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जिद्दी सिलवटें

>> Wednesday, June 27, 2012


Folds : Luxurious white satin/silk folded fabric, useful for backgrounds

मन की चादर पर 
वक़्त ने डाली हैं 
न जाने कितनी सिलवटें 
उनको सीधा करते - करते 
अनुभवों का पानी भी 
सूख गया है 
प्रयास की 
इस्तरी  ( प्रेस )  करने से भी 
नहीं निकलतीं ये 
और कुछ  अजीब से 
दाग  रह जाते हैं पानी के 
कितना ही धोना चाहो 
धब्बे हैं कि 
बेरंग हो कर भी 
छूटते नहीं 
काश --
मन की चादर के लिए भी 
कोई ब्लीच होता ।




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अनुभूति .... / पुस्तक परिचय / अनुपमा त्रिपाठी

>> Monday, June 25, 2012



कुछ समय पूर्व  मुंबई प्रवास के दौरान अनुपमा त्रिपाठी जी से मिलने का मौका मिला ।उन्होने मुझे अपनी दो पुस्तकें  प्रेम सहित भेंट कीं । जिसमें से एक तो साझा काव्य संग्रह है –“ एक सांस मेरी “ जिसका  सम्पादन सुश्री  रश्मि प्रभा  और श्री  यशवंत माथुर ने किया है ...इस पुस्तक के बारे में  फिर कभी .....

आज मैं आपके समक्ष लायी हूँ अनुपमा जी  की पुस्तक अनुभूति का परिचय । अनुभूति से पहले थोड़ा सा परिचय अनुपमा जी का ... उनके ही शब्दों में --- ज़िंदगी में समय से वो सब मिला जिसकी हर स्त्री को तमन्ना रहती है.... माता- पिता की दी हुयी शिक्षा , संस्कार  और अब मेरे पति द्वारा दिया जा रहा वो सुंदर , संरक्षित जीवन जिसमें वो एक स्तम्भ की तरह हमेशा साथ रहते हैं .... दो बेटों की माँ  हूँ और अपनी घर गृहस्थी में लीन .... माँ संस्कृत की ज्ञाता थीं उन्हीं की हिन्दी साहित्य की पुस्तकें पढ़ते पढ़ते हिन्दी साहित्य का बीज हृदय में रोपित हुआ  और प्रस्फुटित हो पल्लवित हो रहा है ... “

साहित्य के अतिरिक्त इनकी रुचि गीत संगीत और नृत्य  में भी है । इन्होने शास्त्रीय संगीत और सितार की शिक्षा ली है । श्रीमती सुंदरी शेषाद्रि से भारतनाट्यम सीखा । युव वाणी : आल इंडिया रेडियो और जबलपुर आकाशवाणी से भी जुड़ी । 2010  में मलेशिया  के टेम्पल  ऑफ फाइन आर्ट्स  में हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की शिक्षा भी दी .... आज भी नियमित शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रम  देती रहती हैं .....
इनकी रचनाएँ पत्रिकाओं में भी स्थान पा चुकी हैं ....

अनुभूति पढ़ते हुये अनुभव हुआ कि अनुपमा जी जीवन के प्रति बहुत सकारात्मक दृष्टिकोण  रखती हैं  .....   अपनी बात में वो लिखती हैं ---

जाग गयी चेतना
अब मैं देख रही प्रभु लीला
प्रभु लीला क्या , जीवन लीला
जीवन है संघर्ष तभी तो
जीवन का ये महाभारत
युद्ध के रथ पर
मैं अर्जुन तुम सारथी मेरे
मार्ग दिखाना
मृगमरीचिका नहीं
मुझे है जल तक जाना ।

इस पुस्तक में उनकी कुल 38 कवितायें प्रकाशित हैं .... सुश्री रश्मि प्रभा जी ने अनुपमा जी की पुस्तक के लिए शुभकामनायें प्रेषित करते हुये लिखा है --- " पल पल साँसों के क्रम में हम कभी इस देहरी से उस देहरी , इस चाहत से उस चाहत गुज़रते हैं - कभी होती हैं आँखें नम, कभी एक मुस्कान पूर्णता बन जाती है । भिन्न भिन्न रास्तों  से  भिन्न भिन्न अस्तित्व । रचनाओं की बारीकी कहती है कि अनुपमा जी ने इस अस्तित्व को जीवंत किया है । "
सभी कवितायें पढ़ कर एक सुखद एहसास हुआ कि  कहीं भी कवयित्रि के मन में नैराश्य  का भाव नहीं है .... हर रचना में जीवन  में आगे बढ़ने की ललक और परिस्थितियों  से संघर्ष करने का उत्साह दिखाई देता है

