लेखनी को चाहिए अब अंगार
>> Tuesday, May 18, 2010
मच रहा है
चहुँ ओर
हाहाकार
लेखनी को चाहिए
अब अंगार
एक धमाके से
कितनी ही जाने
हो रहीं निसार
और कान में तेल दिए
बैठी है सरकार
अपने ही कर रहे
पीठ पीछे वार
लेखनी को चाहिए
अब अंगार .
व्यवस्थाएं सब जैसे
चरमरा गईं
सहिष्णुता भी सबकी
है भरभरा गयी
रोज़ ही
होते हैं लोग
हादसों के शिकार
लेखनी को चाहिए
अब अंगार .
जल रहा हर क्षेत्र है
अब इस देश का
लहरा रहा परचम
है व्याभिचार का
छाद्मधारी
वेश धारण कर
विकास का कर रहे
बस झूठा प्रचार
लेखनी को चाहिए
बस अंगार ......
25 comments:
अपने ही कर रहे
पीठ पीछे वार
लेखनी को चाहिए
अब अंगार.
संगीता जी
सादर
आपकी लेखनी में धार है
आपकी लेखनी में अंगार है
सही कह रही हैं आप संगीता जी………………शायद अब लेखक और कवियों को ही कलम उठानी पडेगी…………………जब तलवार सरकार उठाना ना चाहे तो कलम का वार ही करना पडेगा।ऐसी ही धार की जरूरत है।
आज का सच बयाँ करती सुन्दर रचना !
बस्तर के जंगलों में नक्सलियों द्वारा निर्दोष पुलिस के जवानों के नरसंहार पर कवि की संवेदना व पीड़ा उभरकर सामने आई है |
बस्तर की कोयल रोई क्यों ?
अपने कोयल होने पर, अपनी कूह-कूह पर
बस्तर की कोयल होने पर
सनसनाते पेड़
झुरझुराती टहनियां
सरसराते पत्ते
घने, कुंआरे जंगल,
पेड़, वृक्ष, पत्तियां
टहनियां सब जड़ हैं,
सब शांत हैं, बेहद शर्मसार है |
बारूद की गंध से, नक्सली आतंक से
पेड़ों की आपस में बातचीत बंद है,
पत्तियां की फुस-फुसाहट भी शायद,
तड़तड़ाहट से बंदूकों की
चिड़ियों की चहचहाट
कौओं की कांव कांव,
मुर्गों की बांग,
शेर की पदचाप,
बंदरों की उछलकूद
हिरणों की कुलांचे,
कोयल की कूह-कूह
मौन-मौन और सब मौन है
निर्मम, अनजान, अजनबी आहट,
और अनचाहे सन्नाटे से !
आदि बालाओ का प्रेम नृत्य,
महुए से पकती, मस्त जिंदगी
लांदा पकाती, आदिवासी औरतें,
पवित्र मासूम प्रेम का घोटुल,
जंगल का भोलापन
मुस्कान, चेहरे की हरितिमा,
कहां है सब
केवल बारूद की गंध,
पेड़ पत्ती टहनियाँ
सब बारूद के,
बारूद से, बारूद के लिए
भारी मशीनों की घड़घड़ाहट,
भारी, वजनी कदमों की चरमराहट।
फिर बस्तर की कोयल रोई क्यों ?
बस एक बेहद खामोश धमाका,
पेड़ों पर फलो की तरह
लटके मानव मांस के लोथड़े
पत्तियों की जगह पुलिस की वर्दियाँ
टहनियों पर चमकते तमगे और मेडल
सस्ती जिंदगी, अनजानों पर न्यौछावर
मानवीय संवेदनाएं, बारूदी घुएं पर
वर्दी, टोपी, राईफल सब पेड़ों पर फंसी
ड्राईंग रूम में लगे शौर्य चिन्हों की तरह
निःसंग, निःशब्द बेहद संजीदा
दर्द से लिपटी मौत,
ना दोस्त ना दुश्मन
बस देश-सेवा की लगन।
विदा प्यारे बस्तर के खामोश जंगल, अलिवदा
आज फिर बस्तर की कोयल रोई,
अपने अजीज मासूमों की शहादत पर,
बस्तर के जंगल के शर्मसार होने पर
अपने कोयल होने पर,
अपनी कूह-कूह पर
बस्तर की कोयल होने पर
आज फिर बस्तर की कोयल रोई क्यों ?
अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त साहित्यकार, कवि संजीव ठाकुर की कलम से
बहुत ही सामायिक कविता ..आक्रोश,दर्द सब झलक रहा है ..एक एक शब्द दिल से निकला हुआ..बेहद प्रभावी कविता.
"छाद्मधारी
वेश धारण कर
विकास का कर रहे बस झूठा प्रचार"
इस बार किया आपने करार प्रहार!
ऐसा रूप आपका देखा पहली बार!
जी बहुत सुन्दर,हर बार की तरह...
कुंवर जी,
सभी पाठकों का आभाए....
संजीव जी,
आपकी प्रस्तुति मन को हिला गयी....बहुत बहुत शुक्रिया
वाह क्या बात है , हमेशा की तरह इस बार भी दिल से निकली आवाज ।
नवगीत लिखने बहुत अच्छी कोशिश है!
--
बौराए हैं बाज फिरंगी!
हँसी का टुकड़ा छीनने को,
लेकिन फिर भी इंद्रधनुष के सात रंग मुस्काए!
इस पोस्ट में बहुत धार है.... बहुत अच्छी लगी यह पोस्ट....
sahi kaha kalam ko talvaar banan hi hoga...
बहुत सुन्दर तरीके से देश कि समसामयिक हालत पर रचना प्रस्तुत की गयी है ... बधाई !
बेहद प्रभावी कविता
भावावेग की स्थिति में अभिव्यक्ति की स्वाभाविक परिणति दीखती है।
बहुत ही प्रभावी कविता है...अंगारा बनने का आह्वान सचमुच जरूरी है...बहुत ही मन को उद्वेलित करने वाली रचना
मुझे याद आता है एक बार आपकी एक रचना पढ़ी थी जिसमे इसी तरह से आपने लिखा था... कि हम कलम के सिपाही भी कुछ कर सकते है...जहाँ नेता और व्यवस्था सब भ्रष्टाचार के पुजारी हो जाये तो कलम में इतना दम है कि हम अपनी बात सब गुंगो बहरो तक पहुचाये और तख्ता पलट करने कि हिम्मत दिखाए..
आज जरुरत है लेखनी में शोले भर देने की...बहुत अच्छा सन्देश देती आपकी रचना. बधाई.
ojsvi kvita sachmuch aaj isi angar ki jrurat hai dhar bnaye rkhe
abhar
सामायिक कविता..बहुत अच्छी लगी !
ओजस्वी कविता, समय कि मांग के अनुरूप, दिनकर जी याद आये.
Cash-much aaj talwaar chaahiye .. angaar chaahiye ... maanavta ke shatruon ka vinaash chaahiye .. oz se paripoorn rachna ...
.बेहद प्रभावी कविता.
सिंहासन पर बैठी नही लाश चाहिए!
आज मेरे देश को सुभाष चाहिए!!
ye dhaansu hai mumma... ispe ek baar comment karte hue phon aa gaya..hehe...:( ek dum jalti hui nazm hai ... :)
अकेले शासन और प्रशासन को दोष कहां यहां तो चाहे गण हो चाहे तंत्र चाल और चरित्र सबका बिगड़ा है।हम अपने को संभालेँ और पड़ोसी को खंगालेँ,हर और आपाधापी है।किसी को मिले न मिले सब सुविधाएं जैसे तैसे मुझे तो मिल ही जाए; यह विचार चहूं ओर विस्तार ले रहा है।ऐसा चाहते समय हम मेँ मेँ से कोई यह नहीँ सोचता कि इस क्रिया से किसी के अधिकारोँ का हनन और अतिक्रमण हो रहा है।ऐसे मेँ व्यवस्था कैसे बदले? खैर!आपकी कविता सराहनीय है।बधाई!
ये कलम ही मुर्दों में जान , कायरों में साहस , निस्तेज में तेज और निःशक्त में शक्ति भरने में सक्षम है. इतिहास साक्षी है कि किसी भी क्रांति के लिए तलवारों की नहीं शब्दों की शक्ति अधिक जरूरी है. पर अब तो भ्रष्ट तंत्र इस कलमकी धार को भी तोड़ने का काम करने लगा है. फिर भी कितनी धारों को भोंथरा करेंगे. जब सब अंगार उगलेंगी तो उसकी तमस स्वाहा करने कि शक्ति भी रखती है.
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