनी बात कहती प्रस्तुति.
सादर
ज़िंदगी की पटरी समानांतर न भी हो तो भी वह अपने गंतव्य तक जैसे-तैसे पहुंच ही जाती है।
आपकी कविता में यथार्थ का बखूबी चित्रण हुआ है।
जिंदगी का सफर है ये कैसा सफर
कोई समझा नहीं कोई जाना नहीं .
पर आपने सही पहचाना और बखूबी बयान भी कर दिया.
बहुत ही सार्थक रचना दी !
5.5/10
सुन्दर-सहज बोधात्मक कविता
जिन्दगी अपना गंतव्य पा ही जाती है.
sangeeta ji ... aapki kalam ke mohpash me bandhti jaa rahi hun
लेकिन ज़िंदगी की
गाड़ी के लिए
न तो समानांतर
पटरियां हैं
और न ही
निश्चित व्यास लिए
पहिये ही .
फिर भी ज़िन्दगी..कभी भागती...संभलती..लुढ़कती चलती ही जाती है.
अर्थपूर्ण कविता
lekin railgadi late v to hoti hai. Bahut achhi rachna
बहुत ही भावपूर्ण रचना ! रेल की पटरियां आपस में कभी नहीं मिलतीं लेकिन लोगों को अवश्य उनकी मंजिल तक पहुँचा देती हैं ! जीवन की पटरी पर लोग जीवन भर दौड़ते रहते हैं लेकिन क्या उन्हें मनचाही मंजिल कभी मिल पाती है ? बहुत सुन्दर रचना !
सरल सहज शब्दों में गहन अर्थों को समेटती एक खूबसूरत और भाव प्रवण रचना. आभार.
सादर,
डोरोथी.
बहुत ही सहजता से इतनी बड़ी बात कह दी आपने .....बहुत प्रभावशाली रचना है दी, अपनी चाप छोड़ जाती है . बहुत गहरा दर्शन है इस अभिव्यक्ति में !!
बिलकुल सत्य कहा आपने ... ज़िन्दगी को भला कौन रोक पाया है . ... सुंदर रचना के लिए बधाई स्वीकारें ... शुभकामनाएं
वक्त ज़रूरत पर
गाड़ी स्वयं ही
संतुलित करती है
अपने पहियों को
और दौड जाती है
बिना पटरियों के भी .
- यही संतुलन है जीवन!
सबके रास्ते अलग अलग होते है पर अंततः सबको अपनी मंज़िल पर जाना है..एक बेहतरीन भाव लिए सुंदर कविता..बधाई
agar train ke safar jaisi zindagi hoti to kya maza aata...maza to isi mein hain na ke raftaar, raasta aur nazaare...badalte rahein....
:)
bohot sundar....luv u
ज़िन्दगी कि गाड़ी के लिए सामानांतर पटरियां मिल जाएँगी तो आदमी आराम तलब हो जायेगा
sahi kaha di,
life automatic he,
samye -suvidha anusar apne ko dhal leti he1
sundar peshkash
संगीता,
जिन्दगी के रास्ते मुस्तकिल नहीं होते ,
आज हैं साथ में कल फिर अपने नहीं होते,
फिर भी जीत ही लेते हैं जंग जिन्दगी की,
ठान लेते हैं तो शिखर मुश्किल नहीं होते.
मेरे जेहन से तो यही निकाला है तुम्हारी कविता के साथ ही.
अब हमारी जोड़ी देख कर कहने वाले कहते हैं ट्रैक्टर और स्कूटर का पहिया है, पर अपनी गाड़ी चली जा रही है। २०-२२ स्टेशन तो पार कर ही लिए।
ज़िंदगी भी तो
अपना गंतव्य
पा ही जाती है .....
वह भी असमान्तर पटरियों पर दौडकर !!
बहुत सुन्दर भाव लिये रच्ना !
दीदी,
साकारात्मक संदेश्। सुंदर भाव, सदैव की तरह
.
रेल के पहियों के साथ जीवन दर्शन प्रस्तुत करती अद्भुत रचना के लिए आभार ।
.
दो पटरियाँ समानान्तर बनी रहें।
संतुलित करती है
अपने पहियों को
और दौड जाती है
बिना पटरियों के भी .
ज़िंदगी भी तो
अपना गंतव्य
पा ही जाती है .....
जीवन का सत्य बयान किया है आपने.
sach jindagi bhi apna gantavya paa hi jati hai!!!!
regards,
सरल ... सार्थक...
sangeeta ji,
sach me aapne apni is rachna me bilkul yatharth ko prastut
kar diya hai.
वक्त ज़रूरत पर
गाड़ी स्वयं ही
संतुलित करती है
अपने पहियों को
और दौड जाती है
बिना पटरियों के भी .
ekdam sateek prastuti-----
poonam
बहुत सुन्दर कविता है..बधाई आपको.
heheh...train ki technology to bahut purani hai mumma.. zindagi bahut aage ki technology use karti hai ... bahut dhansu kism ke pahiye hote hain isme...
pata hai main gaon jane wala tha ...12 ko ..train chhoot gayi meri ...:(
luv u
वहुत ही भाव पूर्ण रचना होती है आपके द्वारा ,हरेक रचना में अर्थ निहित होता है
यहाँ पर एक सवाल है आपसे , क्या वाकई जिंदगी की गाडी अपना गंतव्य पा लेती है ,
यदि हाँ , तो फिर इसका गंतव्य है कहाँ .
