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असमानंतर रेखाओं पर दौड़ती ज़िंदगी...........

>> Friday, November 12, 2010


अक्सर 
रेल कि पटरियों को 
देखते हुए 
सोचती हूँ 
रेल 
कितनी सुगमता से
भागती है इन 
समानांतर  रेखाओं पर 
और पहुँच जाती  है 
अपने गंतव्य पर 


लेकिन ज़िंदगी की
गाड़ी के लिए 
न तो समानांतर 
पटरियां हैं 
और न ही 
निश्चित व्यास लिए 
पहिये ही ..

वक्त ज़रूरत पर 
गाड़ी स्वयं ही 
संतुलित करती है 
अपने पहियों को 
और दौड जाती है 
बिना पटरियों के भी .

ज़िंदगी भी तो 
अपना गंतव्य 
पा ही जाती है .....


.
 

59 comments:

vandana gupta 11/12/2010 5:12 PM  

बिल्कुल सही कह रही हैं आप्…………बिना मंज़िल जाने भी इंसान चलता ही रहता है और पहुँच हीजाता है अपने गंतव्य पर्…………सुन्दर रचना।

ब्लॉ.ललित शर्मा 11/12/2010 5:13 PM  

सही कहा है आपने, जीवन की गाड़ी तो कभी कभी बिना पटरियों के भी दौड़ती है क्योंकि चलना ही जीवन है। लचीला होकर सभी तरह के समझौते करते हुए।

सुंदर कविता है जीवन का सार्थक संदेश देती हूई

Manish aka Manu Majaal 11/12/2010 5:24 PM  

हमारे हिसाब से तो अंतिम गंतव्य सबका एक ही है, पर चूंकि जीवन किसी रेलमंत्रालय के अधीन न हो के स्वतंत्र रूप से संचालित होता है, इसलिए वो ज्यादा विश्वसनीय है.....
आप शायरी करें तो और भी बेहतर, हमारे हिसाब से तो ऐसे विचार शेर में और ज्यादा जचेंगे ...
सोचते रहिये और लिखते रहिये ...

ashish 11/12/2010 5:27 PM  

जीवन रूपी रेलगाड़ी पटरी से ना उतरे, इसके लिए ना जाने कितने पापड़ बेलने पड़ते है मनुष्य को . लेकिन सबसे ज्यादा जरुरत है मन की गति पर नियंत्रण. सुन्दर दर्शन से सजी कविता .

संजय भास्‍कर 11/12/2010 5:29 PM  

बिल्कुल सही कह रही हैं आप्
किसकी बात करें-आपकी प्रस्‍तुति की या आपकी रचनाओं की। सब ही तो आनन्‍ददायक हैं।

Arvind Mishra 11/12/2010 5:32 PM  

रेलगाड़ी के अंतिम मंजिल और मानव की अंतिम मंजिल में कुछ ही साम्य है ,रेलगाड़ी लौटती है अपनी उसी काया में !

kshama 11/12/2010 5:34 PM  

और दौड जाती है
बिना पटरियों के भी .

ज़िंदगी भी तो
अपना गंतव्य
पा ही जाती है .....
Sach! Sirf rail gaadee kaa gantavy pata hota hai,zindagee ka nahee!

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 11/12/2010 5:44 PM  

आपने सही कहा!
--
जिन्दगी तो सरल-विरल पटरिया तलाशकर शवयं ही अपने गन्तव्य को पा जाती है!
--
बहुत ही सशक्त अभिव्यक्ति प्रस्तुत की है आपने!

अजित गुप्ता का कोना 11/12/2010 6:16 PM  

ज्रीवन के विवधि आयाम है, बस उन आयामों पर जो चलना सीख लेता है वह सुखी और जो नहीं सीख पाता वह दुखी।

अनामिका की सदायें ...... 11/12/2010 6:24 PM  

सभी अपनी अपनी जिंदगी के गंतव्य ऊपर से निश्चित करवा कर लाये हैं सो जिंदगी की गाडी गंतव्य पर तो पहुँच ही जायेगी लेकिन उसके रास्ते को आसान या दूभर इंसान अपने कर्मो से करता है.

विचारणीय रचना.

Apanatva 11/12/2010 6:41 PM  

derailment se bach kar aa rahee hoo..........:)
badiya rachana...

Yashwant R. B. Mathur 11/12/2010 6:42 PM  

"...ज़िंदगी भी तो
अपना गंतव्य
पा ही जाती है ....."

