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नारी मन की थाह

>> Sunday, August 22, 2010



सदियों से करते आए हो

खामोश तुम नारी को

आज भी यही चाहत है

खामोशी के सन्नाटे में

बस तुम्हारी ही आवाज़

गुंजित  रहे ..

सुकून मिलता है तुम्हें

दंभ  अपना दिखा कर

तुम्हारी चाहत के अनुरूप ही

सुर  हमारा बदलता  रहे

ख्वाहिशों को

अंजाम देने के लिए

कभी मनुहार करते हो

पर उसमें भी तो

आदेश का स्वर भरते हो

दिखाते तो हो जैसे

ख़ुशी के इन्द्रधनुष

पर हर धनुष पर

एक बाण भी रखते हो

आहत हो जाती हैं

भावनाएं कोमल मन की

बिखर जाती हैं जैसे

पत्ती - पत्ती किसी गुल की

तुम्हारे अहम् तले पंखुरियां

रौंद  दी  जाती हैं

और नारी फिर भी

उफ़  तक नहीं कर पाती है

जूझती रहती है वो

अपने अंतर्मन से

सिलती रहती है ज़ख्म

सहनशीलता के फ़न  से 

उसके इस फ़न  को तुम

मान लेते हो उसकी  कमजोरी

और समझते रहते हो कि

ये है उसकी मजबूरी

काश -

कभी उसके मन की

पहली पर्त ही खोल पाते

तो नारी के मन की तुम

थाह  ही पा जाते......
 
 
 
 
 

59 comments:

vandana gupta 8/22/2010 12:20 PM  

दिखाते तो हो जैसे

ख़ुशी के इन्द्रधनुष

पर हर धनुष पर

एक बाण भी रखते हो


बेहद खूबसूरत बि्म्ब्॥….….….…यही तो नारी के जीवन की त्रासदी है…॥…….॥….॥कभी पुरुष उसके मन तक् ही नही पहुँच पाता॥….….॥….॥विचारों को खूबसूरती से संजोया है।

चला बिहारी ब्लॉगर बनने 8/22/2010 12:27 PM  

संगीता दी,
आज आपका कविता पर हम अपने आप को समर्थ नहीं पाते हैं... सायद इसीलिए आज हमरा जवाब हमरे गुरु गुलज़ार साहब के सब्दों में लिखने का अनुमति चाहते हैं. नारी के इस ब्यथा का इससे अच्छा चित्रन हमको बहुत कम देखने को मिला है.

आले भरवा दो मेरी आँखों के
बंद करवा के उनपे ताले लगवा दो.
जिस्म की जुम्बिशों पे पहले ही
तुमने अहकाम बाँध रखे हैं
मेरी आवाज़ रेंग कर निकलती है.
ढाँप कर जिस्म भारी पर्दों में
दर दरीचों पे पहरे रखते हो.
फिक्र रहती है रात दिन तुमको
कोई सामान चोरी ना कर ले.
एक छोटा सा काम और करो
अपनी उंगली डबो के रौग़न में
तुम मेरे जिस्म पर लिख दो
इसके जुमला हुकूक अब तुम्हारे हैं.

अऊर आपका कबिता त वैसे भी भाव प्रधान होता है. ई भी है...
सलिल

M VERMA 8/22/2010 12:41 PM  

कभी उसके मन की
पहली पर्त ही खोल पाते
तो नारी के मन की तुम
थाह ही पा जाते......

बहुत सुन्दर रचना.
एहसास की परत दर परत खोलती हुई

प्रवीण पाण्डेय 8/22/2010 12:48 PM  

कभी कभी तो मौन में भी थाह मिल जाती है।

kshama 8/22/2010 12:52 PM  

Aaj ka sach to yahi hai! Pata nahi agali peedhee ke saathye badle to! Wah bhi tabhi jab aurat aatmnirbhar ho....anyatha nahi!

Unknown 8/22/2010 12:58 PM  

आदरणीय दी ....
सदर प्रणाम
आपकी रचना पढ़ी ..
मन को बहुत भाई........
बस आप यूँ ही लिखती रहे ....
नारी मन की व्यथा तो आप ने सही शब्दों से प्रस्तुत किया है....


