मात्र एक डोर
>> Saturday, May 1, 2010
कल्पना की पतंग
सोच की डोर से बाँध
उड़ा दी थी मैंने
अनंत में |
पर तुम्हारी
सोच के मांझे ने
काट दी थी
मेरी डोर
धराशायी होते हुए
पतंग मेरी
अटक गयी थी
समाज रुपी
बिजली के तारों में
जहाँ वो
परम्पराओं के
थपेडों को
सहते हुए एक दिन
ध्वस्त हो जायेगी
फिर नहीं मिलेगा
उसका कोई भी
ओर - छोर
और रह जायेगी
मेरे हाथ में
मात्र एक डोर |
32 comments:
बेहतरीन रचना है ... कितने सुन्दर भाव को आपने इतने सहज शब्दों में कह दिया ... बधाई !
bahut sunder abhivykti......
बेहतरीन रचना...
कल्पना की पतंग
सोच की डोर से बाँध
उड़ा दी थी मैंने
अनंत में |
----
डोर से डोर जब उलझते हैं
तो फिर कहाँ सुलझते हैं
उम्दा, बेहतरीन, खूबसूरत, भावपूर्ण, एहसासमयी ---- रचना
क्यों न उस पतंग को
उन बिजली की तारो से
सुलझा लिया जाये
चलो फिर से एक बार
नयी सोचो की डोर से
बाँध दिया जाये..
एक ऊँची उड़ान
की दूर क्षितिज
तक जाने की
चाहत में..
चलो
एक साथ मिल कर
एक बार फिर
अपनी मंजिल
को ढूंढा जाये.
जहाँ न तुम
महसूस करो
खुद को
बिंधा हुआ..
ना मै
किसी मांझे
से काटू.
एक नयी सोच, एक नयी उम्मीद के शब्द देने की बस कोशिश मात्र है...उम्मीद है आपको पसंद आये आपकी रचना का ही जवाब.
शुभकामनाये.
अनामिका ....
अब ये तो आप ही लिख सकती हैं ना..कवि मन जो है....पर मेरी सोच कि डोर काटने वाला मांझा तो अपना हुनर दिखा ही देता है ना....आपकी प्रस्तुति बहुत पसंद आई...शुक्रिया ...
सभी पाठकों का आभार
आपकी कविता के साथ-साथ आपकी सोच भी सार्थक है!
waah.......sahi kaha aapne
is soch ki udaan lambi ho
परम्पराओं के अधीन दम तोड़ते ज़ज्बातों की व्यथा
डोर से डोर जब उलझते हैं
तो फिर कहाँ सुलझते हैं
बहुत ही गहरी बात कह दी.,इन पंक्तियों में...बहुत ही बढ़िया अभिव्यक्ति
लाजवाब प्रस्तुती ......
ड़ोर को बहुत ही खूबसूरती से प्रस्तुत किया है आपने...
kya solid solid bhari bharkam upmayen hain is nazm me mumma...khatarnaak roop se dhansu hai nazm to ... :)aur ek dum sahi bhi hain .. :)
कल्पना की पतंग उड़ान भरती उन्मुक्त गगन में ...
तुम्हारी सोच के मांझे ने की लाख कोशिशें ...
धराशायी होने से पहले मैं जोड़ दूंगी कई कल्पनों को ...
सोच की विभिन्न चर्खियों से ...
कहाँ तक काटोगे डोर ....
क्या कहती है आप ...??
वाह सुंदर भावाभिव्यक्ति साधुवाद
shandar.................
kya kahun aapki tarif kaise krun.
its nice..............
वाणी जी ,
अब क्या कहूँ?
आपकी भावनाओं ने हौसला दिया... शुक्रिया
काश कि,
सोच की
चर्खियां होतीं
जिसमें
मांझे के साथ
डोर भी लिपट
गयी होती...
आपने अपनी टिप्पणी से एक नयी सोच दी है....बहुत अच्छा लगा.शुक्रिया
सभी पाठकों का आभार
bahut khub
badhai is ke liye aap ko
बहुत बढिया भावाव्यक्ति। आपकी रचना चर्चा मंच मे शामिल कर ली गयी है।
maaf kijiyega aaj kal thoda busy rehta hoon to niymit roop se nahi aa pata aapke blog par.....
bahut hi behtareen rachna hai yeh aapki..
hamesha ki hi tarah khubsurat bhaw...
regards
http://i555.blogspot.com/
Adaraneey Sangeeta ji,
Bahut sundar bhavnaon kee behatareena prastuti---achchhee lagee apkee kavitaa.
Poonam
bahut achhi kavita hai Mumma...apni sochon aur sapnon ko lekar chalte hue ek hriday par doosre ki soch ke haavi hone ki gaatha hai.....yun satahi tau par padhein to koi baat nahin magar rachna ki gehrayi mein jaayen to jaane kya kya khaayl ubhar ke aatein hain..:)
Badhiyaan rachna mumma...badhaayi...........:)
सोंच की डोर है तो फिर क्या घबराना..! कल्पना की नई पतंग उड़ायेंगे..
अपने सोंच के मांझे में और धार लायेंगे..
ऐसा भी तो सोंचा जा सकता है..?
बहुत उम्दा सोच लिए बेहतरीन रचना.
बहुत खुबसूरत रचना ...
बेहतरीन प्रस्तुति ......
समाज रुपी
बिजली के तारों में
जहाँ वो
परम्पराओं के
थपेडों को
सहते हुए एक दिन
ध्वस्त हो जायेगी
फिर नहीं मिलेगा
उसका कोई भी
ओर - छोर
और रह जायेगी
मेरे हाथ में
मात्र एक डोर |
उफ्फ्फ !!!! लाजवाब ,कमाल है !!!!!!!!!!!!!!बहुत खुबसूरत रचना ...
बहुत सुन्दर भाव के साथ लाजवाब रचना! बधाई!
हमारी कल्पनाओं की पतंग का यही हाल क्यों होता है दी ? शुकर है डोर तो हाथ मैं रह गई आपके यहाँ तो डोर तक फिसल जाती है...गहरे भाव वाली सुन्दर कविता है मन खुश हो गया आते ही.
और रह जायेगी
मेरे हाथ में
मात्र एक डोर .............
aapki soch ka javab nahi ...laajavab
behad khubsurat rachna...maa'm!
पर तुम्हारी
सोच के मांझे ने
काट दी थी
मेरी डोर
धराशायी होते हुए
पतंग मेरी
अटक गयी थी
समाज रुपी
behtrin rachna hai ye aapki ,ati sundar
बेहतरीन बिंब के मध्यम से अपनी सोच को, ज़ज्बात को लिखा है आपने ... गहरी अभिव्यक्ति है ...
Post a Comment