कभी लडखडाते हुए और कभी सरपट दौड़ते हुए.हमारे आस पास ऐसे तमाम उदाहरण हैं जब हम ये महसूस करते हैं और शायद कभी कभी ये भाव खुद के प्रति भी मन में आते हैं.

बहुत ही सरल शब्दों में अपनी बात कहती प्रस्तुति.

सादर

महेन्‍द्र वर्मा 11/12/2010 6:43 PM  

ज़िंदगी की पटरी समानांतर न भी हो तो भी वह अपने गंतव्य तक जैसे-तैसे पहुंच ही जाती है।

आपकी कविता में यथार्थ का बखूबी चित्रण हुआ है।

shikha varshney 11/12/2010 7:12 PM  

जिंदगी का सफर है ये कैसा सफर
कोई समझा नहीं कोई जाना नहीं .
पर आपने सही पहचाना और बखूबी बयान भी कर दिया.
बहुत ही सार्थक रचना दी !

उस्ताद जी 11/12/2010 7:43 PM  

5.5/10

सुन्दर-सहज बोधात्मक कविता
जिन्दगी अपना गंतव्य पा ही जाती है.

रश्मि प्रभा... 11/12/2010 7:55 PM  

sangeeta ji ... aapki kalam ke mohpash me bandhti jaa rahi hun

rashmi ravija 11/12/2010 8:26 PM  

लेकिन ज़िंदगी की
गाड़ी के लिए
न तो समानांतर
पटरियां हैं
और न ही
निश्चित व्यास लिए
पहिये ही .

फिर भी ज़िन्दगी..कभी भागती...संभलती..लुढ़कती चलती ही जाती है.
अर्थपूर्ण कविता

Anonymous,  11/12/2010 8:51 PM  

lekin railgadi late v to hoti hai. Bahut achhi rachna

Sadhana Vaid 11/12/2010 9:52 PM  

बहुत ही भावपूर्ण रचना ! रेल की पटरियां आपस में कभी नहीं मिलतीं लेकिन लोगों को अवश्य उनकी मंजिल तक पहुँचा देती हैं ! जीवन की पटरी पर लोग जीवन भर दौड़ते रहते हैं लेकिन क्या उन्हें मनचाही मंजिल कभी मिल पाती है ? बहुत सुन्दर रचना !

Dorothy 11/12/2010 10:49 PM  

सरल सहज शब्दों में गहन अर्थों को समेटती एक खूबसूरत और भाव प्रवण रचना. आभार.
सादर,
डोरोथी.

रानीविशाल 11/12/2010 11:08 PM  

बहुत ही सहजता से इतनी बड़ी बात कह दी आपने .....बहुत प्रभावशाली रचना है दी, अपनी चाप छोड़ जाती है . बहुत गहरा दर्शन है इस अभिव्यक्ति में !!

Dr Xitija Singh 11/12/2010 11:43 PM  

बिलकुल सत्य कहा आपने ... ज़िन्दगी को भला कौन रोक पाया है . ... सुंदर रचना के लिए बधाई स्वीकारें ... शुभकामनाएं

प्रतिभा सक्सेना 11/13/2010 8:11 AM  

वक्त ज़रूरत पर
गाड़ी स्वयं ही
संतुलित करती है
अपने पहियों को
और दौड जाती है
बिना पटरियों के भी .

- यही संतुलन है जीवन!

विनोद कुमार पांडेय 11/13/2010 8:48 AM  

सबके रास्ते अलग अलग होते है पर अंततः सबको अपनी मंज़िल पर जाना है..एक बेहतरीन भाव लिए सुंदर कविता..बधाई

Anonymous,  11/13/2010 8:50 AM  

agar train ke safar jaisi zindagi hoti to kya maza aata...maza to isi mein hain na ke raftaar, raasta aur nazaare...badalte rahein....
:)

bohot sundar....luv u

Kunwar Kusumesh 11/13/2010 9:55 AM  

ज़िन्दगी कि गाड़ी के लिए सामानांतर पटरियां मिल जाएँगी तो आदमी आराम तलब हो जायेगा

Khare A 11/13/2010 10:39 AM  

sahi kaha di,
life automatic he,
samye -suvidha anusar apne ko dhal leti he1

sundar peshkash

रेखा श्रीवास्तव 11/13/2010 11:48 AM  

संगीता,

जिन्दगी के रास्ते मुस्तकिल नहीं होते ,
आज हैं साथ में कल फिर अपने नहीं होते,
फिर भी जीत ही लेते हैं जंग जिन्दगी की,
ठान लेते हैं तो शिखर मुश्किल नहीं होते.
मेरे जेहन से तो यही निकाला है तुम्हारी कविता के साथ ही.