दिखाते तो हो जैसे

ख़ुशी के इन्द्रधनुष

पर हर धनुष पर

एक बाण भी रखते हो
.....ये पंक्तियाँ बहुत ही प्यारी लगी ...
बहुत कुछ लोगों को बदल सकती हैं

संगीता पुरी 8/22/2010 1:28 PM  

क्‍या खूब लिखती हैं आप .. एक और अच्‍छी रचना के लिए आपको बधाई !!

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 8/22/2010 1:35 PM  

एक और बढ़िया रचना के लिए बधार्ई!
--
इस रचना में तो वन्दना गुप्ता की शैली परिलक्षित होती है!

रेखा श्रीवास्तव 8/22/2010 1:39 PM  

show details 1:38 PM (0 minutes ago)

नारी मन की थाह पाने की फिक्र कब रही है?
उसे तो सीता सी नारी की चाह रही है.
जब चाहा अग्नि में बिठा दिया औ'
जब चाहा परित्यक्ता बना दिया.
गर दुर्गा सी मिल गयी तो फिर,
एक नहीं पूरी की पूरी जाती सुलग उठती है
कभी शक्ति से या कभी धोखे से उसको
शांत कर अपनी इज्जत की खातिर वे
उसके जीने का हक तक छीन लेते हैं.
उसके बाद भी उस के जीवन पर
उनकी उंगलियाँ उठेंगी और उठती रहेंगी.
थाह वे पाते हैं जो समझते हैं इस बात को,
नहीं तो ये सत्ता डगमगाने लगी है
नारी के मुँह में भी जबान आने लगी है.

संगीता बहुत अच्छा लिखा है तो बरबस ये पंक्तियाँ मन में आ गयीं और ये तुम्हारी नजर..........

अनामिका की सदायें ...... 8/22/2010 1:55 PM  

जब एक नारी मन की ही बात लिखी है तो नारी कह ही क्या सकती है. हाँ इतना अवश्य है की अपने मन की सी बात पढ़ नारी अपने मन में अथाह टीस को जरूर महसूस करती है और इस पुरुष प्रधान समाज पर कुंठित होती है.
भावो को बहुत सुंदरता से ढाला है हमेशा की तरह.
सलिल जी की गुलजार वाली कविता भी बहुत अच्छी लगी.

बधाई.

Arvind Mishra 8/22/2010 2:05 PM  

नारी मन और उसकी थाह -एक अतल समुद्र और बिना आक्सीजन मास्क की गोताखोरी :)

شہروز 8/22/2010 2:20 PM  

कभी मनुहार करते हो

पर उसमें भी तो

आदेश का स्वर भरते हो

बेहद प्रभावी पंक्ति !

समय हो यदि तो
माओवादी ममता पर तीखा बखान ज़रूर पढ़ें: http://hamzabaan.blogspot.com/2010/08/blog-post_21.html

Aruna Kapoor 8/22/2010 2:49 PM  

ख्वाहिशों को


अंजाम देने के लिए


कभी मनुहार करते हो


पर उसमें भी तो


आदेश का स्वर भरते हो
संगीताजी आपने तो बस....उन के उपर ऐसा प्रहार किया है कि....क्या कहने!....बहुत बढिया रचना!

मुदिता 8/22/2010 3:19 PM  

दीदी ,
बहुत सुन्दर भावों के साथ सटीक शब्द संयोजन.... नारी मन है ही इतना गहरा कि पुरुष बेचारा क्या करे..... इसीलिए पहली पर्त भी खोलते डरता है.. और इसी डर को छुपाने के कारन तरह तरह के उपद्रव करता है ... हीन भावना उजागर होती है हर कृत्य में... मुझे तो लगता है कि नारी को पुरुष से अपेक्षा करना छोड़ स्वयं के मन में ही गहरे उतरते जाना चाहिए .. और स्वयं को इतना सुदृढ़ बना लेना चाहिए कि किसी बाण का कोई असर ही न हो..नारी मन को पुरुष कभी समझ पाए ऐसे आसार फिलहाल तो लगते नहीं :)

संगीता स्वरुप ( गीत ) 8/22/2010 3:26 PM  

सभी पाठकों का आभार ...