मंद मंद था हवा का झोंका
हल्की सी थी तपिश रवि की
वही दिया था मन का मेरा
जलता जाता
जीवन ज्योति जलाती जाती
चलती जाती धुन में अपनी
गाती जाती बढ़ती जाती ।

कवयित्री  क्यों कि  संगीत से बेहद जुड़ी हुई हैं तो बहुत सी कविताओं में विभिन्न रागों का ज़िक्र भी आया है ... राग के नाम के साथ जिस समय के राग हैं उसी समय को भी परिलक्षित किया है ..... कहीं कहीं रचना में शब्द ही संगीत की झंकार सुनाते प्रतीत होते हैं ---

जंगल में मंगल हो कैसे
गीत सुरीला संग हो जैसे
धुन अपनी ही राग जो गाये
संग झाँझर झंकार सुनाये
सुन सुन विहग भी बीन बजाए
घिर घिर  बादल रस बरसाए
टिपिर टिपिर सुर ताल मिलाये ।

ईश्वर के प्रति गहन आस्था इनकी  रचनाओं में देखने को मिलती है ---

प्रभु मूरत बिन /चैन न आवत /सोवत खोवत / रैन गंवावत /
या ---
बंसी धुन मन मोह लयी /सुध बुध मोरी बिसर गयी /
या
प्रभु प्रदत्त / लालित्य से भरा ये रूप / बंद कली में मन ईश स्वरूप ।

कहीं कहीं कवयित्रि आत्ममंथन करती हुई दर्शनिकता का बोध भी कराती है

जीवन है तो चलना है / जग चार दिनों का मेला है / इक  रोज़ यहाँ ,इक रोज़ वहाँ / हाँ ये ही रैन बसेरा है ।
सामाजिक सरोकारों को भी नहीं भूली हैं । प्रकृति प्रदत्त रचनाओं का भी समावेश है ---- आओ धरा  को स्वर्ग बनाएँ 

कविताओं की विशेषता है कि  पढ़ते पढ़ते जैसे मन खो जाता है और रचनाएँ आत्मसात सी होती जाती हैं .... कोई कोई रचनाएँ संगीत की सी तान छेड़ देती हैं लेकिन कुछ रचनाएँ ऐसी भी हैं जिनमे गेयता का अभाव है ... लेकिन मन के भावों को समक्ष रखने में पूर्णरूप से सक्षम है । पुस्तक का आवरण  पृष्ठ सुंदर है .... छपाई स्पष्ट है .... वर्तनी अशुद्धि भी कहीं कहीं दिखाई दी .... ब्लॉग पर लिखते हुये  ऐसी अशुद्धियाँ नज़रअंदाज़ कर दी जाती हैं  लेकिन पुस्तक में यह खटकती हैं .... प्रकाशक क्यों कि  हमारे ब्लॉगर साथी ही हैं  इस लिए उनसे विनम्र  अनुरोध है  इस ओर थोड़ी सतर्कता बरतें ।

कुल मिला कर यह पुस्तक पठनीय और सुखद अनुभूति देने वाली है .... कवयित्री को मेरी बधाई और शुभकामनायें ।


पुस्तक का नाम अनुभूति

रचना कार --     अनुपमा त्रिपाठी

पुस्तक का मूल्य – 99 / मात्र

आई  एस बी एन – 978-81-923276-4-8

प्रकाशक ज्योतिपर्व प्रकाशन / 99, ज्ञान खंड -3 इंदिरापुरम / गाजियाबाद – 201012










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हमारे मौन

>> Monday, June 18, 2012




नि: शब्द हूँ मैं 

तुम्हारे मौन को 
पालती हूँ 
पोसती हूँ 
और जब 
होता है मौन 
मुखरित तो 
हतप्रभ सी 
रह जाती हूँ ,


हमारी सोचें 
कितनी भी हों 
विरोधाभासी 
फिर भी कभी 
"हम" के वजूद से 
नहीं टकरातीं 
जब तुम्हारा "मैं "
आता है सामने 
तो मैं ---
हम बन जाती हूँ 
और जब मेरा "मैं "
दिखता है तुम्हें 
तो तुम --
हम बन जाते हो ,


