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पिघलता पत्थर

>> Wednesday, July 27, 2011




अमावस सी ज़िंदगी में 
अचानक ही 
छिटक गयी चाँदनी 
एक बादल की ओट से 
निकलते हुए 
चाँद ने कहा 
क्यूँ मायूस हो ? 
मैं हूँ न ..
और यह कह 
मुस्कुरा दिया 
मैं खो गयी 
उस मुस्कान में 
उसकी स्निग्ध शीतलता ने 
जैसे दग्ध मन पर 
रख दिए 
बर्फ  के फाहे 
और 
पिघलता रहा 
बूँद बूँद 
जो हृदय 
पत्थर हो चला था ...


उम्मीद और वेदना ....

>> Thursday, July 21, 2011


अपेक्षाओं और 
दायित्वों के बीच 
झूलता जीवन 
बन जाता है 
उपेक्षा का पात्र , 

इसीलिए मैं ,
तोड़ देना चाहती हूँ 
वो सारी उम्मीदें 
जो किसी ने भी 
कभी भी करीं थीं 
मुझसे ,
क्यों कि, 
मैं जानती हूँ 
उम्मीद ही है 
जो जन्म देती हैं 
तृष्णाओं को , 
निराशा को ,
यहाँ तक कि 
गहन वेदना को .

नहीं चाहती मैं 
कि कोई भी 
हो व्यथित 
मेरे कारण 
और लगाए 
मुझसे कोई उम्मीद ...



चंदा मामा दूर के

>> Monday, July 18, 2011


 

आज कल
चाँद मेरे घर 
रोज आता है 
और 
अपनी चांदनी से 
रोशन कर देता है 
कोना - कोना 
चांदनी में होती है 
भोली सी मुस्कान 
जो देती है मुझे 
मेरी पहचान 
उस मुस्कान को 
भर अपनी आँखों में 
झुलाती हूँ मैं उसे 
अपनी बाहों में , 
और चाँद 
उस समय 
बनाता है 
पुए बूर के 
पुए का इंतज़ार 
करते करते ही 
वो मुस्कान 
सो जाती है 
मेरी गोद में 
और मैं कह उठती हूँ 
चंदा मामा दूर के 
पुए पकाएं बूर के ...




लो बरखा बहार आई

>> Monday, July 11, 2011




अम्बुद से झर झर कर 
अम्बु बूँद आती है 
धरती की ज्वाला को 
शीतल कर जाती है 
चहुँ ओर धरा पर 
तब हरीतिमा छायी 
लो देखो देखो अब 
बरखा बहार आई 






पात पात सब 
धुले धुले से  हैं 
कलरव करते पंछी 
उन्मुक्त  हुए से हैं 
प्रकृति भी अब 
भीग भीग मुस्काई 
लो देखो देखो 
बरखा बहार आई .


 थे जो सूखे ताल-तलैया 
अब जल से प्लावित हैं 
बाल वृन्द भी देखो 
अपनी नावों के नाविक हैं 
कितनी ही कागज़ की नावें 
पोखर में हैं तैराई 
लो देखो देखो 
बरखा बहार आई .


रिम झिम रिम झिम सी फुहार 
बिरहन की आँखों ने बरसाई 
तीव्र वेदना की लकीर 
उसके चेहरे पर खिंच आई 
प्रिय मिलन की आशा में 
उसकी आँखें भी मुस्काईं 
लो देखो देखो अब 
बरखा बहार आई ..






सूखी हुई ख्वाहिशें

>> Monday, July 4, 2011


Lonely dry tree..............Magányos száraz fa


ज़िन्दगी का दरख्त 
हो गया है ज़र्जर 
समय की दीमक ने 
कर दी हैं जड़ें खोखली 
तनाव के थपेड़ों ने 
झुलस दी है छाल 
ख्वाहिशों के पत्ते 
अब सूखने लगे हैं 
और झर जाते हैं 
प्रतिदिन स्वयं ही .

परिस्थितियों की आँधियाँ 
उड़ा  ले जाती हैं दूर 
और जो बच जाते हैं 
कहीं इर्द - गिर्द 
उन पर अपनों के ही 
चलने से होती है 
आवाज़ चरमराहट की 
उस आवाज़ के साथ ही 
टूट जाती हैं सारी उम्मीदें 
और ख़त्म हो जाती हैं 
सूखी हुई ख्वाहिशे .

Dry Tree at Sunset - Natal, Rio Grande do Norte

हमारी वाणी

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