मनोज कुमार 11/13/2010 2:50 PM  

अब हमारी जोड़ी देख कर कहने वाले कहते हैं ट्रैक्टर और स्कूटर का पहिया है, पर अपनी गाड़ी चली जा रही है। २०-२२ स्टेशन तो पार कर ही लिए।

पी.सी.गोदियाल "परचेत" 11/13/2010 3:32 PM  

ज़िंदगी भी तो
अपना गंतव्य
पा ही जाती है .....

वह भी असमान्तर पटरियों पर दौडकर !!

बहुत सुन्दर भाव लिये रच्ना !

सुज्ञ 11/13/2010 3:52 PM  

दीदी,

साकारात्मक संदेश्। सुंदर भाव, सदैव की तरह

ZEAL 11/13/2010 4:16 PM  

.

रेल के पहियों के साथ जीवन दर्शन प्रस्तुत करती अद्भुत रचना के लिए आभार ।

.

प्रवीण पाण्डेय 11/13/2010 4:26 PM  

दो पटरियाँ समानान्तर बनी रहें।

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' 11/13/2010 6:18 PM  

संतुलित करती है
अपने पहियों को
और दौड जाती है
बिना पटरियों के भी .
ज़िंदगी भी तो
अपना गंतव्य
पा ही जाती है .....
जीवन का सत्य बयान किया है आपने.

अनुपमा पाठक 11/13/2010 6:20 PM  

sach jindagi bhi apna gantavya paa hi jati hai!!!!
regards,

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') 11/13/2010 9:44 PM  

सरल ... सार्थक...

पूनम श्रीवास्तव 11/14/2010 11:56 AM  

sangeeta ji,
sach me aapne apni is rachna me bilkul yatharth ko prastut
kar diya hai.

वक्त ज़रूरत पर
गाड़ी स्वयं ही
संतुलित करती है
अपने पहियों को
और दौड जाती है
बिना पटरियों के भी .
ekdam sateek prastuti-----
poonam

Akshitaa (Pakhi) 11/14/2010 12:53 PM  

बहुत सुन्दर कविता है..बधाई आपको.

स्वप्निल तिवारी 11/14/2010 3:32 PM  

heheh...train ki technology to bahut purani hai mumma.. zindagi bahut aage ki technology use karti hai ... bahut dhansu kism ke pahiye hote hain isme...


pata hai main gaon jane wala tha ...12 ko ..train chhoot gayi meri ...:(

luv u

रूपम 11/14/2010 9:00 PM  

वहुत ही भाव पूर्ण रचना होती है आपके द्वारा ,हरेक रचना में अर्थ निहित होता है
यहाँ पर एक सवाल है आपसे , क्या वाकई जिंदगी की गाडी अपना गंतव्य पा लेती है ,
यदि हाँ , तो फिर इसका गंतव्य है कहाँ .

Mohinder56 11/15/2010 1:23 PM  

सुन्दर भाव व सारगर्भित कविता..

जीवन के लिये भी हैं ना पटरी... पति - पत्नी...ये बात और है कि वह पटरी की तरह सामान्तर न रह कर कभी कभी एक दूसरे को क्रोस करने लगते हैं... परन्तु शायद एक रसता से भी जिन्दगी दूभर हो जाती है... छोटे मोटे मन मुटाव भी जिन्दगी में जरूरी हैं.. मान मनुहार के लिये

Asha Lata Saxena 11/15/2010 7:30 PM  

बहुत भाई कल्पना की उड़ान |बधाई
आशा

चला बिहारी ब्लॉगर बनने 11/16/2010 1:59 AM  

एक नइ व्याख्या जीवन की.. बहुत सुन्दर.. किन्तु कविता में "समानांतर" और शीर्षक में "असमा-नंतर" क्यों??

Anonymous,  11/16/2010 10:03 AM  

दिल को छू लेनेवाली कविता... आभार...

Amrita Tanmay 11/16/2010 10:06 AM  

अपने पटरियों को संतुलित करती............. ,बिना पहियों के भी ......... गंतव्य तक पहुंचती जिन्दगी ........ सुन्दर अभिवयक्ति ..... बधाई.........

Manish 11/16/2010 12:02 PM  

समानान्तर रेखाओं पर दौड़ती असमानान्तर जिंदगियाँ.. :P ट्रेन में बैठे लोगों के विचार सुने ही होंगे आपने..