यूं ही हमारे मौन 
अक्सर एक दूजे को 
नि: शब्द सा  करते हैं ।





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पुस्तक परिचय -------" मेरे गीत " / गीतकार --- सतीश सक्सेना

>> Thursday, June 14, 2012




कुछ दिन पूर्व  सतीश सक्सेना जी के सौजन्य से मुझे उनकी पुस्तक  " मेरे गीत "  मिली  और मुझे उसे गहनता से पढ़ने का अवसर भी मिल गया । सतीश जी ब्लॉग जगत की ऐसी शख्सियत हैं जो परिचय की मोहताज नहीं है ।  आज  अधिकांश  रूप से जब छंदमुक्त रचनाएँ लिखी जा रही हैं उस समय उनके लिखे भावपूर्ण गीत मन को बहुत सुकून देते हैं । उनके गीतों और भावों से परिचय तो  उनके ब्लॉग  पर होता रहा है  लेकिन पुस्तक के रूप में  उनके गीतों को  पढ़ना  एक सुखद अनुभव रहा । पुस्तक पढ़ते हुये यह तो निश्चय ही  पता चल गया कि  सतीश जी एक बहुत भावुक और कोमल हृदय के इंसान हैं । 
बचपन में ही माँ  को खो देने पर भी जो छवि माँ  की मन में अंकित  की है  उसकी एक झलक उनकी माँ को समर्पित   उनके गीतों में मिलती है --
हम जी न सकेंगे दुनियाँ में 
माँ जन्में कोख  तुम्हारी से 
जो दूध  पिलाया  बचपन में 
यह शक्ति  उसी से पायी है 
जबसे तेरा आँचल छूटा, हम हँसना  अम्मा भूल गए 
हम अब भी आँसू भरे , तुझे  टकटकी  लगाए बैठे हैं । 

या फिर  माँ की याद में एक काल्पनिक चित्रण कर रहे हैं ---

सुबह सवेरे  बड़े जतन से 
वे मुझको नहलाती  होंगी 
नज़र न लग जाये, बेटे को 
काला तिलक लगाती होंगी 
चूड़ी, कंगन और सहेली , उनको कहाँ लुभाती होगी ? 
बड़ी बड़ी  आँखों की पलकें , मुझको ही सहलाती होंगी । 

ईश्वर के प्रति भी अगाध श्रद्धा भाव रखते हुये  सारी प्रकृति  के रचयिता को याद करते हुये कह उठते हैं --

कल - कल , छल- छल जलधार 
बहे , ऊंचे शैलों की चोटी से 
आकाश चूमते वृक्ष  लदे
हैं , रंग बिरंगे  फूलों से 
हर बार रंगों की चादर से , ढक  जाने वाला कौन ?
धरा को बार बार  रंगीन बना कर जाने वाला कौन ? 

इनके गीतों में पारिवारिक भावना बहुत प्रबलता से  महसूस होती है ..... 

कितना दर्द दिया अपनों को 
जिनसे हमने चलना सीखा 
कितनी चोट लगाई  उनको 
जिनसे हमने हँसना सीखा 
स्नेहिल आँखों के आँसू , कभी नहीं जग को दिख पाये 
इस होली पर , घर में आ कर , कुछ गुलाब के फूल खिला दें । 

वृद्ध  होते पिता के मनोभावों को जिस तरह गीत में उकेरा है उससे जहां मन भीगता है वहीं प्रेरणा भी मिलती है --

सारा जीवन कटा भागते 
तुमको नर्म बिछौना लाते 
नींद तुम्हारी न खुल जाये 
पंखा झलते थे सिरहाने 
आज तुम्हारे कटु वचनों से ,मन कुछ डांवाडोल हुआ है 
अब लगता तेरे बिन मुझको , चलने का अभ्यास चाहिए । 

सामाजिक सरोकारों को भी गीतकार नहीं भूला है ।  उनके गीत की ये  पंक्तियाँ  आपसी भेद भाव भुला  देने के लिए काफी हैं ---

चल उठा कलम  कुछ ऐसा लिख 
जिससे घर का सम्मान बढ़े 
कुछ कागज काले कर ऐसे 
जिससे आपस में प्यार बढ़े 
रहमत चाचा के कदमों में , बैठे पाएँ घनश्याम अगर ,
तो रक्त पिपासु दरिंदों को , नरसिंह  बहुत मिल जाएँगे । 

एक ओर  जहां धर्म के ठेकेदारों  पर  भी  गीतकार की कलम चली है  वहीं दलित वर्ग के शोषण को भी उजागर किया है ---

बीसवीं  सदी में पले  बढ़े 
ओ धर्म के ठेकेदारों  तुम 
मंदिर के द्वारे खड़े हुये 
उन मासूमों की बात सुनो 
बचपन से  इनको गाली दे , क्या बीज डालते हो भारी 
इन फूलों को अपमानित कर क्यों लोग मानते दीवाली ? 