सलिल ,
गुलज़ार साहब कि पंक्तियाँ यहाँ देने का शुक्रिया ...बहुत पसंद आयीं ..,मैंने पहले पढ़ी भी नहीं थीं ...


रेखा जी ,
आपकी सोच को प्रवाह मिला ...और आपने जो पंक्तियाँ लिखीं ..मन को छू गयीं ...आभार

दिगम्बर नासवा 8/22/2010 3:47 PM  

नारी मान की थाह पाना कभी कभी बहुत मुश्किल होता है ... कभी कभी पुरुष समझना ही नही चाहता .... पर यदि इक दूजे को समझें तो जीवन का आनंद कुछ और हो जाए ...

vandana gupta 8/22/2010 4:01 PM  

अपनी पोस्ट के प्रति मेरे भावों का समन्वय
कल (23/8/2010) के चर्चा मंच पर देखियेगा
और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा।

राजकुमार सोनी 8/22/2010 4:14 PM  

फिर धमाका किया है आपने
लेकिन क्या सारे पुरूष ऐसे होते हैं
कुछ नारी मन की थाह लेते हैं
अब कोई थाह लेने ही नहीं देता तो कोई क्या करेगा
रचना जानदार है.

shikha varshney 8/22/2010 4:15 PM  

DI ! purush manmani karta hai kyonki nari esa karne deti hai ,vo use kamjor samjhta ha kyonki vo use kamjor hi dikhti hai.fir kya jarurat o vo nari man ko samjhne kee koshish bhi kare. .
mudita ne thik kaha
khu hi ko kar buland itna ki har takdeer se pajle
khuda bande se kuch puchhe bata teri raza kya hai :)
bahut praabhshali likha hai D!

Udan Tashtari 8/22/2010 5:10 PM  

बहुत भावपूर्ण रचना..प्रभावशाली अभिव्यक्ति.

मनोज कुमार 8/22/2010 6:02 PM  

कविता की भाषा अनावश्यक जटिलता से मुक्त है। आपने सीधे ढंग से अपनी बात कही हैं। यही आपकी कविता का आकर्षण हैं।
बहुत ही प्रभावशाली अभिव्यक्ति।

इस्मत ज़ैदी 8/22/2010 6:22 PM  

बहुत उम्दा रचना ,
बेहद सुंदर भावाभिव्यक्ति
सच तो ये है कि नारी को ,उस की भावनाओं को समझना बहुत आसान है ,वो केवल प्रेम ,स्नेह और इज़्ज़त चाहती है ,अपने प्यार की सार्थकता चाहती है ,क्या ये इतना मुश्किल है?
लेकिन हम पुरुषों को दोष कैसे दें ,जब नारी ही नारी की भावनाओं को न समझ पाए ...........

Akanksha Yadav 8/22/2010 7:15 PM  

बहुत सुन्दर और सशक्त कविता...बधाई.

परमजीत सिहँ बाली 8/22/2010 9:47 PM  

बहुत ही प्रभावशाली अभिव्यक्ति।

36solutions 8/22/2010 10:01 PM  

अथाह... सुन्‍दर प्रस्‍तुति. धन्‍यवाद.

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') 8/22/2010 10:51 PM  

अद्भुत रचना. बधाई.

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' 8/22/2010 10:57 PM  

रचना इतनी प्रभाबशाली है, कि दिल को छू गई...
आपने नारी मन की भावनाओं को बहुत असरदार शब्दों में प्रस्तुत किया है.

स्वप्न मञ्जूषा 8/22/2010 11:12 PM  

बहुत भावपूर्ण रचना..
प्रभावशाली अभिव्यक्ति...!

