यवनिका गिरने को है ..
>> Tuesday, November 30, 2010
तेरे आकाश में
कहीं छिपा है
मेरे आकाश का
एक नन्हा सा टुकड़ा
अपने ख़्वाबों
और ख्यालों को
पतंग बना
उड़ा दिया है
अपने आसमान में
और पकड़ रखी है
डोर बड़ी मजबूती से
पर फिर भी
दे देती हूँ ढील कभी
तो लहरा कर
कट जाती है कोई पतंग
और मैं रह जाती हूँ
मात्र डोर थामे
निर्निमेष देखती हूँ
उस पतंग को
धरती पर आते हुए
तुम्हारे विस्तृत अम्बर में
नहीं है शतांश भी
मेरी पतंगों के लिए
मैं तुम्हारे आसमान में
अपना आसमां ढूँढती हूँ
अब तो डोर भी थामे
थकने लगी हूँ
बस
यवनिका गिरने को है ..
75 comments:
ओह!आपने तो निशब्द कर दिया ……………एक बेहद भाव मयी रचना……………दिल को कहीं गहरे तक छू गयी ।
तुम्हारे विस्तृत अम्बर में
नहीं है शतांश भी
मेरी पतंगों के लिए
मैं तुम्हारे आसमान में
अपना आसमां ढूँढती हूँ
अब तो डोर भी थामे
थकने लगी हूँ
बस
यवनिका गिरने को है ..
गहन भावनाओं से ओतप्रोत एक मर्मस्पर्शी प्रस्तुति..आभार
शब्द - शब्द मन के तारों को झंकृत करने वाला है.
सुन्दर भाव प्रवण कविता .विस्तृत फलक पर आसमान की रोचक ऊँचाई को छूती अभिव्यक्ति , मन गदगद हुआ .
आप की कविताओं में ना जाने क्यू एक किस्म का रहस्यवाद झलकता है. जाने अनजाने में महादेवी वर्मा और मीरा के अक्स उभर कर आँखों से गुज़र जाते है.
अजी कौन सी यवनिका गिरने वाली है, अभी तो आकाश में एक पतंग उडायी है और न जाने कितनी उडाएंगे। बस दूसरों की काटते भी रहो। यही जीवन है। बढिया कविता है।
तुम्हारे विस्तृत अम्बर में
नहीं है शतांश भी
मेरी पतंगों के लिए
मैं तुम्हारे आसमान में
अपना आसमां ढूँढती हूँ
अब तो डोर भी थामे
थकने लगी हूँ
बस
यवनिका गिरने को है ..
मुझे पता है, नहीं गिरने देंगी आप यवनिका...अंत में तो जैसे चरमरा गया आसमान...
बहुत बहुत बहुत बढ़िया...!
behad khubsurat ji...
kunwar ji,
दीदी,
सहज हमारे विचारों के सम्मान का आश्रय ढूंढती भावाभिव्यक्ति!!
अद्भुत बिंब, अनुत्तर शिल्प!!
अभिनंदन!!
sangeeta ji , aapki unchaai ke aage sar jhuka liya hai aaj
जब एक यवनिका का अन्त होता है,
तब अनेक यवनिकाएँ जन्म लेती हैं!
यही तो स्रष्टि का क्रम है जो अनवरतरूप से अनन्त काल से चल रहा है और चलता रहेगा!
--
आपको भावनाएँ बेजोड़ हैं!
और हों भी क्यों नही!
मन पाखी तो हमेशा अनन्त उड़ान पर रहता है!
तेरे आकाश में
कहीं छिपा है
मेरे आकाश का
एक नन्हा सा टुकड़ा
अपने ख़्वाबों
और ख्यालों को
पतंग बना
उड़ा दिया है
अपने आसमान में
और पकड़ रखी है
डोर बड़ी मजबूती से
पर फिर भी
दे देती हूँ ढील कभी
तो लहरा कर
कट जाती है कोई पतंग
अद्भुत...
मुझे शब्द तो नहीं मिल रहे फिर भी कहूँगी जरुर .जाने कहाँ से ख्यालों को इतने अच्छे शब्द मिल जाते हैं आपके .
एक एक शब्द जैसे मन की तह तक जाता है ..
यवनिका गिरने को है .....
जहाँ ये शब्द मुझे बहुत प्यारा लग रहा है वहीँ इसका गिरना नहीं अच्छा लग रहा :) और गिरने देंगे भी नहीं हम :)
दिल को छू लेने वाली मर्मस्पर्शी कविता!निश्चिन्त रहिये अभी ये यवनिका नहीं गिरने वाली.
सादर
हर लफ्ज़ में गहराई ... वाह !! क्या बात है ..