सदा 11/16/2010 12:23 PM  

वक्त ज़रूरत पर
गाड़ी स्वयं ही
संतुलित करती है
अपने पहियों को
और दौड जाती है
बिना पटरियों के भी ।


बहुत ही सुन्‍दर शब्‍द रचना ...।

डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीति 11/16/2010 12:52 PM  

जिंदगी की रेल की और पटरियों पहियों की खूबसूरत व्याख्या.. वाह बहुत खूब संगीता जी..

रंजना 11/16/2010 5:24 PM  

कितना satya कहा आपने....

sachmuch !!!!

aapkee rachnaaye sadaiv ही चिंतन ko khuraak de जाती है...

गौरव शर्मा "भारतीय" 11/16/2010 8:35 PM  

वक्त ज़रूरत पर
गाड़ी स्वयं ही
संतुलित करती है
अपने पहियों को
और दौड जाती है
बिना पटरियों के भी .

ज़िंदगी भी तो
अपना गंतव्य
पा ही जाती है ..
वाह इन पंक्तियों ने तो मन मोह लिया....

टिपण्णी करना तो चाहता हूँ पर शब्द साथ छोड़ जाते हैं और कहते हैं की हममे इतनी सामर्थ्य नहीं की हम इस ब्लॉग के किसी भी पोस्ट पर कुछ कह सकें अतः मेरी शुभकामनायें स्वीकार करें.......
विनम्र अनुरोध है की मेरे ब्लॉग में आकर मार्गदर्शन प्रदान करें :-
http://gouravkikalamse.blogspot.com/
&
http://bhartiyagourav2222.blogspot.com/
धन्यवाद.

निर्मला कपिला 11/17/2010 7:29 PM  

चलना ही जीवन है ऊबड खाबड रास्तों पर तो पैदल ही चलना पडता है काँटों कंकरों के बीच राह बनाते हुये। अच्छी लगी रचना। शुभकामनायें।

आपका अख्तर खान अकेला 11/19/2010 10:14 AM  

bahn sngitaa ji aadaab rel ki do ptriyaan or zindzindgi kaa jo flsfaa aapne btaaya he voh to sch dil ki ghraaiyon ko chune vala he apne shikaayt ki ke aap kvita nhin sngitaa hen pehle to bhul yaa glti ke leyen binaa shrt maafi dusre mzaaq men hi shi lekin sch bat bhi he ke aap sngitaa bhn hi shi lekin kvitaa achchi hi nhin bhut achchi likh rhi hen isliyen hmaare liyen to ap kvitaa bhn hi ho gyiv vese bhi sngit ko shbd kvitaa se hi milti he . akhtar khan akela kota rajsthan

Anonymous,  11/20/2010 12:22 AM  

एकदम सही कहा आपने, ज़िन्दगी अपना गंतव्य पा ही जाती है. पटरियां हों न हों, सामानांतर हों न हों, ज़िन्दगी तो बिना रुके चलती ही जाती है और इसी लिए अपना गंतव्य भी पा ही जाती है.

Manju Mishra

VARUN GAGNEJA 11/21/2010 4:52 PM  

संगीता जी, उर्दू में कहूँ तो ला-अलफ़ाज़ कर दिया है आपने. समानांतर रेखाओं पर चलने वाली ज़िन्दगी एक रेलगाड़ी से बेहतर नहीं हो सकती. गंतव्य तो पा ही जाना है लेकिन गंतव्य तक पहुँचने का रास्ता अगर आप खुद बनाएं तो ही आप खुद को ईश्वर कि उत्कृष्ट रचना कहलाने के लायक समझेंगे. अच्छी कविता के लिए बधाई स्वीकार करें

राजकुमार सोनी 11/21/2010 5:04 PM  

एक सार्थक संदेश छिपा है आपकी रचना में
आपको बधाई

कविता रावत 11/23/2010 5:15 PM  

वक्त ज़रूरत पर
गाड़ी स्वयं ही
संतुलित करती है
अपने पहियों को
और दौड जाती है
बिना पटरियों के भी .
ज़िंदगी भी तो
अपना गंतव्य
पा ही जाती है .....
....bahut sundar arthpurn rachna ..aabhar

palash 11/25/2010 12:20 PM  

बहुत ही सार्थक और संदेश देती रचना ।

ASHOK BAJAJ 11/28/2010 4:36 PM  

सुन्दर रचना !

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