ब्लॉ.ललित शर्मा 8/23/2010 7:04 AM  

गहराई की थाह लेना साधारण मानव के बस में नहीं है।
कोई कुशल सुजान ही थाह ले सकता है,
जीवन गुजर जाता है सारा,
फ़िर भी लोग नहीं जान पाते एक दूसरे को।

अच्छी कविता
आभार

अजय कुमार 8/23/2010 7:26 AM  

नारी की पीड़ा और पुरुष का दंभ , अच्छी प्रस्तुति ।

वाणी गीत 8/23/2010 7:31 AM  

कहने को बहुत कुछ था अगर कहने पर आते ...
नारी का कितना कुछ कह कर भी अनकहा रह जाता है ....
जबरदस्त अभिव्यक्ति ...बहुत सुन्दर ..!

Sadhana Vaid 8/23/2010 8:27 AM  

आपकी हर रचना की तरह यह रचना भी बेमिसाल है !
दिखाते तो हो जैसे
ख़ुशी के इन्द्रधनुष
पर हर धनुष पर
एक बाण भी रखते हो !
इन पंक्तियों ने मन को विव्हल कर दिया ! अति सुन्दर !

उम्मतें 8/23/2010 8:58 AM  

केवल इतना ! सुन्दर कविता !

पी.सी.गोदियाल "परचेत" 8/23/2010 11:03 AM  

बहुत खूब, सुन्दर रचना ! आज आपने तालिबानियों (पुरुष प्रधान समाज ) को भी लपेट लिया !

सदा 8/23/2010 11:28 AM  

कभी उसके मन की
पहली पर्त ही खोल पाते
तो नारी के मन की तुम
थाह ही पा जाते......
हर शब्‍द बहुत कुछ कहता हुआ, बेहतरीन अभिव्‍यक्ति के लिये बधाई के साथ शुभकामनायें ।

अजित गुप्ता का कोना 8/23/2010 11:55 AM  

आपकी कविता नि:संदेह अच्‍छी है लेकिन मेरा मन कभी भी पुरुषों को इतना भाव देने का नहीं करता है कि वे ही हमें नचा लें। वे तो स्‍वयं ही हीनभावना से ग्रसित रहते हैं इसी कारण दम्‍भ भरते हैं कि भ्रम में ही नारी डर के रहे। यदि नारी भी चाहे तो पुरुष को अच्‍छी तरह से नचा सकती है।

रंजना 8/23/2010 1:43 PM  

बस वाह...वाह...वाह....
और कुछ न कहूँगी...

राजेश उत्‍साही 8/23/2010 4:23 PM  

आपकी कविताओं से नारी मन की थाह मिलती है।

रचना दीक्षित 8/23/2010 6:32 PM  

कभी उसके मन की


पहली पर्त ही खोल पाते


तो नारी के मन की तुम


थाह ही पा जाते.....
नारी की पीड़ा. बेहतरीन अभिव्‍यक्ति
.

रानीविशाल 8/24/2010 12:30 AM  

कभी उसके मन की

पहली पर्त ही खोल पाते

तो नारी के मन की तुम

थाह ही पा जाते......
बहुत बहुत ही अभिभूत कर देने वाली रचना ......आखरी पंक्तियाँ मर्म बताती है इसलिए कोट की लेकिन पूरी की पूरी कविता उसकी हर एक पंक्ति बहुत सशक्त है ...गहरी छाप छोड़ती है !
आभार

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 8/24/2010 9:41 AM  

नारी मन की थाह को माप सका नही कोय!
किन्तु नारि की नारि से अधिक शत्रुता होय!!
--
भाई-बहिन के पावन पर्व रक्षा बन्धन की हार्दिक शुभकामनाएँ!
--
आपकी पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है!
http://charchamanch.blogspot.com/2010/08/255.html

Urmi 8/24/2010 11:49 AM  

सुन्दर एहसास के साथ लिखी हुई इस शानदार रचना के लिए बधाई!

KK Yadav 8/24/2010 12:32 PM  

एक कडवी सच्चाई को खूबसूरती से आपने शब्द दिए हैं..बधाई.

पद्म सिंह 8/24/2010 6:34 PM  

रक्षा बंधन की शुभकामनाएं.
सुंदर रचना...

शोभना चौरे 8/25/2010 12:22 AM  

अति सुन्दर अभिव्यक्ति |

Akshitaa (Pakhi) 8/25/2010 10:09 AM  

कित्ता प्यारा गीत ...बधाई.