कई महाकाशों के बीच बिखरा मेरा भी आकाश।
आपकी लेखनी को नमन...इस अद्भुत रचना के लिए बधाई स्वीकार करें...
नीरज
बहुत सुंदर..!!
निःशब्द कर दिया आपने...
संगीता दी, इस निशब्द करती अर्थपूर्ण रचना, के लिए आभार.
awwwwww...........
bohot hi pyaari aur touching rachna hai...tooooo sweet,aur bohot karun bhi hai
beautiful
संगीता जी आज की इस अनुपम, अनमोल, अद्वितीय रचना ने विभोर कर दिया ! बेहद नाज़ुक और खूबसूरत भाव और उनसे भी बढ़ कर बेजोड़ और बेहतरीन अभिव्यक्ति ! आनंद आ गया ! बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं ! इसी तरह लिखती रहिये और हमारी सुख संपदा को समृद्ध करती रहिये ! आभार !
यवनिका गिरने को है, यह शीर्षक पढ़कर ब्लॉग में आई, पूरी कविता पढ़कर तो मैं निशब्द रह गयी.भावनाओं का इतना खूबसूरत संयोजन देख कर मन भर आया. आपको कुछ कहना कम होगा,आप बहुत ही अच्छा लिखती है.
ला-अलफ़ाज़ हूँ. कुछ सूझ नहीं रहा कहने को. निदा फाजली साहब की दो पंक्तिया ज़हन में शोर मचा रहीं हैं
यूँ ही होता है सदा हर चूनर के संग,
पंछी बन कर धुप में उड़ जाता है रंग
संगीता जी
देरी के लिए माफ़ी...
इतने कम समय में आपकी कविताओं पर इतनी टिप्पणियाँ हो जाती हैं कि लगता है बहुत देर कर दी मैंने आने में...
खैर बहुत ही अच्छी कविता....
कई बार पढने का मन किया....
मेरे ब्लॉग पर..
मुट्ठी भर आसमान...
बहुत ही भावपूर्ण रचना ....आभार
ओह!!!!!फिर मेरी गैर हाजिरी लगा दी ?????? अजी मैं देर से थोड़े ही आई हूँ. खो गई हूँ
"तुम्हारे विस्तृत अम्बर में "
महादेवी याद हो आयीं -विस्तृत नभ का कोई कोना
मेरा न कभी अपना होना .....
लाजवाब....
शुभकामनायें एवं आभार |
इस कविता में संगीता जी पतंग, डोरी, आसमान आदि चित्रों की सहायता से आपने एक ऐसा चलचित्रात्मक प्रभाव उत्पन्न किया है जो पाठक को शुरू से अंत तक बांधे रखता है।
इसे पढ़कर ऐसा लगा मानों कवयित्री की अनुभूति, सोच, स्मृति और स्वप्न सब मिलकर काव्य का रूप धारण कर लिया हो। मन और विचार कहीं ऊपर से चिपकाए नहीं लगते, इसलिए कविता में कई पैबंद या झोल नहीं है।
बहुत भाव भरी रचना.
लेकिन एक जज्बा यह भी ले कर चलना चाहिए जब आकाश से बाते करने चले हैं तो ...की दूसरों की पतंग को भी काटेंगे...और अपनी भी कट सकती है.
हम भी इंतज़ार है यवनिका के लेकिन गिरने के नहीं उठने के.
कट जाती है कोई पतंग
और मैं रह जाती हूँ
मात्र डोर थामे
निर्निमेष देखती हूँ
dl ko chhoo lene waali sundar paktiyan!....abhinandan!
पढ़ कर मज़ा आ रहा था.....मगर अंत में यवनिका ने पटाक्षेप कर दिया.
कविता निर्बाध लिखे...कुछ ब्लॉग हैं जिनका इंतज़ार रहता ही कि उसपर कोई पोस्ट आये, उनमे से एक आपका है.....
सुन्दर है..
संगीता दी! आज तो आपने ख्यालों कि बहुत ऊंची पतंग उडाई है. मुझे तो लगता है आँगन वाले निम् पे जाके अटका होगा ख्वाब!
बहुत खूबसूरत भाव!!
बहुत भावपूर्ण रचना !