******************************
वंचित रखा पीढ़ियों इन्हें 
बाज़ार हाट  दुकानों से 
सब्जी , फल , दूध , अन्न अथवा 
मीठा खरीद कर खाने से 
हर जगह सामने आता था , अभिमान सवर्णों का आगे 
मिथ्या अभिमानों को लेकर  क्यों लोग मनाते दिवाली । 

सतीश जी के सभी गीत भावप्रबल हैं । इस पुस्तक में यूं तो सभी गीत  सुंदर और कोमल भावों के एहसास को सँजोये हुये हैं  लेकिन सबसे ज्यादा मुझे जिस गीत ने  प्रभावित  किया है वह है --- पिता का खत पुत्री को 
इस गीत में गीतकार हर उस पिता की भावनाओं को कह रहा है जिसकी बेटी ब्याह कर पराए घर को अपनाने जा रही है .... उस पराए घर को अपना बनाने की सीख देता यह गीत बहुत सुंदर बन पड़ा है -

मूल मंत्र सिखलाता हूँ मैं 
याद  लाडली रखना इसको 
यदि तुमको कुछ पाना हो 
देना पहले सीखो पुत्री 
कर आदर सम्मान बड़ों का , गरिमामयी तुम्ही होओगी 
पहल करोगी अगर नंदनी , घर की रानी तुम्ही रहोगी ।
*******************
कार्य  करो संकल्प उठा कर 
हो कल्याण सदा निज घर का 
स्व-अभिमानी बन कर रहना 
पर अभिमान न होने पाये 
दृढ़ विश्वास हृदय में ले कर कार्य करोगी, सफल रहोगी 
पहल करोगी अगर नंदनी .....

पुस्तक में एक - दो जगह कुछ वर्तनी अशुद्धि दिखाई दी  लेकिन सुंदर गीतों के आगे वो नगण्य  ही है .... जैसे --

पृष्ठ संख्या - 25 पर 
बरसों मन में गुस्सा बोयी 
ईर्ष्या ने, फैलाये बाज़ू 

गुस्सा शब्द पुल्लिंग होने के कारण बोयी के स्थान पर बोया  आना चाहिए था ।

कुछ टंकण अशुद्धियाँ भी दिखीं  जैसे 
पृष्ठ संख्या -56 
दवे हुये जो बरसों से थे .....
दवे  की जगह दबे  होना चाहिए था ...
इसी पृष्ठ पर --
द्रष्टिभर के स्थान पर  दृष्टिभर  सही रहता ।

एक संशोधन की आवश्यकता थी ,  शायद इस ओर किसी का ध्यान नहीं गया --- पृष्ठ संख्या 49 पर जो गीत है वही पृष्ठ संख्या 59 पर भी है । बस गीत का शीर्षक अलग अलग है --- ज़ख़्मों को सहलाना क्या  / कैसे समझाऊँ मैं तुमको पीड़ा का सुख क्या होता है । 

पुस्तक की बाह्य साज सज्जा  सुंदर है ,छपाई स्पष्ट  है .... हर पृष्ठ पर सौंदर्य  बढ़ाने हेतु  किनारा ( बौर्डर ) बनाया गया है । उसे देख मुझे ऐसा लगा कि जैसे गीतों ने अपनी उन्मुक्तता  खो दी है ..... भावनाओं को जैसे बांधने का प्रयास किया गया हो ...यह मेरी अपनी सोच है ...इससे गीतों के रस और भावनाओं पर कोई असर  नहीं पड़ने वाला .... 

कुल मिला कर  आज  के परिपेक्ष्य  में "  मेरे गीत " पुस्तक नि: संदेह पाठक को भावनात्मक रूप से बांधने मे सक्षम है ।इस पुस्तक के गीत कार  सतीश सक्सेना जी को  मेरी हार्दिक शुभकामनायें । 

पुस्तक  का नाम ----    मेरे गीत 
गीतकार -----             सतीश सक्सेना 
मूल्य  -----------          199 / 
आई एस बी एन --        978-93-82009-14-6
प्रकाशन -                ज्योतिपर्व  प्रकाशन 



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