ZEAL 8/25/2010 10:23 AM  

.
काश -

कभी उसके मन की

पहली पर्त ही खोल पाते

तो नारी के मन की तुम

थाह ही पा जाते......

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति।

संगीता जी,

कुछ लोग जीवन में ऐसे मिले जिन्होंने मुझे पर्त दर पर्त खोल लिया, अपने कमेन्ट के माध्यम उन लोगों को नमन ।

यदि नारी चाहती है की उसे लोग समझें, प्यार करें , सम्मान दें, तो उसे अपनी इस छुई-मुई गुडिया जैसी छवि से बाहर निकलना होगा।

'Let go' attitude से उबरना होगा । सच के लिए लड़ना होगा , जहाँ कुछ गलत हो रहा हो वहाँ उसके खिलाफ आवाज़ उठानी होगी । ऐसी नारियों के आगे सारे 'माई के लाल' इज्ज़त से सर झुका देते हैं।

जरूरत है की नारियां अपने पति को परमेश्मर न समझकर , उसे अपनी जिम्मेदारी समझें। उसकी उपासक न बनकर , उसकी पथ-प्रदर्शक बनें।

पुरुषों की तरफ दीन-हीन अकिंचन बनकर देखने से बेहतर है , खुद को मज़बूत बनाएं और उनका भी सहारा बनें।

पतियों के दोष को न छुपायें ....शाइनी आहूजा की पत्नी ने अपने पति की घृणित हरकत को माफ़ कर दिया , जिसने उसकी ही बहेन जैसी एक नारी की इज्ज़त लूटी । आखिर क्यूँ ? खैर, ...

सुन्दर रचना....बधाई। इसे पढ़कर बहुत से पुरुष पिघलेंगे। संभवतः युग बदलेगा ।

Asha Lata Saxena 8/25/2010 12:50 PM  

प्रिय संगीता जी ,
आपकी कविता कहीं गहरे सोच के लिए प्रेरित करती है |आप बहुत
अच्छा लिखती हैं |बहुत बहुत बधाई |
आशा

रश्मि प्रभा... 8/25/2010 9:50 PM  

jab tak milti hai mann ki thah, sare darwaze band ho jate hain ........

हरकीरत ' हीर' 8/25/2010 10:15 PM  

संगीता जी ,
नारी मन की व्यथा को बहुत गहराई से व्यक्त किया है आपने ......!!

निठल्ला 8/26/2010 8:15 AM  

बहुत अच्छी तरह भावों को उकेरा है आपने

Khare A 8/26/2010 12:34 PM  

काश -

कभी उसके मन की

पहली पर्त ही खोल पाते

तो नारी के मन की तुम

थाह ही पा जाते......

well said Sangeeta di

Anupama Tripathi 8/26/2010 12:44 PM  

बहुत सशक्त -मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति
शुभकामनाएं

Anupama Tripathi 8/26/2010 12:45 PM  

बहुत सशक्त -मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति
शुभकामनाएं

KK Yadav 8/26/2010 5:25 PM  

नारी मन की थाह भला कौन ले पाया है...प्रभावशाली रचना के लिए बधाई.
________________
शब्द-सृजन की ओर पर ''तुम्हारी ख़ामोशी"

Unknown 8/30/2010 1:08 PM  

दिखाते तो हो जैसे

ख़ुशी के इन्द्रधनुष

पर हर धनुष पर

एक बाण भी रखते हो
नज़्म तो पूरी ही सुंदर है पर यह पंक्तियाँ काफी अच्छी लगी .मैं तो नारी के आंचलको आकाश मानता हूँ .देवी सारी धूप आपने सर ले लेती है.जितना लिखू बात बढती जायेगी बस यही की बहुत अच्छा लिखा है के साथ कृशन बिहारी नूर साब का शेर सुनाता चलूँ
यह मेरे घर की उदासी है और कोई नहीं
चोखट पर दिया जलाये जो मेरी तलाश में है

Anonymous,  9/18/2010 9:05 AM  

ek ek line kitni sateek hai......superb.
....par ye aadamzaat samjhe tab na ;)

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