हर दृश्य, हर प्रसंग का पटाक्षेप होना तो निश्चित है, यवनिका भी गिरती है लेकिन यवनिका गिरने के बाद के भाव और स्मृतियाँ अमर हो जाएँ ये हमें तय करना होता है,
"अपने ख़्वाबों / और ख्यालों को /पतंग बना /उड़ा दिया है /अपने आसमान में" बिल्कुल सही अपने ख़्वाबों और ख्यालों को आसमान तो देना ही होगा उन्हें इतना विस्तृत करने के लिए कि वो अनंत हो जाएँ, और रहा सवाल " लहरा कर/ कट जाती है कोई पतंग/ और मैं रह जाती हूँ/ मात्र डोर थामे / निर्निमेष देखती हूँ / उस पतंग को /धरती पर आते हुए" तो ऊंचाइयों की राह में ये तो होगा ही लेकिन उस से तो जूझना ही होगा और इस जूझने की प्रेरणा आपकी आप की रचनाओं में अक्सर दिखती है . आपकी ही एक रचना "पीड़ा से लड़ना /मैंने सीखा है / पीड़ा को दास / बनाना सीखा है/ फिर मैं / पीड़ा से कैसे/ डर जाऊं/ जब उस पर / अधिकार जमाना / सीखा है " या फिर "पलकों पर बाँध बनाना सीखा है" मैंने कई बार पढ़ी है और हर बार पहले से जादा ऊर्जावान लगी है
मंजु
सभी पाठकों का हृदय से आभार ....
मंजु ,
तुम्हारी टिप्पणी पा कर सच ही धन्य हो गयी ....क्यों कि मेरी रचनाएँ इतनी गहराई से पढ़ीं हैं ..और उनको याद भी रखा है ....यह मेरे लिए आश्चर्य के साथ सुखद अनुभूति है ....मेरी रचनाओं को याद दिलाने का शुक्रिया ..मुझे भी नयी उर्जा मिली ....आभार
संगीता जी
विह्वल कर दिया आपने .पतंगें उड़ेंगी ,डोर भी कटेगी ,पर जब तक दिन की यवनिका गिरती नहीं खेल चलेगा .और कब तक सारा आकाश हमारी पहुँच में !
अपने ख़्वाबों
और ख्यालों को
पतंग बना
उड़ा दिया है
बेहतरीन रचना!
तुम्हारे विस्तृत अम्बर में
नहीं है शतांश भी ..
अनूठे बिम्बों से सजी है ...
आपकी कविता पर महादेवी का स्मरण ...
और कहने को बाकी क्या ...!!
यवनिका नहीं गिरेगी ...
पतंग उडती रहेगी ...
डोर फिर से बंधेगी ...
दुआ यही रहेगी ...
आभार एवं शुभकामनायें !
दिल को छू लेने वाली कविता पेश करके का शुक्रिया
संगीता जी , सुन्दर कल्पना मेँ जज्बातोँ से भरी सुन्दर कविता।
कट जाती है कोई पतंग
और मैं रह जाती हूँ
मात्र डोर थामे
निर्निमेष देखती हूँ
कभी-कभी..ऐसा भी महसूस होता है..पर यवनिका को तो थामे रखना है, गिरने नहीं देना......बहुत ही भावपूर्ण कविता
"main tumhare aasman me apna aasman dhoondhti hoon .....
....................
........yavanika girne ko hai"
antastal ko chhooti huyee marmik rachna hai apki...
Sundar...! hai sangeeta ji aapki likhi panktiyaan
~yagya
ख़ूबसूरत और भावपूर्ण रचना जिसके बारे में जितना भी कहा जाए कम है! लाजवाब प्रस्तुती!
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति
ma'm kya kahu..
shabd kam pad jaate hain..waakai bahut sundar rachna!
aadar-
ROHIT
bahut sunder bhavo kee abhivykti.......
charger problem thee .vilamb ke liye khed hai.....
भावप्रवण कविता.......लाजवाब अभिव्यक्ति...
अब तो डोर भी थामे
थकने लगी हूँ
बस
यवनिका गिरने को है ..
यवनिका गिरने से पहले ही शायद वह कटा पतंग फिर वापस आ जाये और एक नयी उड़ान को तत्पर हो जाये
भावनाओं को पिरोने में आपका कोई सानी नही है
भावनाओं की बहुत प्यारी अभिव्यक्ति कर पाना हर किसी के वश में नहीं ! शुभकामनायें स्वीकारें संगीता जी !
mumma...mumma...mummaaaaa..........
muaaaahhhhhhhhh
ek dum jabardast ...ek dam zabardast nazm hai ...
hatssssssss offffffffff ...standingovation .... taliyaan ...sab kuch
तेरे आकाश में
कहीं छिपा है
मेरे आकाश का
एक नन्हा सा टुकड़ा
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति ....!