सुन्दर भाव व सारगर्भित कविता..
जीवन के लिये भी हैं ना पटरी... पति - पत्नी...ये बात और है कि वह पटरी की तरह सामान्तर न रह कर कभी कभी एक दूसरे को क्रोस करने लगते हैं... परन्तु शायद एक रसता से भी जिन्दगी दूभर हो जाती है... छोटे मोटे मन मुटाव भी जिन्दगी में जरूरी हैं.. मान मनुहार के लिये
बहुत भाई कल्पना की उड़ान |बधाई
आशा
एक नइ व्याख्या जीवन की.. बहुत सुन्दर.. किन्तु कविता में "समानांतर" और शीर्षक में "असमा-नंतर" क्यों??
दिल को छू लेनेवाली कविता... आभार...
अपने पटरियों को संतुलित करती............. ,बिना पहियों के भी ......... गंतव्य तक पहुंचती जिन्दगी ........ सुन्दर अभिवयक्ति ..... बधाई.........
समानान्तर रेखाओं पर दौड़ती असमानान्तर जिंदगियाँ.. :P ट्रेन में बैठे लोगों के विचार सुने ही होंगे आपने..
वक्त ज़रूरत पर
गाड़ी स्वयं ही
संतुलित करती है
अपने पहियों को
और दौड जाती है
बिना पटरियों के भी ।
बहुत ही सुन्दर शब्द रचना ...।
जिंदगी की रेल की और पटरियों पहियों की खूबसूरत व्याख्या.. वाह बहुत खूब संगीता जी..
कितना satya कहा आपने....
sachmuch !!!!
aapkee rachnaaye sadaiv ही चिंतन ko khuraak de जाती है...
वाह..!!!
वक्त ज़रूरत पर
गाड़ी स्वयं ही
संतुलित करती है
अपने पहियों को
और दौड जाती है
बिना पटरियों के भी .
ज़िंदगी भी तो
अपना गंतव्य
पा ही जाती है ..
वाह इन पंक्तियों ने तो मन मोह लिया....
टिपण्णी करना तो चाहता हूँ पर शब्द साथ छोड़ जाते हैं और कहते हैं की हममे इतनी सामर्थ्य नहीं की हम इस ब्लॉग के किसी भी पोस्ट पर कुछ कह सकें अतः मेरी शुभकामनायें स्वीकार करें.......
विनम्र अनुरोध है की मेरे ब्लॉग में आकर मार्गदर्शन प्रदान करें :-
http://gouravkikalamse.blogspot.com/
&
http://bhartiyagourav2222.blogspot.com/
धन्यवाद.
चलना ही जीवन है ऊबड खाबड रास्तों पर तो पैदल ही चलना पडता है काँटों कंकरों के बीच राह बनाते हुये। अच्छी लगी रचना। शुभकामनायें।
bahn sngitaa ji aadaab rel ki do ptriyaan or zindzindgi kaa jo flsfaa aapne btaaya he voh to sch dil ki ghraaiyon ko chune vala he apne shikaayt ki ke aap kvita nhin sngitaa hen pehle to bhul yaa glti ke leyen binaa shrt maafi dusre mzaaq men hi shi lekin sch bat bhi he ke aap sngitaa bhn hi shi lekin kvitaa achchi hi nhin bhut achchi likh rhi hen isliyen hmaare liyen to ap kvitaa bhn hi ho gyiv vese bhi sngit ko shbd kvitaa se hi milti he . akhtar khan akela kota rajsthan
एकदम सही कहा आपने, ज़िन्दगी अपना गंतव्य पा ही जाती है. पटरियां हों न हों, सामानांतर हों न हों, ज़िन्दगी तो बिना रुके चलती ही जाती है और इसी लिए अपना गंतव्य भी पा ही जाती है.
Manju Mishra
संगीता जी, उर्दू में कहूँ तो ला-अलफ़ाज़ कर दिया है आपने. समानांतर रेखाओं पर चलने वाली ज़िन्दगी एक रेलगाड़ी से बेहतर नहीं हो सकती. गंतव्य तो पा ही जाना है लेकिन गंतव्य तक पहुँचने का रास्ता अगर आप खुद बनाएं तो ही आप खुद को ईश्वर कि उत्कृष्ट रचना कहलाने के लायक समझेंगे. अच्छी कविता के लिए बधाई स्वीकार करें
एक सार्थक संदेश छिपा है आपकी रचना में
आपको बधाई
वक्त ज़रूरत पर
गाड़ी स्वयं ही
संतुलित करती है
अपने पहियों को
और दौड जाती है
बिना पटरियों के भी .
ज़िंदगी भी तो
अपना गंतव्य
पा ही जाती है .....
....bahut sundar arthpurn rachna ..aabhar
बहुत ही सार्थक और संदेश देती रचना ।
सुन्दर रचना !
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