मैं तुम्हारे आसमान में
अपना आसमां ढूँढती हूँ
अब तो डोर भी थामे
थकने लगी हूँ
जीवन दर्शन को बहुत कलात्मक ढंग से आपने शब्दों में पिरोया है।
अति सुंदर कल्पना-
और उतनी ही सुंदर अभिव्यक्ति-
बधाई
हिन्दी ब्लागजगत की आप जैसी चिर-परिचित व्यक्तित्व ने मेरे शिक्षणकाल के ब्लाग "नजरिया" पर आकर अपनी अमूल्य टिप्पणी से मेरा मार्गदर्शऩ व उत्साहवर्द्धऩ किया उसके लिये आपको विनम्र धन्यवाद...
अलग विषय से सम्बद्ध मेरे अन्य ब्लाग "स्वास्थ्य-सुख" भी आपके अवलोकन व आशीर्वचन के साथ ही आपके अमूल्य समर्थन का भी अभिलाषी हैं । कृपया ऐसे ही अपने बहुमूल्य सुझावों के साथ अपना स्नेह बनाए रखें । पुनः धन्यवाद सहित...
ओह...क्या लिखा है आपने...
निःशब्द कर दिया...
संगीता जी,
पतंग और आसमान भले ही उंचाई की बातें करें मगर मुझे तो आपकी कविता में वो गहराई दिखी जहाँ भावनाएं अभिव्यक्ति को संप्रेषित करने के लिए अपने आकाश का स्वयं निर्माण करती हैं !
इतनी भावपूर्ण रचना के लिए धन्यवाद !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
60 logon ki bhavanaye kah rahi hai ki kavita dil ko chhoo gai hai.
mam sader pranam ,
a truly written by heart.Very brilliant mind blowing poetry . thanks a lot.Again in wait for next brilliancy .
संगीता जी आपकी बिम्ब और शब्दयोजना अभिभूत कर गई। बधाई।
---------
ईश्वर ने दुनिया कैसे बनाई?
उन्होंने मुझे तंत्र-मंत्र के द्वारा हज़ार बार मारा।
kitna sunder likhtin hain aap.padhkar bahut achcha lagta hai.
कट जाती है कोई पतंग
और मैं रह जाती हूँ
मात्र डोर थामे
यह पंक्तियाँ बहुत अच्छी लगीं....
कविता बहुत अच्छी लगी...
आपकी रचनाएँ बहु आयामी और आन्तरिक सौन्दर्य से आलोकित हैं, शब्द कभी कभी शून्य हो जाते हैं, प्रतिक्रिया देते हुए, बस यही होता आपकी रचनाओं को पढते हुए/ अभिनन्दन, नमन सह /
बहुत खूब .. यवनिका गिरने को है .... पर आकाश उस पतनक को थामेगा नहीं ... अपने फैलाव में वो किसी को नहि देखता ..
bahut hi marm sparshi rachna dil ko kahin gahhre tak chhoo gai .is bebhau purn prastuti ke liye aapko bahut bahut badhai.
तुम्हारे विस्तृत अम्बर में
नहीं है शतांश भी
मेरी पतंगों के लिए
मैं तुम्हारे आसमान में
अपना आसमां ढूँढती हूँ
अब तो डोर भी थामे
थकने लगी हूँ
बस
यवनिका गिरने को है
poonam
"मैं" का विलोप न होने से उत्पन्न स्थिति। जीवन की आपाधापी में थोड़ा वक्त अपने लिए निकालना ज़रूरी ताकि सहचर बनने की पात्रता हासिल हो।
तुम्हारे विस्तृत अम्बर में
नहीं है शतांश भी
मेरी पतंगों के लिए
मैं तुम्हारे आसमान में
अपना आसमां ढूँढती हूँ
अब तो डोर भी थामे
थकने लगी हूँ
बस
यवनिका गिरने को है ..
.......
बहुत ही भावमयी रचना . शुभकामना.
मेरा कमेन्ट कहाँ गुम हो गया??
मेरे कमेन्ट्स भी नही दिखे? इतनी अच्छी कविता के कैसे रह सकती है पढने से? शुभकामनायें।
'यवनिका गिरने को है'. इस कविता का इससे उपयुक्त शीर्षक नहीं हो सकता , आपके शब्द अत्यधिक प्रभावी हैं . मेरा प्रणाम स्वीकार करें.
आपको मेरी कविता पसंद आयी,इसके लिए कोटिश: धन्यवाद. चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर मेरी रचना छपने के लिए मैं आपका आभारी हूँ और उपकृत भी. आपके सुझाव मेरे संबल हैं .अत: कृपा बनाये रखें . यदि ब्लॉग फ़ॉलो कर सकें तो मेरे लिए अत्युत्तम होगा !
रचना एक गहन भाव लिए है...पतंग आकाश में उपर तो जाते है पर हमेशा कटने का डर रहता ही है....संगीता जी बढ़िया रचना..बधाई
Post a Comment